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बुधवार, 29 जून 2016

साइकिल के साथ तैराकी का लुत्फ़

रायबरेली के नेहरू स्टेडियम में स्विमिंग पूल चालू हुआ तो मैंने अपनी साइकिल से सैर का कार्यक्रम इस तरण-ताल से जोड़ दिया। पिछले महीने भर से मेरी रायबरेली में सुबह की चर्या प्रायः एक जैसी हो गयी है। अब साइकिल से इधर-उधर घूमने के बजाय मैं तैराकी की तैयारी से निकलता हूँ, जेलरोड से चलकर स्टेडियम तक साइकिल से जाता हूँ। रास्ते में रोज ही वही चेहरे दिखायी देते हैं। बुजुर्ग और प्रौढ़ टहलते हुए, सड़क किनारे बने झोंपड़ों की औरतें घर के सामने झाड़ू-बुहारू और बर्तन मांजते हुए, घोषियों के बाड़े में गायों और भैंसों की सेवा में लगी लड़कियाँ और औरतें गोबर निकालती हुई और पुरुष दूध दुहते हुए, अपने डिब्बों के साथ कुछ लोग दूध नपवाने की प्रतीक्षा करते हुए और चाय की दुकान वाले भठ्ठी में कोयला भरते और आग सुलगाते हुए मिलते हैं।
सड़क की पटरी पर कुछ छोटी झोपड़ियां ऐसी भी हैं जिनके बाहर पड़ी खटिया पर कुछ बच्चे-बच्चियां और मर्द गहरी नींद में सोये मिलते हैं जैसे रात में गर्मी और ऊमस ने सोने न दिया हो और भोर की ठंडी हवा मिलने के बाद चैन की नींद आयी हो। खटिया के पास ही घर की औरत जमीन पर बैठकर सब्जी काटती या खाना बनाने की तैयारी करती दिख जाती है। एक दो तांगे भी मुंह ऊपर किए खड़े नज़र आते हैं जिनमें जुतने वाले घोड़े या घोड़ियां छुट्टा घूमते और जेल के सामने वाली खाली जमीन में घास चरते दिख जाते हैं। इन्हीं झोपड़ियों के सामने कुछ ठेले भी खड़े मिलते हैं जिनपर चमकदार सजावट और रंगीन बोतलें देखकर लगता है कि ये शहर के अलग अलग नुक्कड़ों पर रंगीन बर्फ़ वाला पानी, शर्बत और दूसरी चीजें बेचने के लिए जाते होंगे।
पेट्रोल पंप से आगे बढ़ने पर साई के स्पोर्ट्स हॉस्टल के प्रांगण में बने चबूतरे पर कुछ बुजुर्ग योग और प्राणायाम करते दिख जाते हैं तो स्टेडियम के गेट से लडके-लड़कियाँ, औरतें और मर्द अपने-अपने स्वास्थ्य की जरूरतों व पसंद के हिसाब से दौड़ने, टहलने, गप्पें लड़ाने, टाइम पास करने, हवा खाने या क्रिकेट, बैडमिंटन, वॉलीबॉल, फुटबॉल, हॉकी आदि खेलने के लिए आते या वापस जाते मिल जाते हैं। मैं अपनी साइकिल लेकर जब भी गेट के भीतर घुसता हूँ तो बैडमिंटन कोर्ट के सामने कोई न कोई साथी मिल जाता है। 
मुस्कान और अभिवादन के बाद सीधे स्विमिंग पूल के चैनेल गेट की और बढ़ जाता हूँ- रोज यह सोचता हुआ कि स्टेडियम के भीतर की यह सड़क जो अब गढ्ढों में बिखरे कंकड़-पत्थर के ढेर में तब्दील हो चुकी है वह कब किसी विकास योजना की कृपा प्राप्त करेगी। इस सड़क की दोनो तरफ अशोक के पेड़ जो बत्तीस साल पहले यहाँ के चौकीदार/चपरासी/माली रामनरेश ने लगाये थे वे बढ़कर आसमान से बातें करने लगे हैं, लेकिन सड़क का निरंतर ह्रास होता गया है। प्रकृति की देखभाल पाकर पेड़ों ने तो आसमान छू लिया लेकिन मनुष्य के भरोसे रहने वाली सड़क उसका भार ही ढोती रही और दुर्दशा से ग्रस्त हो गयी।

तरण ताल का निर्धारित समय साढ़े-पाँच से साढ़े-छः का है लेकिन मैं पन्द्रह-बीस मिनट देर से ही पहुँचता हूँ। वहाँ पहले से शुरू कर चुके ढेर सारे किशोरों और बड़ी उम्र के शौकिया तैराकों के बीच डाइव लगाकर पहुँचता हूँ और हरे पानी से भरे ताल में तैरने का अभ्यास करता हूँ। कोच की सीटी बजने के बाद सभी बाहर निकलते हैं। सबसे अंत में मैं निकलता हूँ ताकि बाथरूम में धक्का-मुक्की से बचा रहूँ।
आज-कल मानसून की पहली बारिश के बाद मौसम सुहाना लगने लगा है। धूल, गर्मी और पसीने से राहत मिल गयी है और घर से बाहर निकलना अच्छा लग रहा है। आज जब हमलोग तैर रहे थे तो आसमान में अचानक काले बादलों का एक पहाड़ ऊपर से गुजरा। लगभग अँधेरा छा गया। कुछ बच्चे तो चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे- कोच अंकल, लाइट जलवा दीजिए। लेकिन दो-तीन मिनट में ही हवा ने बादलों को परे धकेल दिया और रोशनी बढ़ गयी। एक बच्चे का जन्मदिन भी मनाया जा रहा था। बेचारे को पूल में सभी तंग कर रहे थे। फिर फोटुएं भी खींची गयीं।

आज जब मैं तैराकी के बाद बाथरूम में घुसा तो अगले बैच के बच्चे तैराकी के लिए जमा हो चुके थे। कोच द्वारा उनसे तैराकी के पहले कुछ वार्मअप एक्सरसाइज करायी जा रही थी। लेकिन दो तीन बच्चे बाथरूम एरिया में छिपे हुए कानाफूसी कर रहे थे। उनका आशय यह था कि अभी कसरत से बचा रहा जाय और जब पानी में उतरने की बारी आये तब बाहर निकला जाय। मैं यह हरकत भी प्रायः रोज देखता रहा हूँ। आज मैंने कोच को बता दिया। कोच ने उन बच्चों को डांटा और पूल का चक्कर तो लगवाया ही, मुझे बताया कि उनमें से एक के पापा यह शिकायत भी कर रहे थे कि दो महीने से तैरने के बावजूद उसका वजन क्यों नहीं घट रहा है।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) www.satyarthmitra.com

1 टिप्पणी:

  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति सांख्यिकी दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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