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शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

साइकिल से देखा ग्रीप साहब का पुरवा

शुक्रवार से स्विमिंग पूल की सफाई शुरू हुई है, एक हफ़्ते बंद रहेगा। लेकिन मुझे कोई अफ़सोस नहीं है, क्योंकि मेरी साइकिल मेरे पास है। रोज की तरह सुबह साढ़े-पाँच बजे निकल पड़ा अपनी द्विचक्री पर सवार होकर, एक नये रास्ते की तलाश में।
सरकारी कॉलोनी से इंदिरा उद्यान की ओर निकलकर महानंदपुर की ओर चल पड़ा। यहाँ पुराने गाँव जैसी ही बसावट है। हाँ, पिचरोड के किनारे पक्के रिहाइशी मकान हैं जिनमें एक-दो छोटी दुकाने भी खोल ली गयी हैं। परचून, मोबाइल चार्जिंग, ब्रेड और चाय-पकौड़ी इत्यादि। इधर दुग्ध व्यवसाय भी मजे का है। घोषी बाड़े में गायें और भैंसें दूही जा रही थीं और खरीदार डिब्बा लेकर खड़े थे। एक झोपड़े में चार-पांच घोड़े-घोड़ियाँ दाना-भूसा खा रहे थे जिनके तांगे सड़क किनारे खड़े होकर आसमान ताक रहे थे।
आगे ईसाई समुदाय का एक कब्रिस्तान है जिसमें चारदीवारी बनी हुई है और एक बोर्ड लगाकर इसकी जमीन पर अवैध कब्जे के विरुद्ध सचेत किया गया है। मोड़ से आगे 'स्वामी सत्यमित्रानंद पीजी कॉलेज का बोर्ड लगा है। दायीं ओर करीब सौ मीटर दूर कॉलेज की तीन मंजिल वाली बिल्डिंग भी दिखी। मुझे तो नाक के नीचे खड़े इस महाविद्यालय के बारे में कुछ भी नहीं पता था। जो जानते हों वे मुझे बता सकते हैं।
इसके आगे कुछ नये-नवेले मकान सीधी कतार में बने दिखे जिसपर संगमरमर के पत्थरों पर गृहस्वामियों के नाम के साथ 'हर्षनगर' लिखा हुआ था। उनके आगे कुछ निर्माणाधीन भवन थे और कुछ बॉउंड्री वाले खाली प्लॉट थे। मुश्किल से पाँच सौ मीटर बाद अचानक पक्की सड़क समाप्त हो गयी और कच्ची व उबड़-खाबड़ पगडंडी आ गयी। मैंने पैडल पर जोर लगाया और इस कठिन रास्ते पर चलने का एडवेंचर करने लगा। पगडंडी जल्दी ही खाली खेतों के बीच जाकर खो गयी और मैं एक टीले को समतल बनायी हुई जमीन पर जाकर खड़ा हो गया। यहाँ से आगे कोई सड़क ही नहीं थी। चारो और जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े थे और उनके बीच आवासीय प्लॉट उपलब्ध है, यह बताने वाले बोर्ड लगे हुए थे। मैंने वहाँ से साफ चमकते सूर्य देव को नमस्कार किया, उनकी और साइकिल की एक साथ फोटो ली और वापस आने को विवश करती पगडंडी पकड़कर लौटने लगा। तभी एक साइकिल सवार आया। उसके कैरियर में एक Dew की बड़ी वाली बोतल दबी थी जिसमें पानी भरा था। मुझे पार कर वह उस ओर गया जिधर से मैं लौटा था। उसने साइकिल खड़ी की, बोतल निकाल कर हाथ में लटकाया और एक झुरमुट के पीछे हो लिया।
मुझे बोतल के साथ पैदल आते-जाते तो कई लोग मिले लेकिन साइकिल लेकर निपटान को निकलने वाला यही बंदा मिला। पैदल दिशा-मैदान को निकलने वाले अब लोटा या डिब्बा नहीं लेते, कोल्ड ड्रिंक्स की बड़ी वाली बोतल सबसे मुफीद है। उनके द्वारा बोतल पकड़ने का अंदाज भी रोचक है। तर्जनी ऊँगली बोतल के मुँह में घुसी हुई और शेष उँगलियाँ बाहर से सहारा देती हुई। किसी अन्य प्रयोजन से बोतल को यूँ नहीं पकड़ते। वैसे ही जैसे लोटे में पीने वाला पानी हो तो लोटा ऊपर और हाथ नीचे रहता है, लेकिन यदि धोने वाला पानी है तो लोटा नीचे और हाथ ऊपर रहता है।
खैर, मैं उस ओर से यह सोचता हुआ वापस आ रहा था कि ज़रूरत भर की साइकिल तो चली नहीं, अब कोई और रास्ता पकड़ना पड़ेगा; तभी उस कच्चे रास्ते से ही एक सड़क उत्तर की ओर दिख रहे गाँव की ओर जाती दिखी। मैं उसी ओर मुड़ चला क्योंकि जिस रास्ते आया था उसी रास्ते वापस लौटना नहीं चाहता था। यह कच्ची सड़क दायें बायें मुड़ते हुए उस गरीब बस्ती की ओर बढ़ती गयी। रास्ते में वही आवासीय प्लॉटों की दागबेल पड़ी हुई मिलती रही। एक जगह किसी ने बड़े से प्लॉट को घेरकर यूकेलिप्टस के पेड़ लगा रखे थे जो खूब बढ़कर घने हो गये थे। उसके पास ही छुट्टा भैंसें चरती-विचरती मिलीं। इनका सुबह का दूध दूह लिया गया होगा और शाम के दूध के लिए जरूरी खुराक लेने के लिए पगहा खोल दिया गया होगा।
मुझे उस बस्ती में घुसने के लिए साइकिल से उतरना पड़ा। अंदर से निकलकर जो खडंजा मार्ग मुहाने तक आया था वह एक गन्दी नाली में डूबा हुआ था। नाली का ढलान इसी ओर था जो बस्ती के सभी घरों के नाबदान का पानी बाहर लेकर आ रही थी। गंदे पानी के बीच दो चार ईंटे रखी थी जिसपर पैर रखकर आने-जाने का जुगाड़ बनाया गया था। मैंने उन्हीं ईंटों के सहारे नाली को पार किया और उस घनी बस्ती की पतली सी सड़क पर आगे की चढ़ाई चढ़ता गया। सड़क पर कभी सीमेंट वाली ईंटों का खड़ंजा लगा होगा जो अब खराब होकर उबड़-खाबड़ व दरारों से भरा हो गया था।
सड़क पर ही लगे नलों व हैण्डपाइप्स पर दोनों ओर के घरों की औरतें बर्तन मांजते, कपड़ा धुलते और नहाती हुई मिलीं। ऐसी जगह से मैं यथाशीघ्र निकल जाना चाहता था। मुझे लगा जैसे मैं उनकी प्राइवेसी का उल्लंघन कर रहा हूँ। हालांकि मैं अपनी साइकिल पर सवार एक सार्वजनिक सड़क से गुजर रहा था। इस मुहल्ले का नाम जानने के लिए मुझे तीन प्रयास करने पड़े। तीसरे आदमी से सुनने के बाद मुझे अनुमान हुआ कि इसे 'ग्रीप साहब का पुरवा' कहते हैं। इसके दूसरी छोर पर पहुँचा तो एक बड़े से मकान के सामने एक सज्जन प्लास्टिक की पाइप लगाकर अपनी मोटरसाइकिल धुल रहे थे। उनसे पता चला कि यह पुरवा नगरपालिका सीमा के भीतर है। अंदर की बदहाल सड़क और बजबजाती नाली के बारे में पूछने पर बोले कि यहाँ के सभासद ठीक नहीं हैं।
वहाँ से चौड़ी और समतल पिचरोड मिली तो मैं खुश होकर आगे बढ़ा लेकिन दस कदम बाद ही एक पुलिया आयी जिसके पार सरकारी आवास दिखने लगे। इसका मतलब मैं अपने मुहल्ले के एक सिरे पर पहुँच गया। मैंने सोचा, साइकिल तो मुश्किल से दो-तीन किलोमीटर ही चली है, फिर घर कैसे लौटूँ?
मैंने अपनी इच्छाशक्ति का आकलन किया और कम से कम छः किलोमीटर और चलने के उद्देश्य से केंद्रीय विद्यालय होते हुए परशदेपुर वाली सड़क पर चल पड़ा। उधर का किस्सा अगली किश्त में। अभी इतने का आनंद लीजिए










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