आज दुबारा पुंवारका से बरौली रोड पर 8 किलोमीटर तक बिना रुके साइकिल से गया। मील के पत्थर पर रुका, कुछ सेल्फी ली और वापस मुड़कर पैडल पर पांव रखते हुए यह सोचने लगा कि जब दूरी की इकाई किलोमीटर में लिखी है तो इसे 'माइल-स्टोन' क्यों कहते हैं। अंग्रेजी विरासत यहां भी उपस्थित है।
वापसी के दौरान बरबस मुझे दो - तीन बार रुकना पड़ा।
सबसे पहले एक आम के बाग ने आकर्षित किया। मैने रुककर पूछा कि पककर तैयार आम मिलेंगे क्या? वहां खड़े एक आदमी ने टोकरी दिखाई जिसमें डाल से टपके हुए फल रखे थे। मैने चुनचुनकर 10-12 ताजे आम निकाले, डिजिटल तराजू पर तौल कराई, पैसे दिए और साइकिल के कैरियर पर थैली को बांधकर चल दिया। इसमें मालदा, दशहरी, और एक अन्य कलमी प्रजाति भी थी जो मुझे याद नहीं। देसी प्रजाति वाले बिज्जू आम दो चार दिन बाद मिलेंगे।
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रास्ते में जो सबसे बड़ा वाला तालाब है उसके ऊपर दो तीन बगुले मंडरा रहे थे। वे पानी की सतह पर खुली हवा में सांस लेने के लिए ऊपर आने वाली मछलियों के शिकार का प्रयास कर रहे थे। मन हुआ कि इसका वीडियो बनाऊँ लेकिन संकोच कर गया। कार्डियो वर्कआउट में विराम जो लग जाता।
आगे बढ़ा तो एक हरे-भरे खेत के बगल से गुजरते हुए मेरे नथुने एक विशेष सुगंध से भर उठे। ऐसी सुगंध तो रसोई में तब फैलती है जब बासमती या कालानमक चावल उबल रहा होता है। मैं वहां बरबस ही रुक गया। किसी सुगंधित प्रजाति का धान था जिसकी बालियां इस खेत में फूटने वाली थीं। देखने से स्पष्ट था कि यह किसी बड़े और शौकीन किसान का खेत है। खेत की तस्वीर में इससे उठती मादक सुगंध तो कैद नहीं हो सकती थी लेकिन इसके सौंदर्य का आनंद तो लिया ही जा सकता है।
आगे बढ़ा तो एक गड़ेरिए का बाड़ा मिला जहां भेड़ों का समूह शांति से बैठकर आराम कर रहा था। मेरी नजर एक किनारे पर गई तो देखा कि एक भेड़ सिर को जमीन पर चिपकाए हुए आपादमस्तक पसरी हुई है और लगभग उसके ऊपर ही बैठा हुआ एक आदमी उसके बाल काट रहा है। कौतूहल वश साइकिल खड़ी करके मैं उसके पास चला गया। भेड़ के बाल काटने की कैची कुछ विशिष्ट आकार-प्रकार की थी। इसे चलाने के लिए दोनो हाथों की जरूरत पड़ती है। गड़ेरिया प्रमोद ने बताया कि साल में तीन बार बाल काटे जाते हैं। उनके पास कुल 130 भेंड़ और 7-8 बकरियां हैं। रोज उन्हें जंगल में चराने ले जाते हैं। इनके भटक जाने या चोरी हो जाने का डर बना रहता है। इसलिए बहुत निगरानी रखनी पड़ती है। भेंड़ के बाल की तौल की इकाई 'धड़ी' होती है जो लगभग 5 किलो के बराबर होती है।
यह सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने और केश-कर्तन का वीडियो बनाकर मैं आगे बढ़ा और घर लौट आया। आम का थैला खोलकर उसमें से एक आम निकाला जो डाल से अपने आप टपका हुआ था। बाग वाले ने इसे मालदा बताया था। स्वाद में मुझे यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के कपुरी जैसा लगा।
सच में प्रकृति के समीप जाने का अवसर मिले तो आनंद ही आनंद मिलता है। आधुनिक मशीनी सभ्यता में जीवनयापन करते हुए भी इसका अवसर खोजते रहना चाहिए।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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