सोचने का नहीं, बस देखने का
झमाझम बारिश के बीच दो दिन की सप्ताहान्त छुट्टी घर में कैद होकर कैसे मनाते? नेट पर देखा तो घर के सबसे नजदीक के वेव-मॉल में बोल बच्चन की कुछ टिकटें अभी भी बची हुई थीं। मैंने झटपट बुक-माई-शो के सहारे से सीट की लोकेशन चुनकर दो बजे का शो ऑनलाइन बुक किया और मोबाइल पर आए टिकट कन्फर्मेशन की मेसेज लेकर ठीक दो बजे खिड़की पर पहुँच गया। इन्टरनेट बुकिंग वालों की एक अलग खिड़की थी। शीशे के उस पार बैठी सुदर्शना ने मुस्कराकर मेसेज दे्खा और कार्ड से मिलान करने के बाद पहले से मेरे नाम का तैयार टिकट सरकाते हुए साथ में थैंक्यू की मुहर भी लगा दी। बगल की खिड़कियों पर इस शो के लिए हाउसफुल का डिस्प्ले लग चुका था और आगे की बुकिंग जारी थी।
फिल्म देखने का कार्यक्रम अब पहले से काफी लुभावना हो गया है। मैं तो फिल्म से ज्यादा फिल्म दे्खने वालों को दे्खकर खुश हो जाता हूँ। यहाँ आकर लगता है कि हमारे आसपास कोई सामाजिक या आर्थिक समस्या है ही नहीं। सबलोग बहुत खुशहाल, खाते-पीते घरों के दिखते हैं। मनोरम दृश्य होता है। बाहर की ऊमस और चिपचिपी गर्मी भी अन्दर घुसने नहीं पाती। अन्दर जाने की अनुमति केवल हँसते-मुस्कराते चेहरों और मोटे पर्स से फूली हुई जेबों को है। प्रवेश द्वार पर तैनात सुरक्षा कर्मी आपकी कमर में हाथ डालकर यह इत्मीनान कर लेते हैं कि आप अन्दर के मनोरंजन बाजार में जाने लायक तैयारी से आये हैं तभी अन्दर जाने देते हैं। बेचारों को बैग की तलाशी भी लेनी पड़ती है।
मेरी पत्नी को जब महिलाओं वाले तलाशी घेरे से बाहर आने में देर होने लगी तो मैंने बाहर से दरियाफ़्त की। पता चला कि उनके हैंडबैग से आपत्तिजनक सामग्री प्राप्त हुई है जिसे बाहर छोड़ने का निर्देश दिया जा रहा था। मुझे हैरत हुई। पता चला कि उन्होंने घर से चलते समय एक चिप्स का पैकेट और कुछ चाकलेट रख लिये थे। बाहर से लायी हुई कोई भी खाद्य सामग्री अन्दर ‘एलाउड’ नहीं थी। अन्ततः थोड़ी बहस के बाद महिला गार्ड को चिप्स का पैकेट सौंपकर, चॉकलेट का रैपर खोलकर उसे वहीं खाने का उपक्रम करती और गार्ड व प्रबन्धन को कोसती हुई श्रीमती जी निकल आयी। अन्दर आते ही मामला साफ हो गया जहाँ तीनगुने दाम पर बिकने वाले कोल्ड ड्रिंक्स, पॉपकार्न और अन्य फास्ट फूड के स्टॉल लगे हुए थे। वहाँ लम्बी कतारें भी लगी हुई थीं। बेतहाशा ऊँचा दाम चुकाकर बड़ी-बड़ी ट्रे में सामान उठाकर ले जाते लोगों को देखकर हमें कोई हीनताबोध हो इससे पहले ही हम बिना किसी से पूछे सीधे अपनी सीट तक पहुँच गये। यूँ कि हम पूरे हाल का नक्शा और अपनी सीट कम्प्यूटर स्क्रीन पर पहले ही देख चुके थे।
फिल्म शुरू हुई। संगीत का शोर बहुत ऊँचा था। इतना कि बगल वाले से बात करना मुश्किल। अमिताभ बच्चन जी को धन्यवाद ज्ञापित करने वाले लिखित इन्ट्रो के बाद शीर्षक गीत शुरू हो गया। धूम-धड़ाके से भरपूर गीत में अमिताभ बच्चन के साथ अभिषेक और अजय देवगन जोर-जोर से नाच रहे थे। सदी के महानायक के इर्द-गिर्द कमनीय काया लिए लड़कियों और लड़कों की कतारें झूमती रही। सभी लगभग विक्षिप्त होकर बच्चन के बोल में डूब-उतरा रहे थे। हिमेश रेशमिया के कान-फाड़ू संगीत में लिपटा आइटम गीत समाप्त हो्ते ही बड़े बच्चन ने बता दिया कि वे इस फिल्म में हैं नहीं, केवल उनका नाम भर है।
इसके बाद कहानी दिल्ली के रंगीन माहौल से निकलकर सरपट भागती हुई राजस्थान के रणकपुर के संगीन माहौल में दाखिल हो गयी। राजा पृथ्वीराज सिंह अपने गाँव के बहुत खूँखार किन्तु अच्छे मालिक थे। पहलवानी करना और भयंकर अंग्रेजी बोलना उसका शौक था। झूठ से सख्त नफ़रत थी उन्हें। इतनी की केवल निन्यानबे रूपये का हिसाब गड़बड़ करने वाले अपने सुपरवाइजर को उन्होंने खदेड़-खदेड़कर मारा और लहूलुहान कर दिया। उसके बाद उनके दयालु हृदय ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया और ‘फाइवस्टार’ स्तर की चिकित्सीय सुविधा दिलवायी। ऐसे सत्यव्रती को पूरी फिल्म मे एक नाटक मंडली ने एक के बाद एक जबरदस्त झूठ बोलकर बेवकूफ़ बनाये रखा और राजा पृथ्वीराज अपनी ग्राम्य-रियासत का भार ढोते हुए झूठ के किले पर अपनी सच्चाई और दयालुता का झंडा फहराते रहे। जिसने पुरानी गोलमाल देख रखी है उसे फिल्म में आगे आने वाले सभी दृश्य पहले से ही पता लग जाते हैं क्योंकि निर्देशक ने पूरा सिक्वेन्स एकमुश्त कट-पेस्ट कर दिया है। वहाँ राम प्रसाद और लक्षमण प्रसाद थे तो यहाँ अभिषेक बच्चन और अब्बास अली हैं जिन्हें देखने पर केवल मूँछों का अन्तर है। यहाँ भी माता जी को एक बार घर में भीतर आने के लिए बाथरूम की खिड़की लांघनी पड़ी है। अलबत्ता एक माँ का जुगाड़ करने के चक्कर में पूरी नाटक मंडली लग जाती है और अन्ततः तीन-तीन माताएँ एक साथ नमूदार हो जाती हैं। इसके बावजूद राजा पृथ्वीराज बेवकूफ़ बन जाते हैं क्योंकि ऐसा मान लिया गया है कि उनके पास प्रयोग करने के लिए अक्ल है ही नहीं।
निर्देशक ने दर्शकों के बारे में भी यही धारणा बना रखी है कि दर्शक आएंगे और जो आँख के सामने आएगा उसे सच मानेंगे और जो कान से सुनायी देगा उसपर तालियाँ पीटेंगे और खुलकर हसेंगे। इसलिए इस फिल्म को देखते समय यदि किसी ने तार्किक दृष्टि से सोचने की गलती की और दृश्यों के रसास्वादन में अपनी बुद्धि का हस्तक्षेप होने दिया तो उसे सिर पीट लेना पड़ेगा। बेहतर है कि चिप्स और चाकलेट की तरह अपनी तर्कणा को भी घर छोड़कर जाइए और वहाँ सजी हुई रंगीनी और लाफ्टर शो के कलाकारों की पंचलाइनों का त्वरित और तत्क्षण आस्वादन कीजिए। द्विअर्थी संवादों पर बगलें मत झांकिए बल्कि उस फूहड़ हास्य पर किलकारी मारती जनता के टेस्ट का समादर करते हुए उसमें शामिल हो जाइए और खुद भी हँसी खनकाइए। अर्चना पूरन सिंह की भद्दी और कामुक अदा पर यदि आपको जुगुप्सा हो रही है तो उसपर सिसकारी मारती अगली पंक्ति से सीख लीजिए कि कैसे टिकट का पैसा वसूल किया जाता है।
इस पूरे माहौल में प्राची देसाई की मासूम और शान्त छवि एक अलग प्रभाव छोड़ने में सफल हुई। बात-बात पर ठकाका लगाने वाले दर्शक इस सफलतम टीवी कलाकार की सिल्वर स्क्रीन पर अभिनीत सादगी और गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के कन्ट्रास्ट को इस फिल्म की थीम के मद्देनजर कैसे स्वीकार करेंगे यह देखना होगा। पृथ्वीराज की अंग्रेजों से भी अच्छी अंग्रेजी का आनंद लेने के लिए आपको थोड़ा उदार होना पड़ेगा। वाकई होकर देखिए, बहुत मजा आएगा। पेट में बल पड़ जाएंगे।
कुल मिलाकर यह फिल्म सोचने के लिए कुछ नहीं छोड़ती इसलिए ऐसा कु्छ करने की जहमत उठाना ठीक नहीं। अपनी गृहस्थी की चिन्ताओं को कुछ समय के लिए विराम देकर दो घंटे का विशुद्ध मनोरंजन कीजिए और इंटरवल में अपनी रुचि के अनुसार बाहर सजे स्टॉल पर लाइन लगाकर या बिना लगाये खुशहाल भारतीय समाज का दर्शन कीजिए। हमने भी खूब मस्ती की। बाहर आने पर रिमझिम बारिश का आनन्द दोगुना हो गया था।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
हमें तो फ़िल्म से ज्यादा आपका observation भाया । सच कहा आपने कि सिनेमा हाल के आसपास जुटा समाज असली खुशहाल समाज है देश का । भीतर खाने पीने वाला समान का तीन गुना दाम इस बात को और भी प्रमाणित कर देता है । चलिए देख आते हैं हम भी किसी दिन
जवाब देंहटाएंफिल्म से ज़्यादा तो आज के सामाजिक और आर्थिक हालात और बाजारू-प्रवृत्ति का उल्लेख किया है.बिलकुल रनिंग-कमेंट्री सुनाई है.फिलम की समीक्षा तो अख़बारों में भी मिल जाती है पर आपके बखान से लगा कि हम भी वहीँ कहीं अगल-बगल में खड़े हैं !
जवाब देंहटाएंगए थे तो बारिश झमाझम थी,वापसी में रिमझिम-सी हो गई...आपकी जेब की तरह !
चलिये, हम भी सपरिवार जोकर देख आते हैं।
जवाब देंहटाएंAapka review padh ke hi maja aa gaya, ab fil dekhne me aur maja aayega. Waise mujhe Bol Bachchan ke Director Rohit Shetty se humesha kuchh achha karne ki ummeed rahti hai. Sath me mai aapko salaah dunga ki Rohit ki ALL THE BEST (2009) movie dekh lijiye aur bhi maja aayega.
जवाब देंहटाएंइसके प्रीव्यू देखकर तो लग रहा है कि महा बकवास टाइप की फिल्म होगी.पर आपके रिव्यू ने कुछ उम्मीद जगाई है.लगता है दिमाग साइड में रखकर देखी जा सकती है.
जवाब देंहटाएंफिल्म देखने जाने का संस्मरण अच्छा लगा। सभी के मन की बातें लिख दीं आपने। पानी खरीदना भी खलता है।
जवाब देंहटाएंजहाँ तक पिक्चर की बात है हम तो परेशान हैं। ब्लॉगर इतनी फिल्म देखते कैसे हैं? देखते हैं तो लिख कर बताते काहे को हैं? अभी एक देखी नहीं दूसरी, तीसरी फिल्म का लालच सामने आ गया:(
वाह मन से, मस्त है!लगता है अरसो बाद सपरिवार फिलम देखे हैं -रनिंग कमेंट्री से ऐसा लगा !
जवाब देंहटाएंTruly, with wife without chilldren.
हटाएंThis is another first. Blogging on mobile.
हटाएंअभिषेक को झेलना कठिन ही है।
जवाब देंहटाएंAbhishek Bachchan's best work till the date.
जवाब देंहटाएंAjay Devgan is as usaul superbb.
Superbb obeservation sir..
Abhishek Bachchan's best work till d date.
जवाब देंहटाएंAjay Devgan is as usual fantastic.
Good observation sir..
ब्रेनलेस कॉमेडी मनमोहन देसाई और डेविड धवन की भी हमने देखी। उससे नीचे उतरने का मन नहीं करता।
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