इतवार का बिहान
सिर तक रजाई लिए तान
घर में की खटपट से बन्द किए कान
…
आंगन में धूप रही नाच
छोटू ककहरा किताब रहा बाँच
फिर भी न आलस पर आने दी आँच
…
कुंजीपट खूँटी पर टांग
धत् कुर्सी कर्मठता का स्वांग
दफ़्तर में अनसुनी है छुट्टी की मांग
…
कूड़े का ढेर
फाइल में फैला अंधेर
चिट्ठों में आँख मीच रहे उटकेर
…
आफ़त में जान
भला है बन बैठो अन्जान
देह नहीं मन में घुस पैठी थकान
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
प्रयोग भूमि में स्वागत है।
जवाब देंहटाएंये प्रयोग तो अद्भुत हैं:
कूड़े का ढेर
फाइल में फैला अंधेर
चिट्ठों में आँख मीच रहे
देह नहीं मन में घुस पैठी थकान
लय के साथ मात्रा ज्यामिति के सौन्दर्य को देख रहा हूँ, सीख रहा हूँ। आभार बन्धु !
धत् कुर्सी कर्मठता का स्वांग
जवाब देंहटाएंकी प्रशंसा तो छूट ही गई थी। इसलिए दुबारा आया।
हमारा भी वही है हाल! गाड़ियां कुछ चलने लगी हैं तो थकान और चटक गई है! :)
जवाब देंहटाएं"देह नहीं मन में घुस पैठी थकान"
जवाब देंहटाएंअसमय में यह कैसी क्लैव्यता पार्थ ?
उत्तिष्ठ कौन्तेय !
मन में घुस पैठी थकान,
जवाब देंहटाएंबहुत खूब....
कविमना हैं. सही दृश्य खिंचा है.
जवाब देंहटाएंथकित ही होगा पहला कवि
जवाब देंहटाएंथकन से उपजा होगा गान
निकल कर कलमों से चुपचाप
बनी होगी कविता मुस्कान
लेकिन
मन को नहीं थकाना साथी
तन चाहे थक जाय
बढिया है! इतवार को भी दफ़्तर सताता है। वाह! मन में घुस बैठी थकान! घर वाली से पूछकर ही न बैठी है!
जवाब देंहटाएंक्या किराया तय हुआ है! बताइये न जी!
इस तरह के प्रयोग करते रहिये! अच्छा प्रवाह है कविता नुमा इस चीज का!
रिवाइटल.. जियो, जी भर के
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