बुरा हो इस ब्लॉगजगत का जो चैन से आलस्य भी नहीं करने देता। एक स्वघोषित आलसी महाराज तुरत-फुरत कविता रचने और ठेलने की फैक्ट्री लगा रखे हैं। इधर-उधर झाँकते हुए टिपियाते रह्ते हैं। रहस्यमय प्रश्न उछालते हैं और वहीं से कोई सूत्र निकालकर कविता का एक नया प्रयोग ठेल देते हैं। उधर बेचैन आत्मा ने एक बसन्त का गीत लिखा- महज दो घण्टे में। उसपर आलसी महाराज ने दो मिनट में एक टिप्पणी लिखी होगी। उसके बाद क्या देखता हूँ कि उनके कविता ब्लॉग पर एक नयी सजधज के साथ कुछ नमूदार हुआ है। पता नहीं कविता ही है या कुछ और।
इस अबूझ आइटम की दो लाइनें ही मेरी समझ में आ सकीं। उन लाइनों पर सवार होकर मैं अपने गाँव चला गया। मिट्टी के चूल्हे में जलती लकड़ी के आँच पर बड़ी बटुली में भात और छोटी बटुली में दाल बनाती माँ दिख गयी। लकड़ी की आँच की लालच में वहीं सटकर बैठ गया हूँ। मैं पहँसुल पर तेजी से चलते उसके हाथों को देखता हूँ जो तरकारी काट रहे हैं। बड़ी दीदी सिलबट्टे पर चटनी पीस रही है। कान में कई मधुर आवाजों का संगीत बज रहा है जिसमें गजब का ‘स्वाद’ है। यह सब मुश्किल से पाँच मिनट में रच गया क्यों कि संगीत की गति अनोखी है:
अदहन खदकत भदर-भदर
ढक्कन खड़कत खड़र-खड़र
करछुल टनकत टनर-टनर
लौना लहकत लपर-लपर
बटुली महकत महर-महर
पहँसुल कतरत खचर-खचर
सिलबट रगड़त चटर-पटर
लहसुन गमकत उदर-अधर
राम रसोई हुई मुखर
कविता बोली देख इधर
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
ये कविता कौन है?
जवाब देंहटाएंरचना जी कृपया बताएँ।
____________________-
देवेन्द्र जी के गीत से शुरू हुई फगुनी बयार चौका तक पहुँच गई !
ग़ज़ब भयो रामा, ग़ज़ब भयो।
अभी तो 'सम्हति' गड़नी शुरू हुई है। राम जाने आगे के दिनों में क्या होगा !
बढ़िया। मन का उल्लास ह्रस्व मात्राओं और 'अम्मा' के चूल्हे चौका से संगमित हो निखर आय है इन अक्षरों में.... अब इनमें और अर्थ गुरुता लाओ... भुजिया भात की तरह महर महर महक फैल जाय ...
सिद्धार्थ जी आपकी राम रसोई का स्वाद चखा अच्छा लगा. लगे हाथ आपको खुशखबरी दे दूं- गोरखपुर में सीता रसोई खुल रही है. चम्पा देवी पार्क में देश का सबसे बड़ा वाटर पार्क बन गया है. ११ मार्च को इसका लोकार्पण है. इस पार्क में एक सीता रसोई भी खुल रही है. आपको बहुत मजा आयेगा. दूसरी खुशखबरी यह कि दैनिक जागरण ने भी अपना ब्लॉग शुरू कर दिया है- anandrai.jagranjunction.com...देखें और अपनी प्रतिक्रया से जरूर अवगत कराएं. एक बात और उसमें भी अपना पंजीकरण करा लें. धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंराम रसोई हुई मुखर
जवाब देंहटाएंकविता बोली देख इधर ...
इन लाइनों पर मन झूम गया..
ब्लोगर - तिकड़बंदी अच्छी चल रही है !
जवाब देंहटाएं.
सच कह रहा हूँ , अन्यथा न लीजियेगा , संवेदना भी
संवेदित हो गयी होगी इन प्रयोगों की रस्साकशी से , एक
बात पूछ रहा हूँ प्रयोगातुरों से --- आप लोगों ने सहजता को
प्रवोग पर तरजीह दी है कि प्रयोग को सहजता पर .. जने क्यों इन
प्रयोगों में समस्या-पूर्ति ( वही पुरानी जड़ - रवायत ) की पदचाप सुनाई दे रही है ..
भो कविता - धुरीणों ! क्या यही है काव्य या कौतुक !!!
या बैठे ठाले का धंधा !!!
आचारज जी!
जवाब देंहटाएंन तो देवेन्द्र जी का गीत जड़-रवायत है और न मेरी बन्दिश। और यह कविता तो रसोई का गीत है।
जरा उस उल्लास को समझें ।
प्रयोग 5 मिनट में नहीं किए जाते, बस मन नृत्य करता है, अक्षर सजते हैं और बन्दिशें की बोर्ड पर उतर आती हैं।
पहले भी होता रहा है - कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि हो या ताक कमसिन वारि या ससुराल गेंदा फूल हो..
.. इमली के बूटे, बेरी के फूल और घर जल्दी जाने में कोई संगति नहीं बस उल्लास है ...
..जाय दो ! फागुन का जानें कठ करेजी !!
हम त होली तक अइसहि करबे, कोई कोहनाय तो उसकी बला से ...बड़े आए आचारज ! हुँ ।
बहुत ही अच्छे भाव. आपने तो कम्पूटर की गति से खाना बना डाला.मज़ा भी आया और बहुत कुछ जो पीछे छोड़ आयी थी याद आ गया धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकारें
@ गिरिजेश राव
जवाब देंहटाएंवाह खूब ..
शरीर पर तेल लगा कर अखाड़े में आइये और 'फिसलन' में विजय तो
निश्चित !
मजाल है तब कोई 'आचारज' आपसे भिड़े .. खैर .. जिसका मुझे दर था
वही हुआ .. आपने जा कर '' रसोई '' में शरण ली ! .. बहुत खूब !!!
.
जिस दिन कोई आचारज अपने विवेक से नहीं सोचेगा उस आचारज को थू !
व
जिस दिन कवि आचारज के हिसाब से चलेगा उस कवि को भी उससे ज्यादा थू !
.
............. बड़े आये हैं आचारज को चैलेन्ज करने ! हुँ !
५ मिनट में कविता बन सकती है मगर इसके पीछे अवचेतन मस्तिष्क में छुपा गहन अध्ययन ही होता है. सुंदर शब्द चित्र. गिरजेश जी का 'अदहन' ही पर्याप्त था रसोई की याद दिलाने के लिए ...आपने तो चटनी के साथ पूरे गावं-घर का सौंदर्य ही बिछा दिया है.
जवाब देंहटाएंअमरेन्द्र जी, यह ब्लागर तिकड़बंदी नहीं है. तिकड़बंदी तो सोंच-समझ कर की जाती है. न ही यह बैठे ठाले का धंधा है. मुझे तो लगता है कि यह उल्लास से निकले मन की सहज उपज है... यह प्रयोग भी नहीं लगता...हाँ, तत्काल पढते वक्त पाठकों के मन में ऐसे भाव आ सकते हैं जैसा की आपने लिखा.
..उल्लास में आनंद लीजिए ...शंका, सृजन नहीं होने देती ..समर्पण 'गुल' खिलाते हैं.
..आप भी शामिल हो जायिए...लोग पढ़ें तो कहें
वाह! क्या चौकड़ी जमाई है.
..एक बात और सच्ची-सच्ची लिख दूँ कि मुझे गिरजेश जी कि कविता पढ़कर तो बहुत आनंद आया मगर उनके दिए अनेकों संकेतों के बाद भी 'पहेली' अभी तक समझ में नहीं आई जबकि कमेन्ट पढ़कर लगता है कि मेरे आलावा सभी समझ रहे हैं.
..अब लगता है कि खोजना पड़ेगा..
वाह...शब्दों का ऐसा प्रभावी प्रयोग किया आपने कि सब कुछ नयनाभिराम हो गया...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कविता...
.
जवाब देंहटाएं@ ...समर्पण 'गुल' खिलाते हैं.....
.
आप गुल की बात करते हैं , हम तो गुलगुला भी खा सकते हैं पर
आँख मूँद कर नहीं ... परख के
बाद ही ... समर्पण ! ... कविता !... आचारज ! ... न बाबा न !...
जब कविता सहज नहीं 'विकट' पहेली ( = रस्साकशी बुझौहल ) लगेगी
तो हमसे न रहा जायेगा .. असहमति तो दर्ज करेंगे ही ..
@यह कविता कौन है?
जवाब देंहटाएंयह कविता वही है जो आप के ब्लॉग पर रोज नये-नये परिधानों में अजब-गजब फैशन बिखेरती, उड़ती-दौड़ती, गिरती-पड़ती और दूसरों को ठेलती-ठेलाती चलती है। बसंती बयार पाकर इसकी कौन गत होगी, राम जाने री...:)
इस कड़ी की अगली प्रस्तुति यहाँ है:
जवाब देंहटाएंa href="http://kavita-vihangam.blogspot.com/2010/02/blog-post_03.html">YOUR "आचारज जी" /a
हुड़दंग है
सब रंग है।
सबसे पहले तो कविता की सुघड़ता पर रचनाकार,अपने मझले भैया सिद्धार्थ जी पर जां कुर्बान!
जवाब देंहटाएंफिर यह संक्रामकता दरअसल गिरिजेश जी से उदगमित हुयी और यहाँ अदृश्य दिख रही सरस्वती के साथ त्रिपथगा /त्रिवेणी बन रसिकों को रिझाने लग गयी है .चतुरंगिनी बसंत सेना इसमें उत्प्रेरण बनी है .
अमरेन्द्र जी ने अपनी बात से एक पुरातन बहस छेड़ी है -रचना के लिए रचना (ब्लागजगत की संज्ञाएँ नहीं ) या फिर सहज स्फूर्त कविता(जैसा की रचना द्वितीय द्वारा परिभाषित है यहाँ ! )
मगर देवेन्द्र जी की बात में दम है -रचना तो मन में रची बसी होती है -ज़रा सा भी उद्रेक पाते ही बह चलती है .
बाकी सहज सरल मासूम छोटके भैया जहिरा ही दिए हैं सब-उनसे भला कोई असहमति कैसे हो ?
सहज स्फूर्त कविता ! हाँ यह सही है ! पर जो सहज स्फूर्त हो उसमें सर-खपउव्वल क्यों ? एकदम नहीं न !
जवाब देंहटाएंहम भी आपकी इस राम-रसोई से रसाप्लावित हुए !
अबूझ आइटम पर एक टिप्पणी हम भी कर आये हैं - http://kavita-vihangam.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265165886330#c2114525764785950300
कविता बोली देख इधर ...
जवाब देंहटाएंदेखे तो...और धन्य भी भये महाराज!
सिद्धार्थ जी !
जवाब देंहटाएंअगर आप क्षुब्ध हुए हों तो माफी चाहूँगा ..
नहीं तो आपके मौन को मैं और क्या समझूँ ..
मेरा मंतव्य अरविन्द मिश्र जी ने कुछ समझा है .. उन्हें आभार ,,,
बाकी अपनी बातें यहाँ कर आया हूँ ---http://kavita-vihangam.blogspot.com/2010/02/blog-post_03.html?showComment=1265206687572_AIe9_BGMcyM8laEqklddLYs5Iz4tgVhWAj4-E_GAqGKT0cZvqSnyKtp63AYRb4tg-FktjHuR4aZM
@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
जवाब देंहटाएंमुझे किस बात पर क्षुब्ध होना था भाई? :)
@डॉ.अरविन्द मिश्र
बड़े भैया, क्यों गड़बड़ झाला कर रहे हैं? मुझे मझला भाई और गिरिजेश भैया को छोटा भाई बताकर आपने दुष्क्रमत्व दोष पैदा कर दिया। उम्र, शिक्षा, और अनुभव सबकुछ में वे मेरे अग्रज हैं। इस त्रुटि का सुधार अनिवार्य है महात्मन्।
आचारच और कवि संवाद मजेदार रहा! कविता के बारे में हम कुछ न कहेंगे!
जवाब देंहटाएं.....क्या कहा ५ मानत में कविता तैयार करने का सोफ्टवेयर आ गया ?
जवाब देंहटाएंअभी गिज्जी भाई को फोन लगा आर्डर करता हूँ |
@पर वह अध्ययन और मनन कहाँ से लाऊँ ?
kavita boli dekh idhar, so aaye dekhe aur chal diye agli post ka intjar liye......
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी पर तो उम्र का असर साफ दिख रहा है- एक तरफ स्वीकारोक्ति है .... मैं बूढ़ा हो गया ... और वहीं हफ्ता भर बाद बसंत आते ही मालिश करके अखाड़ा में उतर रहे हैं... जियो बसंती बयार!
जवाब देंहटाएंऔर अब आप भी- अब तो पक्का लग रहा है कि इस रसोई में तो भेजे का भजिया बन जायेगा।
रहना नहीं देस बेगाना रे...
bahut badhia.
जवाब देंहटाएंराम रसोई हुई मुखर
जवाब देंहटाएंकविता बोली देख इधर
अद्भुत ........!