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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

इधर खाप उधर जिर्गा

Swara Customसनीदा जब पाँच साल की थी तो उसे एक दिन अपने स्कूल से घर वापस जाने में डर लग रहा था। वह इधर-उधर छिपती रही क्यों कि घर पर उसका बाप बैठा हुआ था जिसके सामने वह जाना नहीं चाहती थी। दर असल उसके अब्बा अली अहमद ने उसकी सगाई का सौदा एक दूसरे कबीले से ‘स्वार’ व्यवस्था के तहद कर दिया था। हुआ यह था कि उस दूसरे कबीले की किसी लड़की को वह भगा लाया था और पकड़ा गया था। कबीले वाले उसकी जान लेने पर उतारू थे। झगड़ा निपटाने के लिए जिर्गा बुलायी गयी थी। यह जिर्गा पश्तूनों के झगड़े निपटाने के लिए वही शक्ति रखती है जैसी हमारे यहाँ खाप पंचायतें। जिर्गा ने फैसला सुनाया कि अली अहमद को अपने गुनाह के बदले अपने घर से दो कुँवारी लड़कियाँ देनी होंगी। उसने फैसला मंजूर किया और अपनी बेटी सनीदा (५वर्ष) और भतीजी सपना (१५ वर्ष) को उस कबीले के हाथों स्वार कर दिया।

लेकिन सनीदा का भाग्य उतना बुरा नहीं था। वह उन तमाम पाकिस्तानी स्वात घाटी की पश्तून समुदाय की लड़कियों की तरह अभागिन नहीं थी। उसकी माँ ने इस सौदे का कड़ा प्रतिरोध किया और अपने भाई के माध्यम से कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाल ही में ग़ैरकानूनी ठहरा दी गयी इस प्रथा के खिलाफ़ कोर्ट ने आदेश पारित करते हुए सनीदा को छोड़े जाने का हुक्म दिया। अली अहमद और जिर्गा के तमाम सरदार गिरफ़्तार कर जेल भेज दिये गये। अब सनीदा सात साल की है और स्कूल में पढ़ने जाती है। यह बात अलग है कि स्कूल में उसे यह कहकर चिढ़ाया जाता है कि इसका सौदा हो चुका है और जल्दी ही कोई मर्द इसका खसम बनेगा। उधर उसकी चचेरी बहन सपना को तो उस दुश्मन कबीले के किसी प्रौढ़ आदमी के साथ घर बसाना ही पड़ा। उसके ऊपर इतने प्रतिबन्ध लाद दिये गये हैं कि बहुत कोशिश के बाद भी मीडिया (AFP) और मानवाधिकार संगठन सपना से बात नहीं कर सके; ताकि उसके अनुभवों को दुनिया के सामने ला सकें।

Swara Custom1पाकिस्तानी अखबार डान की यह खबर पढ़ने के बाद मैंने इस प्रथा के बारे में कुछ जानकारी जुटाने की कोशिश की। स्वार बाल-विवाह की एक ऐसी प्रथा है जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कबीलाई इलाकों में प्रचलित है। इसका संबंध खून से जुड़े उन विवादों से है जो अलग-अलग कबीलाई खानदानों के बीच प्रायः पैदा होते रहते हैं। पंचायत द्वारा इन झगड़ों का समाधान इन बच्चियों की लेन-देन के हुक्म से होता है जिनकी बलपूर्वक शादी दुश्मन के घर में कर दी जाती है। मुख्य रूप से यह स्वात घाटी के पश्तूनों के बीच प्रचलित है। स्वार को स्थानीय बोलियों में साक (Sak), वानी(Vani) और संगचत्ती (Sangchatti) के नाम से भी जाना जाता है।

कुछ विद्वान बताते हैं कि यह प्रथा तब शुरू हुई जब 400 साल पहले उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान के दो पश्तून कबीलों के बीच खूनी संघर्ष हुआ। इस लड़ाई में सैकड़ो मारे गये थे। वहाँ के नवाब ने उन कबीलों के बुजुर्गों की बैठक (जिर्गा) बुलायी। जिर्गा ने फैसला किया कि जिन मर्दों ने हत्या का अपराध किया है उसकी सजा के तौर पर उन्हे अपनी लड़कियाँ विपक्षी कबीले को देनी होंगी। तभी से यह कुप्रथा चल निकली जिसमें इन कबीलों और देहाती जिर्गा द्वारा चार से चौदह साल तक की कुँवारी (Virgin) लड़कियों का इस्तेमाल उनके घर के मर्दों द्वारा हत्या और खून-खराबा जैसे अपराध की सजा चुकाने के लिए किया जाने लगा। खून के बदले खून की यह न्याय व्यवस्था पाकिस्तान के पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, सरहद और कबायली इलाकों में यत्र-तत्र प्रचलित है। कुछ दूसरे विद्वानों का कहना है कि 1979 में पाकिस्तानी सरकार ने जो हुदूद अध्यादेश जारी कर कानून का मुख्य स्रोत शरियत को बना दिया उसी ने स्वार और वानी जैसी अमानवीय प्रथाओं को प्रोत्साहित कर दिया।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि प्राकृतिक सौन्दर्य से भरी हुई स्वात घाटी में चार साल पहले जब एक सैनिक कार्यवाही द्वारा दो साल के हिंसक तालिबान शासन का अंत हुआ तबसे इस प्रथा में उभार आया है। वर्ष २०१३ में ऐसे नौ मामले दर्ज किये गये जबकि २०१२ में सिर्फ़ एक ही मामला दर्ज हुआ था। मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि ऐसी कुरीति के वास्तविक आंकड़े इससे बहुत अधिक होंगे क्योंकि सरकारी स्तर पर इसके विस्तृत आँकड़े इकठ्ठे नहीं किये जाते हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ता समर मिनल्ला ने इस कुरीति पर एक डॉक्युमेन्ट्री बनायी थी जिसे खूब सराहा गया। समर बताती हैं कि उन्होंने केवल वर्ष १९१२ में पाकिस्तान में घूम-घूमकर ऐसे १३२ मामलों को चिह्नित किया था।

Swara Custom2मानवाधिकार कार्यकर्ता अहद बताते हैं कि सरकार द्वारा बताये जा रहे नौ मामले तो केवल एक झलक है- बहुत बड़ी और भयानक सच्चाई की । अलबत्ता अब इससे पीड़ित लड़कियाँ और उनके परिवार खुलकर सामने आने लगे हैं। मीडिया के प्रसार से लोग यह समझने लगे हैं कि यह बहुत बुरी प्रथा है जिसे २०११ से गैरकानूनी घोषित किया जा चुका है। पुलिस कहती है कि कुछ मामले दर्ज तो हो जाते हैं लेकिन अभी भी इसमें गवाही देने के लिए लोग आगे नहीं आते जिससे दोषियों को सजा दिलाने में कठिनाई आती है। एक साथ एक ही गाँव में कबीलों में रहने वाले लोग एक दूसरे के विरुद्ध गवाही देने से बचते हैं। वर्ष २०१२ में जो एकमात्र मामला दर्ज किया गया था उसमें आरोपित सभी बारह मुजरिम सबूतों और गवाहों के अभाव में छोड़ दिये गये थे जबकि घटना की सच्चाई सबको पता थी।

हमारे देश की खाप पंचायते जिस प्रकार अमानवीय फैसले सुनाकर उसका क्रियान्वयन भी फौरी तरीके से कर डालती हैं और कानून ताकता रह जाता उसी प्रकार हमारे पड़ोसी देश में जिर्गा के हुक्म की नाफ़रमानी करना बहुत कठिन है। लोग जुबान खोलने से डरते हैं। हमारे समाज में यह रोटी-बेटी का मामला ऐसा जघन्य क्यों है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
satyarthmitra.com

8 टिप्‍पणियां:

  1. कोई अपराध किया तो स्वयं जाकर ग़ुलामी करें, महिलाओं को क्यों भेजते हैं?

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  2. आश्चर्य है ऐसी प्रथाएं आज भी मानवता पर बदनुमा दाग जैसी हैं!
    कृपया virgin और स्रोत कर लें!

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  3. पूरी मानवता को शर्मसार करने को काफी हैं ऐसे मामले

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  4. अब सच सामने आने लगे हैं
    लोग भी पहचाने जाने लगे हैं।
    .
    .

    वर्ष १९१२ में पाकिस्तान में..!

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  5. लड़कियों/महिलाओं को एक वास्तु के रूप में देखने कि बड़ी पुरानी परंपरा वहाँ रही है

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  6. आपकी इस प्रस्तुति को शनि अमावस्या और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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