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गुरुवार, 31 मई 2012

पारा चढ़ता जाये रे…

आज मई माह का आखिरी दिन है। यह सबसे गर्म रहने वाला महीना है। ज्येष्ठ मास का आखिरी मंगल जिसे यहाँ लखनऊ में ‘बड़ा मंगल’ के रूप में मनाया जाता है वह भी बीत चुका है। बजरंग बली को खुश करने लिए भक्तजन इस महीने के सभी मंगलवारों को पूरे शहर में नुक्कड़ों और चौराहों पर भंडारा लगाते हैं। खान-पान के आधुनिक पदार्थों का मुफ़्त वितरण प्रसाद के रूप में होता है। कम से कम मंगलवार के दिन शहर में कोई भी व्यक्ति भूखा-प्यासा नहीं रहने पाता। गरीब से गरीब परिवार के सदस्य भी छक कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। लेकिन गर्मी का मौसम जब उफ़ान पर हो तो एक दिन की राहत से क्या हो सकता है। पारा तो चढ़ता ही जा रहा है। देखिए इस ताजे गीत में :

ग्रीष्म-गीत

  पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...
बैठ बावरा मन सिर थामे गीत बनाये रे...Confused smile

हवा आग से भरी हुई नाजुक तन को झुलसाये
छुई-मुई कोमल काया अब कैसे बाहर जाये
रिक्शे तांगे बाट जोहते काश सवारी आये
निठुर पेट की आग बड़ी जो देह थपेड़े खाये
भीतर बाहर धधकी ज्वाला कौन बुझाए रे...
                      पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Sick smile

भारत की सरकार चल रही देखो राम भरोसे
प्रतिपक्षी की बात कहें क्या सहयोगी भी कोसे
सत्यनिष्ठ बेदाग छवि हुई बे-पेंदी का लोटा
खरे स्वर्ण का धोखा था जो अब जाहिर है खोटा
विविध स्वार्थ के रंग पगड़िया रंगती जाये रे... 
                       पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Ninja

भ्रष्टाचारी मायावी इक राज हटा तो क्या है
है पतवार नये हाथों में माझी नया-नया है
चाचा-ताऊ वही पुराने अपनी टेक जमाये
पासा पलटा नागनाथ का साँपनाथ जी आये
रंगदारी का बढ़ा हौसला धूम मचाये रे... 
                       पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Hot smile

अन्ना जी की लुटिया डूबी फूट रहे सहयोगी
कुनबे में ही मची रार अब कौन लड़ाई होगी
लोकपाल नेपथ्य में गया भ्रष्टाचारी आगे
काले धन का झंडा लेकर रामदेव जी भागे
बियावान में आम आदमी खड़ा ठगाये रे... 
                       पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Steaming mad

गया चुनावी मौसम तो फिर कूद पड़ी महँगाई
कपटनीति खुल गयी तेल ने भारी चोट लगाई
आई.पी.एल. का बुखार लो जा बैठा कलकत्ते
ममता दीदी मेहरबान हो फेंक रही हैं पत्ते
भारत बन्द कराये नेता बहुत सताये रे ...
                        पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Flirt female

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

       इस गीत को लिखने की प्रेरणा एक खूबसूरत किताब देखकर मिली जिसमें ढेर सारे गीत हैं। आदरणीय सतीश सक्सेना जी ने अपने गीतों का संकलन मुझे भेंट किया। इस पुस्तक की भूमिका ने भावुक कर दिया। इसमें सतीश जी ने अपने हृदय के भाव उड़ेल कर रख दिये हैं। वाह…!

mere geet 002 mere geet 001

मेरे गीत - सतीश सक्सेना

ज्योतिपर्व प्रकाशन

99, ज्ञान खंड-3, इन्दिरापुरम

गाजियाबाद : 201012

सत्यार्थमित्र

18 टिप्‍पणियां:

  1. गर्मी के बारे में सुन सुन कर पसीना आ रहा है, पसीना बहा गयी यह कविता..

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  2. ऐसे में अगर आपको शोधप्रबंध सुधारने हों
    तो पारा डबल चढ जाता है.
    यों, चुप रहना बेहतर है....
    दिमाग पर चढ गया तो
    और खतरा बढ़ जाएगा भाईजान.
    अच्छी पोस्ट......दीरघ दाघ निदाघ.

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. लगता है जल्दी में पोस्ट कर दिया आपने। तीखे कटाक्ष से भरे इस मन मोहक गीत में छंद कहीं-कहीं मीटर तोड़ कर बाहर आ गये हैं।:)

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  5. ..जिया हलकान है पारे का उफान है .... :( पुस्तक मुझे भी मिली ..लेखक बधाई के पात्र हैं !

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  6. अजी दिल्ली से ज़्यादा गर्मी उहाँ कहाँ होगी ? इहाँ तो सियासत की गर्मी भी खूब है.उहाँ सरकार बदलने के साथ उफान कुछ कम हो गया है.

    बाकी आपका गर्मी-गीत बढ़िया है !

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  7. देवेन्द्र जी, बहुत बहुत धन्यवाद।

    गीत वास्तव में जल्दी में रचा गया है, गर्मी के माहौल में बेचैनी से। फिर भी मीटर लगाकर नापने का शऊर तो मुझे है ही नहीं। थोड़ा चिह्नित कर देते तो मुझे सुधारने में सहूलियत हो जाती।

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  8. गर्मी की झलक साफ़ मिल रही है गीत में :)

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  9. ग्रीष्म पर बढ़िया भावपूर्ण रचना ... आभार

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  10. पारे की गर्मी बर्दाश्त भी की जा सकती है , पर राजनीति के पारे से कैसे पार पाया जाए ? बढ़िया गीत

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  11. Well crafted, beautifully covered not only ecological temperature but also the hovering Indian social temperature. :D

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  12. बहुत दिनों बाद इस रंग की कविता फिर से पढने को मिली |४५ डिग्री तापमान में इन कंक्रीटो के जंगल में जीने का अहसास उन लोगों के लिए और भी त्रासद है जिन्हें फ़िक्र का {एक बेवजह}शगल दबोचे रहता है| यहाँ तो आलम ये है कि.......अहसास ये कि रास्ते भी है, दीवारे भी, राह-ओ-दश्त भी वीरानियों का शहर ये फ़ितरतन ही खुश्क है,,,,

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  13. बड़ी गर्मागर्म कविता है। सरकार को कोस रहे हैं सरकारी नौकर होकर। ई अच्छी बात नहीं है। सरकार भी गरम हो सकती। :)

    पढ़ उसई दिन लिये थे जब पोस्ट किये थे लेकिन सोचा गर्मी थोड़ी कम हो तब टिपियाया जाये। :)

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  14. मौसम और राजनीति दोनों - एक साथ बढ़िया निर्वाह !

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  15. बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  16. गर्मी गयी, अब बारिश की बात कीजिये।

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  17. मात्रिक छंद लिखने का शउर तो मुझे भी नहीं है लेकिन इतना जानता हूँ कि मात्राएं बराबर, गीत गाने में एक ही प्रवाह में हों तो अधिक अच्छा लगता है।

    पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...
    22 22 22 2, 22 22 22 2
    बैठ बावरा मन सिर थामे गीत बनाये रे...
    21 22 2 2 22, 21 122 2
    ..दोनो पंक्तियों में न मात्राएं बराबर हैं, न प्रवाह। गाने मे लय टूट जाती है।

    अगले बंद की अंतिम पंक्ति को देखें...

    विविध स्वार्थ के रंग पगड़िया रंगती जाये रे...
    12 21 2 21 122 212 22 2
    ....यहां भी वही झोल दिखता है। यह पंक्ति पहले और दूसरे वाली पंक्ति से मिलती तो क्या गज़ब लय में होती।

    मुझे ऐसा ही लगा। अधिक तो छंद के जानकार बता पायेंगे।:)
    ..सादर।

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