हरे बाँस को काटकर डोली बनायी गयी थी। महायात्री को गंगाजल से नहला-धुला कर शुद्ध घी से मालिश कर नया वस्त्र पहनाया गया, सुगन्धित इत्र लगाया गया, स्वर्णादि से आभूषित किया गया। सफ़ेद वस्त्र व पीली चादर में डोली पर विराजमान कर लाल चुनरी से डोली सजा दी गयी। बैण्ड बाजा बजने लगा। स्रिंगा की ध्वनि गूंज उठी। रामनाम के जयघोष के साथ डोली उठ गयी। कहांर बनने की होड़ लगी थी। तीन पुत्र, आठ पौत्र, और छः प्रपौत्र जिनमें नन्हा ‘सत्यार्थ’ शामिल था, इस सुअवसर के लिए उद्यत थे। गाँव के सभी पुरुष, पड़ोस के स्वजन, मित्र, रिश्तेदार, बड़े-बुजुर्ग बारात में शामिल हुए। घर की कुछ औरतों व बेटियों की आखें इस विदाई पर जरूर नम थीं, लेकिन शेष जन-समुदाय स्थिर चित्त हो उत्साहित नजर आ रहा था। विषाद का वातावरण प्रायः नहीं था।
लगभग सौ साल (जन्म सन-१९१० ई.) का पूर्ण जीवन बिताने के बाद ‘बाबाजी’ का महाप्रयाण जैसे पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार हुआ। अन्तिम क्षणों से पूर्व गाय की पूँछ पकड़कर वैतरिणी पार करने का अनुष्ठान, शैय्या-दान व घी के कटोरे में स्वर्णमुद्रा डाल उसमें अपनी छवि देखकर छाया-दान, और परिजनों द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ, विष्णूसहस्त्रनाम का जप व सुंदरकाण्ड का गायन। ऐसे वातावरण में जब बाबाजी ने आँखे बंद की थीं तो उस समय उनके चारो ओर अपार जनसमूह इकठ्ठा हो प्रार्थना कर रहा था। जब मैं सुबह पहुँचा तो यह प्रार्थना जारी थी। लोग दूर-दूर से आकर उनका चरण-स्पर्श करते और आँखें बंद कर प्रार्थना करते।
अंतिम विदा के समय परंपरागत नियमों व रूढ़ियों और कर्म-काण्ड का जो सिलसिला शुरू हुआ उसका विस्तार अगले बारह दिनों तक देखने को मिला। अशुद्धि और शोक के प्रधान तत्वों को परिलक्षित करता यह ‘सूतक’ पखवारा मेरे लिए किसी ‘मेण्टल-एडवेंचर’ से कम नहीं था। परिवार के सदस्य जैसे किसी अभिशाप से ग्रस्त हो गये हों। प्रायश्चित स्वरूप उन्हें अपने आहार-व्यवहार में कठिन नियमों का पालन करना था। दिनभर निराहार या अल्प फ़लाहार, गो-धूलि बेला में हल्दी-तेल-मशाला से रहित सादा-फीका भोजन, कठोर बिस्तर और ग्रामीण विद्युत आपूर्ति की बदहाल व्यवस्था के बीच गर्मी, ऊमस और मच्छरों का साथ। घर से बाहर स्नान करने का नियम औरतों को भी कड़ाई से पालन करना था।
यह सब भोगकर मुझे एक तरफ अपनी दर्शनशास्त्र की किताबों में लिखी धार्मिक आस्था की अतार्किकता संबन्धी विश्लेषण याद आते तो दूसरी ओर बाबाजी की आत्मा की शान्ति के लिए परिजनों द्वारा पूरी आस्था व विश्वास के साथ पुरोहित द्वारा बताये गये कठिन नियमों के अक्षरशः पालन करने की तत्परता देखकर मन में एक स्वतःस्फूर्त आस्था पैदा हो जाती। सारा दर्शन ताकता रह गया। मैं अपनी पढ़ाई और ज्ञान मन में दबाए रह गया कि ईसा पूर्व छठी-सातवीं सदी में हिन्दू धर्म में प्रचलित कठिन कर्म-काण्डों की वजह से एक आम गृहस्थ पुरोहितों के हाथों किस प्रकार शोषित व प्रताड़ित होता था। मृतक की आत्मा को प्रेत-योनि से छुटकारा दिलाने और पितरों को बैकुण्ठ पहुंचाने के फेर में पड़कर कैसे गरीब परिवार लोभी पुरोहितों के हाथों अपना सर्वस्व लुटा कर भी उन्हें तृप्त नहीं कर पाते थे। मृत्युलोक में जीवनपर्यंत भयंकर पाप व दुष्कर्म करने वाले धनवान सेठ साहुकार, राजे-महराजे व जमींदार किस प्रकार पुरोहितों की निष्ठा खरीदकर खर्चीले यज्ञ-अनुष्ठान व कर्म-काण्ड के बल पर अपने स्वर्गलोक वासी होने के प्रति आश्वस्त हो जाते थे।
हमारे देश में हर प्रकार की मान्यताओं, रूढ़ियों, पंथों और स्वतन्त्र इच्छाओं की पूर्ति का सुभीता है। लेकिन हम अपनी परम्परा छोड़कर कुछ नया आजमाने में डरते हैं। जाने क्यों? शायद हजारों-हजार साल से चली आ रही बातों को छोड़ने पर मझधार में अटक जाने का भय हमें रोकता है।
मैने पढ़ा था कि इन्हीं कर्म-काण्डों की जंजीर में जकड़े हिन्दूधर्म से आजिज आकर विद्रोह स्वरूप बौद्ध व जैन धर्मों का अभ्युदय हुआ। अनेक रूढ़ियों व विकृतियों से बाहर निकलकर महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर के उपदेशों के मुक्त आकाश व खुली हवा में साँस लेकर तत्कालीन समाज के बहुतेरे लोगों ने वैदिक धर्म का त्याग कर दिया था और सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, और ब्रह्मचर्य के नियमों पर आधारित धर्म का वरण कर लिया था।वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना आठवीं-नौवीं सदी में आदि-शंकराचार्य के प्रयास से तब हुई जब उन्होने अद्वैत वेदान्त का प्रतिपादन कर यह उद्घोष किया-
ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, जीवोब्रह्मैवनापरः।
(ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है।)
संसार को मिथ्या बताकर इसमें व्यवहृत समस्त आडम्बरों को समाप्त करने का मार्ग शंकर के दर्शन से प्रशस्त हुआ। उन्होने गीता की व्याख्या कर भारतीय दार्शनिक परम्परा के सर्वमान्य कर्मसिद्धान्त को स्पष्ट किया जिससे जीवन में वास्तविक सद्कर्मों के पालन का महत्व रेखांकित हुआ। इस समय तक बौद्ध मठों में भी प्रायः वही आडम्बर व कुरीतियाँ फैल चुकी थीं जिनके विरुद्ध कभी इनका विकास हुआ था। परिणाम स्वरूप कालचक्र का पहिया पूरा घूम गया। फिरसे वैदिक धर्म के प्रति आस्था जमने लगी। आज के बहुलवादी समाज (pluralist society) में ये सारे तत्व न्यूनाधिक मात्रा में यत्र-तत्र मिल जायेंगे।
मैंने ‘सूतक’ के दौरान घर के बड़ों द्वारा बताये गये नियमों का यथा-सामर्थ्य पालन किया और कर्म-काण्ड विशेषज्ञ पुरोहित ‘शास्त्रीजी’ द्वारा पं. लालबिहारी मिश्र लिखित व गीताप्रेस से छपी अन्त्यकर्म श्राद्ध प्रकाश के अनुसार पिण्डदान के असंख्य चरणों में अपने पूज्य पितामह के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द जोड़कर उसके निवृत्यार्थ किए जा रहे अनुष्ठान को कलेजे पर पत्थर रखकर देखता रहा। उस शब्द का उच्चारण मात्र हमारे सीने में नश्तर चुभोता रहा और हम भीरुता से सब कुछ सहते रहे।
हमारे देश में हर प्रकार की मान्यताओं, रूढ़ियों, पंथों और स्वतन्त्र इच्छाओं की पूर्ति का सुभीता है। लेकिन हम अपनी परम्परा छोड़कर कुछ नया आजमाने में डरते हैं। जाने क्यों? शायद हजारों-हजार साल से चली आ रही बातों को छोड़ने पर मझधार में अटक जाने का भय हमें रोकता है।
दसवें दिन घर के सभी मर्दों ने एकसाथ बाग में जाकर अपना सर मुड़वाया। वहीं बोरिंग पर सामूहिक स्नान हुआ, जनेऊ बदला गया, मेरे पिताजी ( दगहा, होता) ने अशौच के बाद सफ़ेद वस्त्र में पहली बार घर में प्रवेश किया। पहली बार हमने घर के भीतर सामूहिक रूप से अन्न ग्रहण किया। ग्यारहवें व बारहवें दिन का कार्यक्रम अत्यंत विस्तृत और थकाने वाला था। उसका विवरण देना आवश्यक नहीं है। आखिर में ब्रह्मभोज की बड़ी दावत के साथ सूतक पखवारे का समापन हुआ।
दूर-दूर से आये रिश्तेदारों में से कुछ तो मेरे लिए भी अपरिचित थे। तीन-चार पीढ़ी पुराने रिश्तों के कुछ वर्तमान वंशजों से मेरा पहली बार मिलना एक अचंभित करने वाला अनुभव था। सभी को ससम्मान विदा करने के बाद हमें अपनी नौकरी की सुधि आयी। अर्जित अवकाश पूरा हुआ। इस अवकाश में हम अति व्यस्त रहे। बिलकुल नया अनुभव अर्जित किया। हमने दादाजी का स्थूल रूप खो दिया किन्तु सूक्ष्म रूप में वे हमारे हृदय में बस गये हैं। तभी तो हम वापस आए हैं
– सिर मुड़ा कर।
मेरे भी बाबा गये थे, मेरे हाथों में थे और मैं उन्हें जाते देख रहा था - असहाय सा। उनका दाह भी मैने किया था - यहीं रसूलाबाद के घाट पर।
जवाब देंहटाएंऔर उसके बाद सभी कर्मकाण्ड अरुचि के बावजूद जिया। मन में बाबा से एकात्मता का भाव था।
बाबा अभी भी आते हैं स्वप्न में यदा कदा।
यही जिन्दगी है भाई. मैं आपके साथ हूँ. और तो क्या कहूँ..!!
जवाब देंहटाएंमैं भी यही कह सकता हूँ.
जवाब देंहटाएंदिवंगत बाबाजी की आप्त्मा को शान्ति मिले और
यही जिन्दगी है भाई मैं आपके साथ हूँ.
यही जीवन है, और क्या कह सकता हूँ... दादाजी को श्रद्धांजलि.
जवाब देंहटाएंदिवंगत बाबाजी की आप्त्मा को शान्ति मिले ,कुछ लोग तमाम उम्र मगर आपके साथ रह जाते है.....वापस इस कमीनी दुनिया मे आने के लिए...फ़िर कसले कमर...
जवाब देंहटाएंआपके बाबाजी की आत्मा को शान्ति मिले, ईश्वर से मेरी यही कामना है।
जवाब देंहटाएंmany apkey rocak lakh badi rocakta sey padhy aap ko dhany vad data hoon marney kay bad hmara kaya hota hay par resarch kar rah hon or koshise hay ke dharmraj ji ka ek mander banwa kar samaj mey fal rahi bimari zoot moh loot kapt par lagam lagjay or fher sey satyog ka avtaran ho aap kaa bhai arun bhardwaj 9555034620 pl call me onse
जवाब देंहटाएंek bar aap sabhi dharmatma log mara sath do mandir nirman karny mey mari madad karo dharmraj ka mandir cabma dist himacal ki durgam ghati bharmor may hay agaer aap ka sahyog meela to 2sara mandir haridwar badrinath marg per hoga jaha loge asane sey darsan kar pyage arun bhardwaj 9555034620
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