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सोमवार, 29 दिसंबर 2008

गाली के बहाने दोगलापन...।

आम बोलचाल की भाषा में गालियों के प्रयोग के बहाने एक चर्चा चोखेर बाली पर छिड़ी। दीप्ति ने लूज शंटिंग नामक ब्लॉग पर दिल्ली के माहौल में तैरती गालियों को लक्ष्य करके एक पोस्ट लिखी थी। इसपर किसी की मौज लेती प्रतिक्रिया पर सुजाता जी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि,

“ जब आप भाषा के इस भदेसपने पर गर्व करते हैं तो यह गर्व स्त्री के हिस्से भी आना चाहिए। और सभ्यता की नदी के उस किनारे रेत मे लिपटी दुर्गन्ध उठाती भदेस को अपने लिए चुनते हुए आप तैयार रहें कि आपकी पत्नी और आपकी बेटी भी अपनी अभिव्यक्तियों के लिए उसी रेत मे लिथड़ी हिन्दी का प्रयोग करे और आप उसे जेंडर ,तमीज़ , समाज आदि बहाने से सभ्य भाषा और व्यवहार का पाठ न पढाएँ। आफ्टर ऑल क्या भाषा और व्यवहार की सारी तमीज़ का ठेका स्त्रियों ,बेटियों ने लिया हुआ है?”

इस प्रतिक्रियात्मक पोस्ट में जो भाषा प्रयुक्त हुई उससे यह लगा कि जैसे पुरुषों ने किसी कीमती चीज पर एकाधिपत्य करके महिलाओं के साथ बेईमानी कर ली हो। जैसे इन्होंने गाली के प्रयोग का विशेषाधिकार लेकर लड़कियों और महिलाओं को किसी बड़े सुख से वंचित कर दिया हो। …यह भी कि अब आधुनिक नारियाँ अपने इस लुटे हुए अधिकार के लिए ताल ठोंककर खड़ी होने वाली हैं।

उम्मीद के मुताबिक जो प्रतिक्रियाएं आयीं उनमें लड़कियों को यह अवगुण अपनाने से मना करने के स्वर ही बहुतायत थे। प्रायः सबने यही कहा कि यह बुराई जहाँ है वहाँ से खत्म करने की बात होनी चाहिए न कि समाज का जो हिस्सा इससे बचा हुआ है उसे भी इसमें रस लेना प्रारम्भ कर देना चाहिए।

लेकिन सुजाता जी ने अपनी यह टेक कायम रखी कि यदि मात्र स्त्री होने के कारण हमें उन कार्यों से वर्जित रखा जाता है जिन्हें पुरुषों को करने की छूट प्राप्त है तो यह सोच का दोगलापन है। इसी दोगलेपन को दूर भगाने के लिए गाली का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से स्वीकार्य या अस्वीकार्य होना चाहिए। यानि जबतक पुरुष इसका प्रयोग बन्द नहीं करते तबतक स्त्रियों को भी इसका प्रयोग सहज रूप से करने का हक बनता है।

इसे जब मैने एक मित्र को बताया तो वह तपाक से बोला कि मैं तो जाड़े की धूप में नंगे बदन सरसो का तेल लगाकर बाहर लान में बैठता हूँ, और कभीकभार शहर की अमुक बदनाम गलियों में होने वाले इशारों को देखकर मुस्कराता हुआ उस बाजार का साइकिल से चक्कर लगा आता हूँ। तो क्या ये लड़कियाँ भी यह छूट लेना चाहेंगी।

सुजाता जी के इस दृष्टिकोण में वास्तविक समाधान के बजाय मात्र नकारात्मक उग्र प्रतिक्रिया की प्रधानता से असहमत होते हुए तथा घुघूती बासूती जी की अर्थपूर्ण टिप्पणी से सहमत होते हुए इस ब्लॉग पोस्ट पर मैने यह टिप्पणी कर दी -

@वैसे बेहतर तो यह होगा कि हम पुरुषों के रंग में रंगने की बजाए पुरुषों को अपने रंग मे रंग दें। बात अति आशावादी तो है परन्तु असम्भव भी नहीं।
घुघूती बासूती
इस चर्चा की सबसे सार्थक बात यही है।
सुजाता जी,
आपसे यह विनती है कि सभ्यता और संस्कृति के मामले में यदि महिलाओं को पुरुषों से आगे दिखाने वाली कुछ बातें स्वाभाविक रूप से सबके मन में बैठी हुई हैं तो उन्हें ‘दोगलापन’ कहकर गाली की वस्तु न बनाइये।
वस्तुतः यह सच्चाई है कि अश्लील शब्द पुरुष की अपेक्षा महिला के मुँह से निकलने पर अधिक खटकते हैं। केवल हम पुरुषों को नहीं बल्कि असंख्य नारियों को भी। लेकिन मैं इसे दोगलापन कहने के बजाय महिलाओं की ‘श्रेष्ठता’ या पतन की राह में न जाने का सूचक कहूंगा।
स्त्री सशक्तीकरण के जोश में पुरुषों से गन्दी आदतों की होड़ लगाना कहीं से भी नारी समाज को महिमा मण्डित नहीं करेगा। गाली तो त्याज्य वस्तु है। इसमें कैसी प्रतिद्वन्द्विता?

गाली देनी ही है तो गाली को ही गाली दीजिए। :)

लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में सुजाता जी ने मेरी सोच को ही दोगला बता दिया क्योंकि उन्हें यह बात मानने के लिए वैज्ञानिक तर्क की दरकार है कि अश्लील शब्द पुरुष की अपेक्षा महिला के मुँह से निकलने पर अधिक खटकते हैं।

मैने यह तो कहा नहीं था कि पुरुष के मुँह से निकलकर गालियाँ अमृतवर्षा करती हैं और केवल लड़कियों और महिलाओं के मुँह से निकलकर ही आपत्तिजनक होती हैं। मात्र अपेक्षया अधिक खटकने की बात कहा था मैने जिसके लिए मुझे दोगलेपन के अलंकार से विभूषित होना पड़ा।

मैं ठहरा एक सामान्य बुद्धि का विद्यार्थी। हिन्दी शब्दों और वाक्यों का वही अर्थ समझता हूँ जो स्कूल कॉलेज की किताबों में पढ़ पाया हूँ। लेकिन निम्न सूचनाएं मुझे अपनी अल्पज्ञता का स्मरण दिला रही हैं।

बकौल सुजाता जी-

...“भाषिक व्यंजना को समझने मे आपसे भूल हो रही है ।”...

...“आप अपनी बेटी को जो चाहे वह शिक्षा दें , जब वह बाहर निकलेगी तो बहुत सी बातें स्वयम सीख लेगी, जीना तो उसी ने है दुनिया में”...

...“आप पोस्ट का तात्पर्य सिरे से ही गलत समझ रहे हैं और मै आपसे किसी तरह सहमत नही हो पा रही हूँ ।”...

...“हमारी दिक्कत यह है कि जब तक आप चोखेर बाली को देखने समझने के लिए एक वैकल्पिक सौन्दर्य दृष्टि या आलोचना दृष्टि नही लायेंगे तब तक आप यही सोचते रहेंगे कि सुजाता या अनुराधा या वन्दना या कोई भी चोखेर बाली समाज को तोड़ने और स्त्री के निरंकुश ,बदतमीज़,असभ्य हो जाने की पक्षधर हैं।”...

चलिए गनीमत है कि आधुनिक समाज में नारी सशक्तिकरण, लैंगिक समानता, और महिला अधिकारों का झण्डा उठाए रखने का दायित्व मुझ नासमझ के अनाड़ी हाथों में नहीं है। बल्कि तेज तर्रार और विदुषी चोखेर बालियों के आत्मनिर्भर और सक्षम हाथों में है जिनके पास एक वैकल्पिक सौन्दर्य दृष्टि और आलोचना दृष्टि है।

लेकिन सुजाता जी की यह बात मुझे भ्रम में डाल देती है-

“यह वाकई दयनीय है कि मैने यहाँ जो कुछ भी कहा उसके केन्द्रीय भाव तक काफी कम लोग पहुँच पाए।”

“मान लीजिए आपके सामने लड़कियाँ फटना-फाड़ना जैसे प्रयोग सहज हो कर कर रही हैं तो आप क्या केवल दुखी होकर ,क्या ज़माना आ गया है कहते हुए निकल जायेंगे ? या कान मूंद लेंगे? ...मै चाह रही हूँ आप न कान बन्द करें , न दुखी हों , न दिल पर हाथ रखे ज़माने को कोसें ...आप इसके कारणों को समझने का प्रयास करें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें ।”

अरे भाई (क्षमा… बहन!) जब यही कहना था तो इतना लाल-पीला होने की क्या जरूरत थी? यह तो सभी पंचों की राय है:)

(सिद्धार्थ)

17 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सिद्धार्थ जी आप भी ! कुछ छोड़ते नहीं और मैं यह जोड़ता हूँ !
    कहीं यह भी ध्वनित हुआ कि गालियाँ स्त्री अंगों और स्त्री के लिए ही जयादा हैं -यह ग़लत फहमी है .कभी ध्यान से गावों की औरतों को झगड़ते हुए देखिये (जिन्होंने नही देखा सुना है ! ) -गलियाँ एक पुरूष विशेष अंग के इर्द गिर्द किसी झंझावात की तरह घूमती हैं .इतना कि शायद नारी का विशेषांग उसका शतांश भी अलंकरित /विभूषित नही हुआ है .गालियाँ हमें मूलावस्था में जा पहुंचाती है -जहाँ कोई सोफेस्तिकेशन नहीं ,क्रत्रिमता नहीं ! पर शिष्ट समाज इसे अनुचित मानता है .मैं भी दैनदिन सार्वजनिक जीवन में इनके बेलौस प्रयोग को अनुचित माना है और यह भी पुरूष समानता से तुलना करने का कोई मुद्दा है ?-छि.. छि !

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  2. आपने भी सही ढंग से अपनी बात रखी। संदर्भित पोस्ट की बात जानें दें, हम आपसे भी सहमत हैं।

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  3. देखिए चोखेर बाली तो एक अदना सा मंच है , इसकी क्या औकात कि ज़माने की भली बहू बेटियों को बिगाड़ पाए। फिर भी आप हमें झंडाबरदार कहते हैं तो आपकी ज़र्रा नवाज़ी। लेकिन बस इतना बताइए कि क्या पंच इस पर सहमत हैं कि वे अपनी बेटियों और बेटों के सामने समान भाषिक सन्यम का आदर्श रखेंगे और उनके अनुसरण न करने पर समान रूप से आहत होंगे।क्या पंच इस बात पर सहमत हैं कि गालियों की परम्परा यदि गलत है तो इसे सबसे पहले हमें यानी पुरुषों को त्यागना होगा क्योंकि आपके अनुसार यह पुरुषों की ही थाती है?
    मै क्या होड़ करना चाहती हूँ , यहाँ मंतव्य यह नही है क्योंकि मुझे जब गाली देनी होगी तो उसके लिए पोस्ट लिखने की ज़रूरत नही होगी।या किसी भी लड़की का जब गुस्से मे ऊल जलूल बोलने का मन करेगा तो वह चोखेर बाली से ही प्रेरित नही होकर करेगी।इस लिए आप निश्चिंत हो सकते हैं।

    मै केवल उस मानसिकता को आपके आगे लाने की हिमाकत कर रही हूँ कि पुरुष होने के नाते जिन गालियों को कोई इंज्वाय करता हैं जब वही स्त्री के मुख से सुनता है तो तिलमिला जाता है।उसे अचानक सभ्यता की याद आती है, संस्कृति की याद आती है।
    मेरी दृष्टि मे यह दोगलापन है।

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  4. जहां तक मुझे याद है जब मैं करीब सात-आठ साल की थी तो मैंने भी कुछ ईसी तरह की गाली का ईस्तमाल अपने भाइयों के लिए किया था नतीजा पापा ने मुझें कुएं में लटका दिया था और मेरा गांव घूमना बन्द। तबसे मेरे लिए गाली तो जैसे कोई भूत,आज फ़िर वही भूत उपटा है। सारा दिन गालीमय हो गया ।

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  5. लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।

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  6. भाई गलियां ना तो मे देता हुं, ना ही मुझे अच्छा लगता है, अब चाहे देने वाला पुरुष हो या स्त्री, कभी किसी को गाली देते हुये सुने फ़िर सोचे क्या गाली देना अच्छा है??? अगर बराबरी ही करनी है तो किसी अच्छे काम मै करो.....

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  7. चिट्ठाचर्चा में आपके ब्लाग की चर्चा में मैंने जो प्रतिक्रिया दी, उस पर जो गाली खाई, तो आगे क्या कहूं!

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. " ये कैसी जंग है, ब्लाग जगत के इतने आदरणीय और सम्मानित लोग किस बात पे बहस कर एक दुसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर रहे हैं...क्या अब ब्लॉग जगत में ऐसे विषयों पर इतनी अभद्रता से बहस होगी??? बहुत दुखद और असहनीय लग रहा है ये सब पढना और देखना ...हम लोग यहाँ क्या साबित करना चाह रहे हैं....पुरूष और महिला एक दुसरे के पूरक हैं दोनों एक दुसरे के बिना अधूरे हैं फ़िर क्या ये जायज है की इस तरह एक दुसरे को सरे आम यूँ अपमानित किया जाए.....ये बात कहाँ से कैसे शुरू हुई ये मै नही जानती, बस आप सभी से नम्र निवेदन है की , अब इस बहस पर विराम चिन्ह लगायें और इसको यही खत्म करें...."

    क्षमा और निवेदन सहित

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  10. क्या लड़का क्या लड़की, जिसे जहाँ मौका मिलता है पुरुषत्व दिखा देता है| कल मेरी एक मित्र से बात हुई उन्होंने बताया की रात की शिफ्ट में चाय वाले के यहाँ लड़के लड़कियां चाय के साथ सिगरेट का आनंद उठाते है? कारण, रात में काम करने के लिए मोटिवेशन जरुरी होता है| यही नही गालियों में भी दोनों में फर्क दिन ब दिन कम होता जा रहा है|

    मेरे कहने का तात्पर्य यह है की जब भी किसी को वैसा परिवेश मिलता है, दोनों में फर्क ख़त्म हो जाता है और फ़िर इस तरह की चर्चा बेमानी लगने लगती है|

    गालियों के लिए पुरुषों की सहमती की जरुरत नही है, बस मौका मिलना चाहिए| पुरूष होना आजकल फैशन में है|

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  11. चिट्ठाचर्चा में आपके ब्लाग की चर्चा में मैंने जो प्रतिक्रिया दी, उस पर जो गाली खाई, तो आगे क्या कहूं!

    i dont think what you wrote mr cmpershad was a reaction to any post . it was your thinking which came out in open . you want woman to open red light areas for them selfs because if woman desire to be equals then they should be prepared to be raped and molested and sold .

    using foul language is bad for any one instead of saying that you simply said that if woman want to use fould language they should be ready to sell their bodies .

    i feel you should stop commenting if you dont understand the issue

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  12. सीमा जी से सहमत… बहसकारों को एक प्रिय विषय मिल गया है "गालियाँ", सब लगे हुए हैं अपने को सही साबित करने में… बहस हो भी रही है तो किस बात पर गालियों पर और महिलाओं पर… क्या इस विषय को तत्काल खत्म नहीं किया जा सकता? और शेखर से भी सहमत हूँ कि सिगरेट-शराब की तरह गालियों के मामले में धीरे-धीरे लड़के-लड़की में फ़र्क मिट रहा है, मैंने खुद कई बार कॉलेज जाते लड़के-लड़कियों के ग्रुप में लड़कियों के मुँह से आपस में "चूतिया", "फ़ट गई", "अबे तेरी माँ की आँख" जैसे शब्दों का आदान-प्रदान सुना है… अब चोखेर बालियाँ इस पर पता नहीं क्या कहेंगी…

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  13. बढ़िया चर्चा है। काश में उन्मुक्त भाव से कुछ कह पाता!

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  14. हमें लघ्टा है की अब इस चर्चा को विराम दे दिया जाना चाहिए. समझने वेल सब साँझ गये हैं.
    आपके लिए और आपके परिवार के लिए नव वर्ष मंगलमय हो.

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  15. सिद्धार्थजी कहाँ अनर्थक चर्चा में पड़ गये? कुछ अच्छा अच्छा लिखिये पढ़िये न और अब तो नया वर्ष भी आगया!

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  16. यह नौबत तक आगाई कि हिन्दी ब्लॉगरों को आपस में बात करने के लिए अँग्रेज़ी का प्रयोग करना पद रहा है | किस से क्या छिपाना चाह रहे हैं ?

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आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)