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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

एक गुमनाम चित्रकार की सत्यकथा...।

वैसे तो दुनिया में एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं मौजूद हैं, लेकिन यदि किसी दुर्लभ प्रतिभा का धनी व्यक्ति बिल्कुल साधारण ढंग से आपके घर में बैठकर आँखों के सामने सजीव बात कर रहा हो और जो आपके गाँव-घर का हो तो एक अद्‍भुत गर्व व रोमांच का अनुभव होता है।

श्री जय कुमार पाठक से अपने आवास पर पहली बार मिलकर मुझे ऐसा ही लगा। उन्हें देखकर एक बारगी यह कल्पना करना कठिन था कि इनके हाथ में ईश्वर ने सचमुच एक जादुई तूलिका थमा रखी है। वे मेरे एक मामा जी के साथ आये थे। सामान्य कु्शल-क्षेम पूछने के बाद जब मैने इलाहाबाद आने का प्रयोजन पूछा तो वे अत्यन्त संकोच और लज्जा के साथ इतना कह सके कि पडरौना के एक साधारण मुहल्ले में बीत रही गुमनामी की जिन्दगी से बाहर निकलकर अपनी कला के लिए कोई रास्ता ढूँढना चाहते हैं।

स्थानीय स्तर पर ‘पुजारी जी’ के नाम से जाने जाते ४३ वर्षीय श्री पाठक आठ भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। घर की गरीबी से तंग आकर इन्होंने सातवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी और १५ साल की उम्र में अयोध्या चले गये। वहाँ वासुदेवाचार्य जी के वैष्णव सम्प्रदाय में सम्मिलित होकर ‘जयनारायण दास’ बन गये थे। वहीं आश्रम में इनकी भेंट झाँसी से पधारे प्रेम-चित्रकार से हो गयी।

अच्छा गुरू मिलते ही इन्हें रेखांकन और चित्रों के रंग संयोजन की बारीकियाँ समझते देर नहीं लगी और शीघ्र ही इन्होंने प्राकृतिक सौन्दर्य, पोर्ट्रेट और धार्मिक पात्रों से सम्बन्धित चित्रों को कैनवस पर सजीव उतार लेने में महारत हासिल कर ली।
आगे की कहानी जानने से पहले आइए देखते हैं इनके हाथ से जीवन्त हो चुके कुछ अनमोल चित्र:

[ये सभी चित्र मैने इनके पास उपलब्ध पोस्ट्कार्ड साइज के उस एलबम से लिए हैं जो इनकी चित्रकृतियों के साधारण फोटोकैमरे से दसियों साल पहले लिए गये छायाचित्रों को सहेजकर बनाया गया है।]













धार्मिक पात्रों के अतिरिक्त पुजारी जी अन्य प्राकृतिक दृश्यों और मानव आकृतियों को पूरी सच्चाई के साथ उतारने में पारंगत हैं। सिर ढंकी हुई राजस्थानी युवती की यह तस्वीर अखबार में छपे इसकी संगमरमर की मूर्ति के छायाचित्र को देखकर बनायी गयी है। इसके नीचे उर्वशी का यह रूप पुजारी जी की अपनी कल्पना है।



भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित चित्रों से ही पुजारी जी को कुछ आर्थिक लाभ मिल पाता है। इनके महापरिनिर्वाण स्थल कुशीनगर में आने वाले विदेशी पर्यटकों के हाथों बिककर इनके चित्र थाईलैण्ड,जापान,कोरिया,आदि देशों तक तो चले गये, सम्भव है उनकी अनुकृतियाँ बेचकर किसी ने पैसा भी कमाया हो, लेकिन यह सब पुजारी जी की आर्थिक दुरवस्था को किसी प्रकार से दूर करने में कारगर नहीं हो सके।






वृन्दावन में राधाजी को झूला झुलाते हुए श्रीकृष्ण की यह तस्वीर पुजारी जी के गुरू प्रेम-चित्रकार द्वारा बनायी गयी है। इसमें पुजारी जी ने राधा और कृष्ण को आभू्षण पहनाने का काम किया है। लेकिन वे गुरू की निशानी इस तस्वीर को सदैव अपने पास रखते हैं।




कुशीनगर जिले के पडरौना कस्बे (जिला मुख्यालय) के पास पटखौली ग्राम के मूल निवासी पुजारी जी को उनके वृद्ध होते पिता के मोह ने १५ साल बाद अयोध्या से घर वापस बुला लिया। पितृमोह और परिवार की फिक्र से ये वापस तो आ गये लेकिन जीविकोपार्जन की कोई मुकम्मल व्यवस्था न होने के कारण जीवन कठिन हो चला है। विवाह का विचार तो पहले ही त्याग चुके हैं। अब भाइयों बहनों के साथ घर-परिवार में रहकर पडरौना के नौका टोला मुहल्ले में ‘पुजारी आर्ट’ के नाम से एक सेवा केन्द्र चलाते हैं। कुछ लोग शौकिया तौर पर चित्र और पोर्ट्रेट बनवा कर ले जाते हैं लेकिन इनकी मेहनत, लगन और प्रतिभा के अनुरूप आर्थिक आय हासिल नहीं हो पाती है।

वस्तुतः यदि इनके हाथों को सही काम मिले और पारखी प्रायोजकों का समर्थन मिले तो शायद हम राजा रवि वर्मा को मूर्त रूप में पुनः देख सकें। फिलहाल तो ये गुमनामी के बियाबान में भटकने को अभिशप्त कलाकार का जीवन जी रहे हैं।

(सिद्धार्थ)

13 टिप्‍पणियां:

  1. अगर ये पासपोर्ट साइज फोटोग्राफ की स्कैन कॉपी हैं तो "पुजारी" जी के मूल चित्र वस्तुत: बहुत सुन्दर होंगे।
    राजा रवि वर्मा की याद आती है इस पोस्ट को पढ़ कर।

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  2. अति सुंदर! हमारे आस-पास कितनी प्रतिभायें मौजूद होंगी - बस हमारी आँखें उन्हें पहचान नहीं पातीं!

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  3. ज्ञान जी सही कहते हैं राजा रवि वर्मा के बाद धार्मिक और प्रक्रति से जुडी इतनी सुंदर मनमोहक च्त्र्कारी चित्रकारी तो अमीन नही देखी -पर इस कलाकार के साथ क्या हो सकता है ? इसपर विचार ज्यादा जरूरी है .कितना गैरजिम्मेदार है हमारा तंत्र कि एक प्रतिभा संपन्न व्यक्ति डर डर की ठोकरे खाता रहा है -अब क्या हो सकता है ?

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  4. अद्भुत !

    बहुत ही अच्‍छा लगा, हमारे यहॉं प्रतिभाओं की कमी नही है। इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय जाना हुआ वहॉं के बीएफए विभाग में चित्र देखने योग्‍य थे। पता नही हमारे हुसैन जैसे बेहुदा कलाकार कैसे आ जाते है।

    महाशक्ति

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  5. " इतने मनमोहक चित्र देख कर ऑंखें खुली की खुली रह गयी , प्रणाम इतनी महान प्रतिभा को.."

    Regards

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  6. अत्याधुनिक कैमरों और मुद्रण तकनीक के विकास ने बीती एक सदी में फाइन आर्ट का बहुत नुकसान किया। नई कविता की तरह विदेश से आई एब्स्ट्रैक्ट आर्ट प्रयोगवादी धारा में तो यथार्थवादी कला बह गई। इसका नामलेवा अब कोई नहीं है।
    पुजारी जी जैसे श्रेष्ठ कलाकारों को मैं कई बरस पहले फिल्मी पोस्टरों पर गुज़र बसर करते देख चुका हूं। अब उन पोस्टरों का ज़माना भी गया और ग्लासी बैनर लगने लगे हैं। वे क्या कर रहे होंगे पता नहीं।
    कला अभाव में पलती है, मेहनत से बढ़ती है , लगन से टिकती है मगर हर दौर में तकनीक से हार जाती है। पुजारी जी के लिए शुभकामनाएं....

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  7. बहुत निखार है इन चित्रों में ...कलाकार को बहुत-बहुत बधाई और आपका धन्यवाद एक कलाकार को हमसे मिलवाने के लिये...

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  8. ऐसे अद्वितीय चित्रकार और उनकी कला से हमारा परिचय कराने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, एम् ऍफ़ हुसेन जैसे बाजारू लोगों की प्रसिद्धि और सच्चे कलाकारों की उपेक्षा और ख़राब आर्थिक स्थिति होना एक अजीब सी मगर सामान्य बात है.
    अनुराग शर्मा

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  9. kya kahun .....? maine hussain sahab ki kuchh kalakritiya dekhi hai. khair mere pas na jyada anubhaw hai aur na hi kala ka parkhi hun.lekin ek bat samajh me nahi aati ki en kalakritiyon ko kis aadhar par kamtar aanku.kya ye pujari ji ki upeksha hai ya fir kala ki? aakhir kyon hai ye sthiti aur kaun jimmedar hai es ke liye?

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  10. यही तो विडम्बना है इस देश की. राजा रवि वर्मा पर ४० करोड की लागत से बालीवुड में फ़िल्म बन सकती है, लेकिन सपनीली आंखों को भूख की छाया से बचाने की कोई सार्थक पहल नहीं हो सकती.

    एक अनुभव बांट रहा हूं- अपने अंडर-१४ क्रिकेट के दिनों में गोरखपुर का एक काफ़ी टैलेन्टेड दोस्त होता था विवेक यादव. वीनू मांकड ट्राफ़ी में यूपी की टीम में सेलेक्शन के लिये उससे एक लाख रुपये मांगे गये थे. नहीं दे पाया. उसे शायद अपनी प्रतिभा पर भरोसा था. इसी बिनाह पर वह जानबूझकर हाईस्कूल में तीन साल तक फ़ेल होता रहा क्योंकि यह ट्राफी हाईस्कूल स्तर तक ही खेली जा सकती थी.
    चार साल हो गये मुझे गोरखपुर छोडे लेकिन विवेक आज भी डिस्ट्रिक्ट लीग में ही खेल रहा है. कैरियर चौपट हुआ सो अलग.

    छोटे शहरों के प्रति इसी उदासीनता के चलते नरेन्द्र हिरवानी ने गोरखपुर छोडा और अंततः राष्ट्रीय टीम में खेलने में कामयाब हुआ.

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  11. nyay to hokar rahega dekhna ak din vo apni kala ka loha manvakar manege

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  12. ak din unhe bhi nyay milega aakhir ve bhi apni pratibha ka loha manvakar manege

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