उस्ताद ने इस बार जब मिसरा दिया था तो मैं उपस्थित नहीं था। किसी और ने जब फोन पर बताकर नोट कराया तो इसकी बहर गलत समझ ली गयी और पूरी ग़जल गलत बहर में कह दी गयी। बाद में ऐन वक्त पर नशिस्त से पहले गलती का पता चला तो काट-छांट करके और कुछ मलहम पट्टी लगाकर शेर खड़े किये गये। अब यहाँ ब्लॉग पर तो अपनी मिल्कियत है। सो इस अनगढ़ को भी ठेल देता हूँ। साथ में एक कठिन बहर की रुबाई भी बनाने को दी गयी थी जिसे मैंने डरते-डरते आजमाया।
रुबाई हरगिज न करूँ कभी कहीं ऊल जुलूल |
ग़जल
बदगुमाँ होते हैं क्यूँ हार के जाने वाले मत करें प्यार का इजहार गरज़मंदी में गुल खिलाती है हवा धूप की गर्मी लेकर प्यार गहरा हो तो बढ़ जाती है ताकत दिल की चूम लेने का हुनर आया अदा में कुछ यूँ प्यार के रंग बने जैसे कि ये शेरो सुखन एक मुस्कान से शुरुआत भली होती है (सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) |
सत्यार्थमित्र
www.satyarthmitra.com
ग़ज़ल बढ़िया बन पड़ी है।
जवाब देंहटाएंरुबाई का रुबाब भी ठीक है।
खूब कही
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-11-2014) को "वक़्त की नफ़ासत" {चर्चामंच अंक-1800} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर !
मैं आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हूँ ताकि नियमित रूप से आपका ब्लॉग पढ़ सकू मेरे ब्लॉग पर आप सारद आमत्रित हैं आशा करता हूँ क़ि आपे सुझाव और मार्गदर्शन मुझे मिलता रहेगा
bahut khoob...
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