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सोमवार, 8 दिसंबर 2008

हम अक्षम हैं इसलिए बेचैन हैं…!

मुम्बई में हुए आतंकी हमले के बाद एक आम भारतवासी के मन में गुस्से का तूफान उमड़ पड़ा है। सरकार की कमजोरी, खुफिया संगठनों की नाकामी, नेताओं की सत्ता लोलुपता, कांग्रेस में व्याप्त चारण-संस्कृति, राष्ट्रीय मुद्दों पर आम सहमति के बजाय जाति, धर्म, क्षेत्र और दल आधारित राजनीति की खींचतान, शासन और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और इससे उपजी दोयम दर्जे की कार्यकुशलता, विभिन्न सरकारी संगठनों में तालमेल का अभाव आदि अनगिनत कारणों की चर्चा से मीडिया और अखबार भरे पड़े हैं। जैसे इन बुराइयों की पहचान अब हो पायी है, और पहले सबकुछ ठीक-ठाक था। जैसे यह सब पहले से पता होता तो शायद हम सुधार कर लिए होते।


पहले के आतंकी हमलों की तुलना में इस बार का विलाप कुछ ज्यादा समय तक खिंच रहा है। आमतौर पर संयत भाषा का प्रयोग करने वाले लोग भी इसबार उग्र हो चुके हैं। पाकिस्तान पर हमले से लेकर आतंकी ठिकानों पर हवाई बमबारी करने, कांग्रेसी सरकार के प्रति विद्रोह करने, लोकतान्त्रिक व्यवस्था समाप्त कर देश की कमान सेना के हाथों में सौंप देने, जनता द्वारा सीधी कार्यवाही करने जैसी बड़ी बातों के अलावा टैक्स नहीं जमा करने, गली कूचों में पाकिस्तानी झण्डा फहराने वालों को सबक सिखाने, उर्दू बोलने वालों और जालीदार सफेद टोपी पहनने वालों की देशभक्ति पर सवाल खड़ा करने और यहाँ तक कि लिपिस्टिक-पाउडर तक की ओछी बातें भी आज राष्ट्रीय बहस का विषय बन गयी हैं।


दूसरों की खबर देते-देते भारतीय मीडिया भी खुद ही खबर बन गयी है। आतंकवादियों को कमाण्डो ऑपरेशन का सीधा प्रसारण ताज के भीतर टीवी पर दिखाकर इनके क्राइम रिपोर्टरों ने अपनी अच्छी फजीहत करा ली। एन.एस.जी. कमाण्डो की कार्यवाही देखकर इनकी प्रशंसा और आलोचना के स्वर बराबर मात्रा में उठ रहे हैं। हम तो मुग्ध होकर इनकी बहादुरी पर वाह-वाह कर रहे थे तभी अपने देश में आतंकवाद के विरुद्ध निरन्तर मोर्चा सम्हाल रहे इस्राइली विशेषज्ञों ने इनकी कमजोर तैयारी और असुरक्षित मोर्चाबन्दी की पोलपट्टी उजागर कर दी। तो क्या मन्त्रियों और नेताओं के चारो ओर शोभा की वस्तु बने ये चुस्त-दुरुस्त जवान उतने कुशल नहीं निकले जितना होना चाहिए? भारी कनफ्यूजन है, मन में खलबली है। सारी दुनिया हम पर हँस रही है और हम बड़े-बड़े बयान देते जा रहे हैं।


‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के सम्पादक वीर संघवी ने अपने रविवासरीय लेख में इस जबानी जमा-खर्च और पागल हाथी जैसे व्यवहार का कारण बताते हुए लिखा है कि दरअसल हम कुछ भी कर पाने में अक्षम हैं इसीलिए दिशाहीन होकर लफ़्फ़ाजी कर रहे हैं।


यह बात कितनी सही है इसपर विचार करना चाहिए। करीब सवा करोड़ की जनसंख्या वाले देश में आजादी के साठ साल बाद भी यह हालत है कि हमारे पास एक निर्विवाद, निष्कलुष और देशभक्त नेता नहीं है जो सभी प्रकार से भारत का नेतृत्व करने में सक्षम हो। पाश्चात्य और ईसाई संस्कारों में पली-बढ़ी एक विदेशी महिला के हाथ में सर्वोच्च सत्ता की चाभी है जिसके इशारे पर सारे सत्ताधारी नेता उठक-बैठक करने को तैयार हैं। त्रासदी यह है कि यह विडम्बनापूर्ण स्थिति किसी चुनावी धाँधली या सैनिक विद्रोह से नहीं पैदा हुई है, बल्कि इस देश के संविधान के अनुसार विधिवत् सम्पन्न कराये गये स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के फलस्वरूप बनी है। यानि हमारे देश की जनता अपने को इसी नेतृत्व के लायक समझती है।


सोनिया गान्धी के बारे में कोई भी विरोधी बात आपको भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विरुद्ध खड़ा कर सकती है, पोलिटिकली इनकरेक्ट बना सकती है; और कांग्रेस के भीतर रहकर ऐसा करना तो आपके अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर सकता है। इस सम्बन्ध में भारतीय हाई-कमान के विरुद्ध एक रोचक आरोप-पत्र यहाँ पढने को मिला। यह एक फ्रान्सीसी पत्रकार फ्रांस्वाँ गातिये द्वारा भारत की आन्तरिक राजनीति और सामाजिक सोच की विकलांगता पर तीखा व्यग्य है।


हम सभी जानते हैं कि पाकिस्तान जैसे दुष्ट पड़ोसी के कारण ही हमें ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं। हम यह भी जानते हैं कि मुस्लिम वोटबैंक की लालच हमारे देश के नेताओं को इनके भीतर पनप रही राष्ट्रविरोधी भावना पर लगाम लगाने में रोड़ा डाल रही है। लेकिन हम इन दोनो बुराइयों पर लगाम लगाने में असमर्थ हैं। हम ब्लैकमेल होने के लिए सदैव प्रस्तुत हैं। एक अपहृत हवाई जहाज में सफर कर रहे कुछ भारतीयों की जान बचाने के लिए अपनी जेलों में बन्द बर्बर आतंकवादियों को बाइज्जत रिहा करके हम अपनी कमजोरी पहले ही जतला चुके हैं। भले ही उन विषधरों ने उसके बाद कई गुना भारतीयों की हत्या कर दी हो। उस गलती को सुधारने के बजाय कांग्रेसी उसी का नाम लेकर अपने निकम्मेपन को जायज ठहराते रहते हैं। अफ़जल गुरू को फाँसी नहीं देने के सवाल पर कहते हैं कि जब भाजपा अफजल गुरू के गुरु मौलाना मसूद अजहर को फिरौती में कन्धहार छोड़ कर आ सकती है तो हम फाँसी क्यों दें? यानि भारतीय राजनीति में निर्लज्जता की कोई सीमा नहीं हो सकती।


देश की वर्तमान हालत यही बताती है कि यदि हमारे संविधान में कोई आमूल-चूल परिवर्तन करके एक सच्चे राष्ट्रभक्त जननायक को सत्ता के शिखर पर पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त नहीं किया गया, राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रविरोधी मानसिकता का पोषण और प्रसार करने वालों की पहचान कर उनका संहार नहीं किया गया, पकड़े गये आतंकवादियों के विरुद्ध कठोर सजा सुनिश्चित नहीं की गयी और देश की बहुसंख्यक आबादी की सभ्यता और संस्कृति का सम्मान अक्षुण्ण नहीं रखा गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम एक बार फिर से गुलाम देश होने को अभिशप्त हो जाँय।

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! वाह! इसे आपके ब्लॉग पर हमारी गेस्ट पोस्ट माना जाये!

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  2. बिल्कुल सहमत हैं आपसे. सही कहा वो दिन दूर नहीं.

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  3. अक्षम हैं? पिछले दिनों इस पर बहुत सोचा, सक्षम बनने के कुछ तरीके हैं... उसे अपनाना होगा वरना वो दिन सच में दूर नहीं !

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  4. मेरा ऎतराज़ दर्ज़ करें, मित्र !
    अक्षम नहीं, बल्कि क्षीण-इच्छाशक्ति के चलते यह दुर्दिन देखना पड़ रहा है !
    दिशाहीन नहीं बल्कि सत्ता और यथास्थिति में संतुलन न बना पाने से दिग्भ्रमित है, यह तथाकथित नेतृत्व !

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  5. अगर ऎसा ही चलता रहा तो सच मै वो दिन दुर नही.......
    हम कब जागेगे????
    धन्यवाद

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  6. आपकी इस बात से तो सोलह आना सहमत हूँ कि हम भारतीय ब्लैकमेलिंग के प्रति यूज्डटू हो चुके हैं.किससे उम्मीद करें कि साया दे,पेड़ सब नंगे फकीरों की तरह सहमे हैं.

    जिस जिस से उम्मीद थी, सभी ठेंगा दिखाकर कट लिए.विधायिका निष्क्रिय पड़ी है.शायद इस लिए भी, कि उनके पास न तो इतनी योग्यता है,कि कुछ नया सोच सकें,न ही कर पाने की इच्छाशक्ति.
    कार्यपालिका भ्रष्टाचार से जूझ रही है,और न्यायपालिका काम के बोझ से.मीडिया को न तो अपनी जिम्मेदारी का अहसास है,न ही टुच्चे हथकंडो के दूरगामी प्रभाव का.

    लेकिन इस निष्क्रियता के लिए संविधान को जिम्मेदार ठहराना अनुचित होगा.गलती संविधान की धाराओं में नही, बल्कि उनके स्वयंसिद्ध इंटरप्रेटशंस की है. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हमारी धर्मान्धता और कट्टरता के लिए उदारवादी वेदों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.

    मेरे विचार से आवश्यकता संविधान में परिवर्तन की नहीं,अपितु उसको क्लेअर -कट परिभाषित करने की है.एक बहुत विचारोत्तेजक पोस्ट के लिए धन्यवाद .

    और हाँ, प्रिय सत्यार्थ को जन्मदिन की बिलेटेड शुभकामनायें.

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  7. I sometimes think if this carnage was done at a market visited by the lower classes in our economic hierarchy( which have happened previously many times), would it have generated the same amount of reaction and heat? Have our T.V. cameras focussed equally on CST and Cama Hospital as they did on the two five stars? Has our upper middle class realised the menace of terror now ? Will this anger in them lead them to spend some of their precious time on the polling-booths and help in formation of a real government. Why should we criticize the government when it is we who have formed them ? And the relatively big turnout of the middle class in the delhi and rajasthan polls ( held after the mumbai attack) are indication that our middle class has awaken from its siesta? Hope it has.

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