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मंगलवार, 9 सितंबर 2008

कैसे-कैसे गुरू… पुराण चर्चा!

श्रीमद् भागवत पुराण आस्थावान हिन्दुओं के लिए सर्वोत्कृष्ट मोक्षदायी ग्रन्थ माना जाता है। इसके रचयिता महर्षि व्यास जी ने इस महाकाव्य को अपने अठारह पुराणों में सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया है। यह पुराण ज्ञान, कर्म और उपासना का एक अद्भुत समन्वय है। इसमें वैदिक साहित्य और संस्कृत साहित्य के गूढ़ विषय तो हैं ही, साथ ही इसमें भूगोल, खगोल, इतिहास, दर्शन, विज्ञान, नीति, कला जैसे अन्यान्य अगणित विषयों का रोचक व सुगम वर्णन किया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की प्रायः सभी लीलाओं व प्रसंगों से यह पुराण भरा पड़ा है, लेकिन मैं यहाँ इसके ग्यारहवें स्कंध के ७वें, ८वें और ९वें अध्याय में वर्णित उस प्रसंग की चर्चा करूंगा जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने ‘अवधूतोपाख्यान’ द्वारा विभिन्न प्रकार के गुरुजन व उनसे प्राप्त होने वाली शिक्षाओं का वर्णन किया है। इसमें भगवान की उपासना करने वाले साधक को इन विशिष्ट गुरुओं से जो ज्ञान की बातें सीखने की सलाह दी गयी हैं, उनका महत्व हमारे गृहस्थ जीवन में भी कम नहीं है।

आइए जानते हैं कि अपने जीवन की साधना में हमें किससे क्या सीखना चाहिए-




१.जल : जल का स्वभाव स्वच्छ, मधुर, व पवित्र करने वाला है। गंगाजल की महिमा से तो सभी परिचित हैं। जल के गुणों से साधक को अपना व्यक्तित्व शुद्ध, कोमल, मधुरभाषी, व लोक-पावन बनाने की शिक्षा मिलती है। ऐसा कि उसका दर्शन, स्पर्श, अथवा नामोच्चार करने वाला भी पवित्र हो जाय।

२.पृथ्वी: पृथ्वी पर निवास करने वाले मनुष्य व अन्य जीव नाना प्रकार के उत्पात करते हैं; किन्तु वह सबकुछ धैर्य पूर्वक सहन करती है, कोई प्रतिशोध नहीं लेती। अतः पृथ्वी से धैर्यवान और क्षमाशील होने की शिक्षा मिलती है।

३.आकाश: इस दुनिया में आग लगने, पानी बरसने, अन्नादि उत्पन्न होने या नष्ट होने व प्राकृतिक आपदा इत्यादि से आकाश पूर्णतया अछूता और अखण्डित रहता है। इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा इस भौतिक जीवन से पृथक, असंपृक्त व अखण्डित रहती है।

४.अग्नि: अग्नि सभी प्रकार के पदार्थों को भस्म कर देती है; अर्थात् उनका भक्षण कर लेती है, किन्तु किसी पदार्थ के गुण-दोष से प्रभावित नहीं होती। इसी प्रकार एक सच्चे साधक को समस्त विषयों का उपभोग करते हुए भी अपने मन व इन्द्रियों को वश में रखते हुए उन विषयों के दोष ग्रहण नहीं करने चाहिए।

५.प्राणवायु: मात्र आहार की प्राप्ति से ही प्राणवायु संतुष्ट होकर अपना कार्य करती रहती है। इसी प्रकार एक सच्चे साधक को भी केवल उतने ही विषयों का भोग करना चाहिए जिससे मन संयमित रहे, बुद्धि में विकार न आये और मन चंचल न हो।

६.समुद्र: अपने भीतर अनेक रत्नों को छिपाये हुए अतल गहराइयों वाला समुद्र सदैव धीर-गम्भीर व शान्त रहता है। इसी प्रकार साधक को भी सदा प्रसन्न तथा गम्भीर (उश्रृंखल नहीं) रहना चाहिए। ज्वार-भाटे तथा उठती तरंगों से समुद्र की गम्भीरता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

७.चन्द्रमा: चन्द्रमा की कलाएं समय के क्रम से घटती बढ़ती रहती हैं; किन्तु चन्द्रमा का वास्तविक स्वरूप स्थिर रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक उसके शरीर की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती हैं; किन्तु आत्मा का स्वरूप अपरिवर्तित रहता है। मृत्यु होने पर सिर्फ़ शरीर का नाश होता है। आत्मा सदैव स्थिर रहती है।

८.सूर्य: सूर्य अपनी किरणों की ऊष्मा से समुद्र का जल अवशोषित करता है। ; किन्तु पुनः उसे पृथ्वी पर बरसा देता है। इसी प्रकार एक साधक को विषयों का भोग करने के बाद एक समय उनका त्याग कर देना चाहिए।

श्री मद् भागवत पुराण में १२ स्कंध हैं। उसमें पैर से लेकर घुटने तक पहला स्कंध, घुटने से लेकर कमर तक दूसरा, नाभि तीसरा, उदर चौथा, हृदय पाँचवाँ, बाहु सहित कंठ छठा, मुख सातवाँ, नेत्र आठवाँ, कपोल व भृकुटि नौवाँ , ब्रह्मरन्ध्र दसवाँ, मन ग्यारहवाँ तथा आत्मा को बारहवाँ स्कंध कहा गया है। इस प्रकार हमारा सम्पूर्ण शरीर ही भागवतमय है।


९.कपोत (कबूतर): अपने परिवार के बाकी सदस्यों को शिकारी के जाल में फँसा देखकर कबूतर स्वयं उस जाल में कूद जाता है, और अपना जीवन संकट में डाल देता है। इस कहानी से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जो व्यक्ति परिवार और विषयों में आसक्त हो जाता है, उसे अन्ततः अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं।

१०.पतंगा (कीट): आग की लौ से आकर्षित होकर पतंगा उसी में कूद पड़ता है और उसकी जान चली जाती है। इससे यह सीख मिलती है कि जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण खोकर मायामोह में लिप्त हो जाते हैं, उनका असमय अन्त हो जाता है।

११.मधुमक्खी: मधुमक्खी अत्यन्त परीश्रम से शहद का संचय करती है किन्तु उसका उपभोग प्रायः स्वयं नहीं कर पाती। बल्कि यह उसके लिए संकट भी आमन्त्रित करता है। इसीलिए सायंकाल या दूसरे दिन के लिए भिक्षा का संग्रह नहीं करना चाहिए।

१२.मृग: एक शिकारी द्वारा बजाये गये मधुर संगीत से मोहित होकर जिस प्रकार मृग उसके जाल में फँस जाता है, उसी प्रकार साधक भी विषयी संगीत से आकृष्ट होने पर माया-मोह में बँध जाता है।

१३.बालक: जिस प्रकार एक बालक का मन निष्कलुष व सच्चा होता है, स्वयं के मान-अपमान की चिन्ता से ग्रसित नहीं होता है; उसी प्रकार साधक को लोकजीवन से निर्लिप्त होकर अपनी आत्मा में ध्यानमग्न रहना चाहिए।

१४.मीन: काँटे में लगे हुए चारे (मांस के टुकड़े) के लोभ में पड़कर मछली अपने प्राण गँवा बैठती है। इसी प्रकार स्वाद एवं इन्द्रिय सुख का लोभी मनुष्य भी अनेक दुःख भोगता है। अतः साधक को अपनी इन्द्रियाँ वश में रखना चाहिए।

१५.पिंगला वेश्या: मिथिला की यह वेश्या किसी धनवान ग्राहक की आशा लेकर अपने घर के द्वार पर देर रात तक बैठी अत्यन्त दुःखी होती है; किन्तु जब इस आशा का त्याग कर वह भीतर चली जाती है तो चिन्तामुक्त होकर आराम से सो जाती है। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि आशा करना ही सबसे बड़े दुःख का कारण है और इसका त्याग ही सुख का स्रोत है।

१६.कुररी पक्षी: यह पक्षी जबतक मांस के टुकड़े को पकड़े रहता है, तबतक दूसरे पक्षी इसके ऊपर आक्रमण करते और चोंच मारते हैं। उस टुकड़े को नीचे गिरा देने के बाद ही इसे राहत मिलती है और संकट समाप्त होता है। इससे शिक्षा मिलती है कि अनावश्यक संचय/संग्रह करने से संकट का सामना करना पड़ता है।

१७.कुँवारी कन्या: घर में अकेली रह गयी कुँवारी कन्या जब अचानक आये अतिथियों के भोजन के लिए छिपाकर (ओखली में) धान कूट रही थी तो हाथ की चूड़ियाँ बजने लगीं। अतिथियों से इस कार्य को छिपाने के लिए उसे अपनी चूड़ियाँ तोड़नी पड़ीं, और हाथों में अन्ततः केवल एक-एक चूड़ियाँ रह गयीं।
यह कहानी बताती है कि साधक को सदैव अकेले ही रहना चाहिए, क्योंकि दो मनुष्यों के एक साथ रहने पर उनमें कलह होना अवश्यम्भावी है।

१८.मकड़ी: मकड़ी अपनी इच्छानुसार जाला बुनकर उसमें अपनी सुविधा से सहज विचरण करती रहती है, किन्तु उसमें उलझती नहीं है। इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें माया रूपी संसार में रहकर भी स्वतंत्र विचरण करते रहना चाहिए किन्तु इसमें उलझना नहीं चाहिए।

यद्यपि ये शिक्षाप्रद दृष्टांत भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अवधूतोपाख्यान में एक साधक के अनुपालनार्थ बताये गये थे, जो हजारो वर्ष पहले रचित पुराण में पाये जाते हैं; तथापि इनकी प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई है। बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति में भौतिक सुख के साधनों के पीछे भागते मनुष्य के लिए ये कथित सुख किसी मृगतृष्णा से कम नहीं हैं। इसका अन्त भी घोर निराशा, तनाव, मानसिक अवसाद, और यहाँ तक कि विक्षिप्तावस्था तक में हो रहा है। इसलिए सांसारिक विषयों से निर्लिप्तता, एवं त्याग व सन्तोष की सीख देते ये ‘गुरुजन’ हमें स्थाई सुख और शान्ति की राह दिखलाते हैं।

आपका क्या सोचना है?
(सिद्धार्थ)

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत शुक्रिया, इतनी प्रासंगिक पौराणिक जानकारी हम तक पहुंचाने के लिए.

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  2. अरे गदर पण्डिज्जी! हम दोनों मिल कर भाग्वत पुराण मण्डली बनाते हैं।
    नौकरी से ज्यादा कमायेंगे।
    बहुत सुन्दर लिखा!

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  3. अरे मंडली में हमें भी रख लें... ये पुस्तक तो मैंने भी पढ़ी है...
    एक कहानी में कपिलजी का भी कहीं नाम आता है (शायद चूड़ी वाली)... अगर मुझे ठीक-ठीक याद है तो?

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  4. वाह, इतनी शिक्षाप्रद जानकारी !भागवत पुराण सबसे ललित पुराण तो है ही आपने यह भी दिखाया कि यह कितनी उपयोगी जानकारियों का भी संग्रह ग्रन्थ है .मानना होगा कि आदि मनीषियों को प्रकृति का अच्छा ज्ञान था ,दत्तात्रेय ने भी पशु पक्षियों को गुरु मान कर शिक्षा ली थी .

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  5. ज्ञान जी बहुत बहुत आभार इसे पढवाने का , बहुत अच्छा लगा हर बात का एक अर्थ भी हे,
    आज तो सारे दिन की थकावट उतर गई आप की यह ज्ञान भरी लेख पढ कर.
    धन्यवाद

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  6. गलती सुधार ले मे गलती से सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी के स्थान पर ज्ञान जी लिख बेठा, माफ़ करे सिद्धार्थ जी

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  7. बहुत अच्छा कार्य कर रहें है आप ! शुभकामनाएं !

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