इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज के कला संकाय का प्रांगण मेरे जीवन की उपलब्धियों के लिए एक ग्रीन हाउस की तरह रहा है। ग्रामीण पृष्ठभूमि की स्कूली शिक्षा के बाद जब मैं स्नातक बनने इस प्रांगण में आया तबसे लेकर उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा एक राजपत्रित अधिकारी के रूप में चुने जाने तक की यात्रा का संवाहक यह प्रांगण ही रहा है। इसलिए इस परिसर से भावनात्मक लगाव स्वाभाविक है। इसीलिए बारह साल के अंतराल पर जब प्रयागराज में दूसरी बार तैनाती मिली तो मन में अतिरिक्त उत्साह भर गया।
कल मैंने योगासन-प्राणायाम-ध्यान के अपने दैनिक कार्यक्रम को प्रातःकालीन #साइकिल_से_सैर के शौक के साथ जोड़कर चलने की योजना बनायी। योग की चटाई और दरी-चादर लपेटकर मैंने साइकिल के पीछे दबाया और विश्वविद्यालय की ओर चल पड़ा। विज्ञान संकाय का मुख्य द्वार बंद मिला। एक आदमी ने बताया कि इसके भीतर का स्टेडियम दो-तीन साल पहले बन्द कर दिया गया है। मैंने साइकिल मोड़ी और यूनिवर्सिटी रोड पर चलता हुआ लाल पद्मधर की प्रतिमा वाले गेट से कला संकाय के परिसर में प्रवेश कर गया। 'गूगल मीट' पर ऑनलाइन योग-कक्षा प्रारम्भ होने का समय हो चुका था इसलिए मैं जल्दी में था।
परिसर के भीतर जाने के इस रास्ते पर लोहे की पाइप से ऐसी बाड़ लगी है जिसे पैदल ही पार किया जा सकता है। लेकिन सुबह के निर्जन सन्नाटे में एक किनारे ऊंघ रहे सिक्योरिटी गार्ड की नज़र बचाकर मैंने उस बाड़ के नीचे से आड़ा-तिरछा करके साइकिल निकाल ली। अब आसन बिछाने के लिए सर्वोत्तम स्थान चुनने के लिए समय नहीं था। मैंने दर्शनशास्त्र विभाग के सामने वाले लॉन में ही एक किनारे साइकिल खड़ी की और गोल्डमोहर के नीचे फौरन आसन बिछा लिया। जब मोबाइल एप्प पर मैंने लॉगिन किया तो योग-गुरु डॉ.आर.के.एस. राठौर मंत्रोच्चार आदि पूरा कराकर सूक्ष्म व्यायाम प्रारम्भ करा चुके थे। मैंने जैसे-तैसे उनकी रफ्तार से अपनी गति मिलाने का प्रयास तो किया लेकिन एक बाधा आ पड़ी। जिससे डरते थे वही बात हो गयी।
उस लॉन की घास और आवारा झाड़ियों की कटाई-छटाई हाल ही में हुई थी। जिसमें पलने वाले मच्छरों की खेप मानो खार खाए बैठी थी। मुझ अकिंचन को वहाँ पाकर वे सब मुझपर टूट ही पड़े। मैंने उमस भरी गर्मी को देखते हुए हाफ पैंट और छोटी बांह की वी-गले वाली हल्की टी-शर्ट पहन रखी थी। हवा का नामोनिशान नहीं था। लंबी-लंबी टांगों व सूंड़ वाले काले-काले मच्छरों ने मेरे कानों में संगीत सुनाते हुए ऐलानिया युद्ध शुरू कर दिया था। अब मुझे समझ में आया कि उस लॉन में मेरे अलावा उपस्थित जो एकमात्र सज्जन अखबार लेकर आये थे वे बेंच पर बैठने के बजाय अखबार टहलते हुए क्यों पढ़ रहे थे।
यहाँ बताता चलूँ कि आगरा में अपनी तैनाती होने पर अपने आवास के निकट जिस पार्क में मैंने योगासन का अभ्यास डॉ. राठौर के सान्निध्य में प्रारम्भ किया था उसी पार्क से वे अब भी हम जैसे बिछड़े हुए दूरस्थ लोगों का ऑनलाइन निर्देशन करते रहते हैं। पार्क में उनके प्रत्यक्ष फॉलोवर्स की संख्या तो अच्छी खासी है ही, उनकी निःशुल्क, निःस्वार्थ व निश्चित समय से प्रारंभ होने वाली निर्बाध व निरंतर कक्षा का ऑनलाइन लाभ उठाने वाले भी कम नहीं हैं। हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक "योग के प्रयोग" की चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ। कॅरोना के आतप से अपने-अपने घरों में बंद रहने को मजबूर लोगों के स्वास्थ्य को योग के माध्यम से अक्षुण्ण रखने का सफल प्रयास डॉक्टर साहब ने ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से प्रारंभ किया था जो बदस्तूर जारी है।
खैर, मच्छरों से युद्ध का मोर्चा सम्हालते हुए मैंने योगासन, प्राणायाम व ध्यान का क्रम पसीना बहाते हुए पूरा किया। इस दौरान मेरे हाथों जितने मच्छर काल-कवलित हुए उनकी संख्या गिनी जाती तो मुझे आसानी से “तीसमार खां” की उपाधि मिल जाती। लेकिन मेरा उस ओर कोई झुकाव नहीं था।
मैंने इस बीच यह भी देखा कि अनेक उम्रदराज स्त्री-पुरुष व किशोरवय छात्र-छात्राएं प्रांगण में घूमने-टहलने आते रहे। कोई पूजा के फूल तलाशता मिला तो कोई सपरिवार कुत्ता भी टहलाता-बहलाता दिखायी दिया। जब एक दो सुरक्षा कर्मी बाइक दनदनाते हुए चक्कर लगा गए तो मुझे ज्ञान हुआ कि अंदर आने का कोई रास्ता बिना बाड़ का भी होगा। अतः साइकिल सहित बाड़ पार करने का मेरा अपराधबोध जाता रहा।
मैंने अपना आसन समेटा और साइकिल पर सवार हो दो-तीन लक्ष्य निर्धारित किए - पहला, पूरे परिसर का चक्कर लगाकर यह देखना कि एक विद्यार्थी के रूप में जब मैंने पच्चीस साल पहले यह परिसर छोड़ा था तबसे अवस्थापना संबंधी क्या परिवर्तन हुए हैं; दूसरा, यह पता लगाना कि परिसर के भीतर आने और बाहर जाने के लिए बाधा रहित मार्ग किस गेट से जुड़ा है और तीसरा, परिसर की शुद्ध हवा व हरियाली का आनंद लेते हुए शांतिपूर्वक योगासन प्राणायाम व ध्यान के लिए आसन बिछाने का सबसे उपयुक्त स्थल क्या हो सकता है इसकी खोज करना। मैंने अपनी साइकिल से चक्कर लगाते हुए प्रायः सभी विभागों और कार्यालयों की देहरी देखी। बहुत कुछ बदला और बढ़ा हुआ देखा। अनेक भवन जो पहले खुले-खुले होते थे उन्हें बंद-बंद देखा। सुरक्षा पर अधिक जोर है शायद। विकलांग छात्रों की सुविधा के लिए बने रैंप देखे। मुख्य प्रशासनिक भवन के बगल में नया-नया बना एक विशाल भवन देखा जिसपर अभी कोई परिचयात्मक बोर्ड नहीं लगा है।
अंत में मैंने देखा वह विशाल बरगद का पेड़ जो शायद सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। एक किंवदंती बना यह वटवृक्ष हरियाली और ऊर्जा के अजस्र स्रोत के रूप में बेशक अभी भी भरपूर जवान है। इसकी घनी छाया पूरे मैदान पर फैली हुई थी जिसमें बैठे कुछ विद्यार्थियों को पढ़ते देखकर मेरा मन भावुक हो गया। मन में Quot Rami Tot Arbores (जितनी शाखाएं उतने वृक्ष) का ध्येय वाक्य बरबस कौंध उठा। साथ ही मुझे आसन बिछाने की उपयुक्त जगह भी दिख गयी। कुछ चित्र सहेजकर मैं पूर्वी गेट से बाहर निकल आया हूँ। अगले दिन की बात अगली किश्त में जारी...!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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