आज #साइकिल_से_सैर करते हुए मैं एक बार फिर चंद्रशेखर आजाद पार्क की ओर चला गया था। लेकिन हर बार यहाँ वही टटकापन महसूस होता है। जो लोग रात में देर तक जागते हैं और सबेरे देर तक सोते हैं वे बहुत कुछ मिस करते हैं। प्रकृति द्वारा सुबह सुबह मुफ्त की अमृत-वर्षा की जाती है। इसमें जागरूक लोग नहाते हैं। भोर का धुंधलका छटते ही सभी पेड़-पौधे उजाले की ऊर्जा लेकर भरपूर ऑक्सीजन का उत्पादन शुरू कर देते हैं। पक्षियों की चहचहाहट इसी बात की घोषणा तो करती है।
सूरज निकला चिड़ियाँ बोलीं, कलियों ने भी आँखें खोलीं।
आसमान में छाई लाली, हवा बही सुख देने वाली।
नन्हीं-नन्हीं किरणें आईं, फूल हँसे कलियाँ मुस्काईं।।
अल्फ्रेड पार्क के गेट पर पहुंचते ही महसूस होता है कि भीतर हरियाली और ताजगी का खजाना है जिसे लूटने के लिए तमाम स्त्री, पुरुष, बच्चे व बुजुर्ग जमा हो गए हैं। प्रकृति की व्यवस्था ऐसी है कि इन सबको शुद्ध हवा और विटामिन-डी के लिए कोई धक्का मुक्की नहीं करनी पड़ती। बस हाजिर होते ही प्रचुर मात्रा में यह सबको सुलभ हो जाता है।
लेकिन यहाँ सड़क पर लगे ठेले-खोमचे पर अंकुरित अनाज का दोना, खीरा-ककड़ी- फल सलाद, बेल शरबत, बन-मक्खन, चाय या नारियल पानी के लिए जरूर नंबर लगाना पड़ता है। मुझे इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ जब मैं एक ठेले पर जमा भीड़ के पास पहुँचा। यहाँ अंकुरित चने में मूली, टमाटर, चुकंदर, पुदीना, गाजर, आदि की कतरन तथा अनेक चटपटे मसाले व नमक मिलाकर बरगद के पत्ते पर परोसा जा रहा था। चम्मच के बजाय पत्ते का एक टुकड़ा ही इसका काम भी कर रहा था। उस दोने में नीबू के रस का उदारतापूर्वक प्रयोग विशेष आकर्षण का केंद्र था।
स्टील के दो बर्तनों में सामग्री तैयार करके उसे दोने में भरने के लिए दो लड़के लगातार हाथ चला रहे थे लेकिन ग्राहकों को कुछ प्रतीक्षा करनी ही पड़ रही थी। नोट पकड़े हाथ आगे बढ़े हुए परस्पर प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। कुछ लोग मोबाइल से क्यूआर कोड स्कैन करके डिजिटल भुगतान करने के बाद मोबाइल की स्क्रीन ही दिखा रहे थे। कई लोग अपने घर वालों के लिए तीन-तीन, चार-चार दोने पैक भी करा रहे थे। इसमें मेरे जैसे एकल दोने के ग्राहकों को लंबे धैर्य का परिचय देना पड़ रहा था।
मैंने इस प्रतीक्षा काल में आसपास की कुछ तस्वीरें उतार लीं। बहुत मोहक वातावरण दिखा मुझे। जब गेट के बाहर इतना अच्छा माहौल था तो भीतर की हरियाली से भरी पगडंडियों और रंग-बिरंगी क्यारियों से सजे टहल-पथ के क्या कहने। अपनी साइकिल लेकर मैं अंदर जा नहीं सकता था इसलिए अंदर जाते लोगों को ही देखकर संतोष करना पड़ा। आप भी इनका दर्शन लाभ लीजिए। इसका भौतिक लाभ तो तभी मिलेगा जब सुबह-सबेरे बिस्तर का मोह त्याग कर स्वयं सदेह पधारेंगे।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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