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गुरुवार, 14 जुलाई 2016

तकरोही और अमराई गाँव, इंदिरानगर

14.07.2016
तकरोही और अमराई गाँव, इंदिरानगर
आज की सुबह लखनऊ में हुई और साइकिल से सैर भी वहीं हो ली। इधर मेरे अपार्टमेंट में एक साथ तीन नयी साइकिलें आ गयी हैं। स्कूल, दफ्तर या दूसरे रोजगार को जाने के लिए नहीं बल्कि शौकिया चलाने या व्यायाम के लिए। मुझे आसानी से एक बढ़िया साइकिल उधार मिल गयी। भगवान करे यह रुझान और बढ़े, फूले-फले।
मुंशीपुलिया चौराहे से तकरोही के लिए विक्रम ऑटो वाले सवारियाँ ढोने में काफी व्यस्त रहते हैं। आज मैंने उसी रास्ते पर साइकिल बढ़ा दी। सुबह रास्ता सुनसान था। कुछ टहलने वाले लोग घरों से निकलकर आसपास के पार्कों की ओर जा रहे थे। सेक्टर-11 से होकर तकरोही मोड़ तक जाने वाली सड़क तो आवास विकास परिषद द्वारा विकसित इंदिरानगर योजना का भाग है। यह सड़क चौड़ी भी है और सरल रेखा की तरह सीधी है। यह चौराहों या तिराहों पर समकोण बनाती है। लेकिन पुराने बसे गाँव और अब भीड़ भरी बाजार बन चुके तकरोही की ओर मुड़ते ही सड़क टेढ़ी-मेढ़ी और पतली होती हुई ऊबड़-खाबड़ पथरीली गली में बदल जाती है। यहाँ सड़क के दोनो ओर पुराने जमाने की शक्ल वाली दुकानें हैं। घरेलू जरुरत के सामान, साड़ी-कपड़ा, लोहा, बर्तन, आटा-चक्की, तेल पेराई, मसाला पिसाई, रुई धुनाई, मोबाइल रिपेयर, चाय-पकौड़ी, दवा, आयुर्वेद, होमियोपैथी, लोहे के बॉक्स, आलमारी, एटीएम, बैंक, आदि सभी प्रकार की दुकाने कंधे से कंधा मिलाती दो-तीन सौ मीटर लंबे बाजार में अटी पड़ी हैं। इतनी सुबह अधिकांश दुकानें बंद थीं। केवल चायवाले और उनके बगल में पान और गुटखा की पुड़िया बेचने वाले धंधा शुरू कर चुके थे। हार्डवेयर की एक दुकान भी खुली थी जहाँ प्लम्बर और मिस्त्री जुटने वाले थे।
इस बाजार की सड़क पर हिचकोले खाने के बाद जब मैं आगे निकल गया तो बिना गढ्ढे वाली पिचरोड फिर मिल गयी। इसकी चौड़ाई तो ज्यादा नहीं थी लेकिन यह आसपास की जमीन से काफी ऊँची करके नयी बनायी गयी सड़क लगती थी। इसी बीच पीले रंग की एक ही शक्ल-सूरत की कई स्कूल वैन्स का काफिलानुमा मेरे पीछे से आया और आगे अलग-अलग गलियों में घुस गया। एक वैन पर जयपुरिया स्कूल लिखा हुआ था। इनके पीछे धूल का ऐसा गुबार उठा कि मुझे साइकिल रोककर नाक पर रुमाल की छननी लगानी पड़ी।
आगे बढ़ा तो इस सड़क पर भी "फ्रीहोल्ड प्लॉट उपलब्ध है" वाले अनेक साइनबोर्ड मोबाइल नंबर के साथ दिखने लगे। एक बोर्ड पर तो लिखा था - इन्वेस्टमेंट परपज़ के लिए भी संपर्क करें। यानि यदि आपने अपनी जरुरत से ज्यादा धन इकठ्ठा कर लिया है तो उसे यहाँ लगा दीजिए। उसके काला या सफेद होने के बारे में कुछ भी पूछे बिना आपको निवेश के लिए जमीन दे दी जाएगी।
मुझे इस सड़क पर पीपल और बरगद के दो घने पेड़ों ने बहुत आकर्षित किया। पीपल तो सड़क पर ही था - राहगीरों को रुककर सुस्ताने के लिए बेहद मुफ़ीद। इसकी तस्वीर लेते समय अचानक एक जवान सिर्फ जीन्स पहने नंगे बदन बगल के खेत से उचककर सड़क पर चढ़ आया जिसके हाथ में एक लीटर वाला इंजिन आयल का खाली डिब्बा था। वह स्वच्छता कार्यक्रम को ठेंगा दिखाता हुआ आया था और पूरे जोश में बाजार की ओर जा रहा था। पेड़ के नीचे ही स्कूली बच्चों को ले जाता एक बैटरी चालित रिक्शा भी दिखा जो पर्यावरण को धुँआ-रहित बनाने में बहुत योगदान कर सकता है। इसी रोड पर विक्रम-ऑटो वाले काला धुँआ उगलते बेखौफ़ चलते रहते हैं।
बरगद का पेड़ सड़क से बीस-पच्चीस मीटर हटकर एक खाली जमीन में था। यह अभी बहुत पुराना नहीं था लेकिन पत्तियां खूब हरी और मस्त छायादार थीं। हाल में वट-सावित्री की पूजा में सुहागिनों द्वारा इस पेड़ के तने में लपेटे गये रक्षासूत्र अभी भी कायम थे। लेकिन वहाँ से पवित्रता भाग खड़ी हुई थी। पेड़ के नीचे बरसात से उत्पन्न गन्दगी का बोलबाला तो था ही उसके तने के पास ही एक लड़का शौचक्रिया में मशगूल था। फिर भी इस सुन्दर पेड़ के साथ सेल्फी लेने का लोभसंवरण मैं नहीं कर सकता था। मैंने सोचा कि वापस लौटकर फोटो ले लूंगा, तबतक यह बच्चा निपट चुका होगा। लेकिन वापसी के समय भी एक दूसरे लड़के ने मैदान टेक-ओवर कर लिया था। लेकिन इस बार मैंने मोबाइल कैमरा खोल ही लिया।
मैं आगे अमराई गाँव तक गया था जहाँ रामदीन का पुरवा दिखा। उधर से लौटते समय कुछ घोषियों (दुग्ध व्यवसायी) के घर दिखे। वहाँ भैसों की बहुतायत थी, गायें कम थीं। एक लड़की गोबर निकाल रही थी और उसके घर की खुली छत पर छोटे-छोटे बच्चे नंगे होकर आधे भीगे हुए उछल-कूद कर रहे थे। उन्हें एक औरत ठीक से नहलाने के लिए पुकार रही थी लेकिन वे हाथ नहीं आ रहे थे। दृश्य बड़ा रोचक और नयनाभिराम था लेकिन फोटो लेने का विचार पैदा होने से पहले ही मैंने उनकी निजता का ख्याल करते हुए दबा दिया।
मुझे एक कॉमन बात सब जगह दिख रही है। पशुओं के बाड़े से गोबर साफ करने और उनकी देखभाल का काम प्रायः घर की लड़कियां या औरतें ही करती हैं। मर्दों ने चारा खरीद कर लाने, दूध दूहने और बेचने का काम अपने हाथ में ले रखा है। पता नहीं यह कार्य विभाजन कितना ठीक है या नहीं है। शिक्षा का अभाव भी इन घरों में साफ़ दिखता है।










(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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