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बुधवार, 6 जुलाई 2016

गजोधरपुर और कूड़ा प्रसंस्करण संयन्त्र

ग्रीप साहब के पुरवे की तंग गलियों और बजबजाती नालियों से सकुशल बाहर निकलकर मैं साइकिलिंग का कोटा पूरा करने के लिए पीएसी वाली सड़क पर चला गया। इस सड़क पर गोरा बाजार चौराहे से आगे बढ़ने पर दाहिनी ओर आई.टी.आई. के बालक और बालिकाओं के लिए अलग-अलग संस्थान हैं, इसी में एक कौशल विकास प्रशिक्षण का केंद्र भी है। इसके आगे सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों की आवासीय कॉलोनी है।
सड़क की बायीं ओर पुराने बने हुए प्रायः छोटे-छोटे मकान हैं। इस सड़क पर दोनों तरफ प्रत्येक पचास-सौ मीटर की दूरी पर इण्डिया मार्क-टू हैंडपंप दिखायी देते हैं जो सरकारी खर्च पर ही लगाये गए होंगे। यहाँ जलापूर्ति के लिए जलनिगम की पाइपलाइन भी बिछी है। एक नल तो ऐसा भी दिखा जिसमें दोनों सुविधाओं को जुगाड़ तकनीक से जोड़ दिया गया था। पानी के फव्वारे छोड़ता स्वचालित हैंडपंप का चित्र-विचत्र देखिए।
पीएसी गेट पर चाय, पकौड़ी, समोसे और जलेबी की दुकानों पर जवानों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। इससे आगे बढ़ा तो मुझे गोरखपुर वाले तिवारी जी याद गये जो पीएसी में ही काम करते हैं। उनसे मैं डेढ़ महीने पहले इसी सड़क पर उनके ढाबे पर मिला था।
तिवारी जी ने यह ढाबा अपने बेटे के लिए नया-नया खोला था। तब उन्होंने बताया था कि उनकी स्पेशलिटी नॉन-वेज डिश होगी। वे मटन, मुर्गा, मछली ऐसी स्वादिष्ट खिलाएंगे जैसी यहाँ से लेकर लखनऊ तक नहीं मिलेगी। एक पक्की दुकान के आगे छप्पर डालकर उसमें स्टील का चमचमाता काउंटर लगाया गया था, ग्राहकों के लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ सजायी गयी थीं और बड़े बड़े बर्तन खाना बनाने, रखने और परोसने के लिए लगाये गये थे। तिवारी जी का बेटा छः फुट का सुदर्शन, गोरा-चिट्टा, एक कुलीन नौजवान दिख रहा था। उसने बीए कर रखा था लेकिन बेरोजगारी से लड़ाई में पिता की इच्छानुसार ढाबा चलाने आ गया था। जीन्स और टी-शर्ट में इस आकर्षक युवक का नाम था-राजा। तब मुझे 'राजा रेस्टोरेंट' की सफलता पर जो संदेह हुआ था उसी की सच्चाई जानने की इच्छा मुझे आज हो गयी।
मैंने साइकिल वहीं ले जाकर खड़ी कर दी। सुबह-सुबह तिवारी जी नहीं मिले, लेकिन राजा मिल गया जो झाड़ू लगा रहा था - बरमूडा और बनियान पहने हुए पसीने से लथपथ। काउंटर पर कोई सामान नहीं था, न कोई बर्तन थे। कुर्सियाँ भी एक के ऊपर एक रखकर कोने में खड़ी की गयी थीं और प्लास्टिक की मेज उनके ऊपर चढ़ा दी गयी थी। गैस चूल्हा भी साफ करके किनारे रखा था। सारे बर्तन कहीं अंदर रखे होंगे। साफ दिख रहा था कि यह ढाबा ग्राहकों की किल्लत झेल रहा था। राजा बिना पूछे ही मेरे प्रश्नों को समझ गया। बताने लगा- यहाँ तक ग्राहक आते ही नहीं। गेट से थोड़ा दूर है न। जवान लोग वहीं खा लेते हैं। हमारा बहुत खाना नुकसान होने लगा। इसलिए अब आर्डर मिलता है तभी बनाते हैं। अब शहर के भीतर कोई जगह देख रहे हैं। यहाँ धंधा नहीं चल पा रहा है।
मुझे तो पहले ही पता था कि ये पूरब के पण्डित जी इस धंधे में फिट नहीं बैठते। मैंने थोड़ा अफ़सोस जाहिर किया और साइकिल वापस मोड़ ली।
मुझे अभी भी भरपूर साइकिल चलाने को नहीं मिली थी इसलिए मैं वापस लौटने के बजाय बायीं ओर निकलती सड़क पर मुड़ गया जिधर एक कारखाना जैसा कुछ दिख रहा था। नजदीक जाने पर पता चला कि यह कूड़े को ठिकाने लगाने का प्लांट है - अपशिष्ट प्रबंधन का उपक्रम। जरूर इसे सोनिया जी ने या उनके परिवार के किसी पूर्व सांसद ने रायबरेली को भेंट किया होगा। इस कारखाने का गेट खुला हुआ था तो मैं साइकिल लेकर अंदर चला गया। अंदर भी कोई आदमी नहीं दिखा। कुछ छुट्टा गायें जरूर मिलीं जो वहाँ लाये गये कूँड़े में मुँह मार रही थीं। इस समय कोई मशीन चालू नहीं थी। एक तरफ कूड़े का पहाड़ जमा था और दूसरी ओर एक सूखा तालाबनुमा निर्माण किया गया था जिसके किनारे पॉलीथीन की चादरों से ढके हुए थे। शायद इस कारखाने का उत्पाद इस गढ्ढे में इकठ्ठा किया जाता हो। मुझे पूछने की बहुत इच्छा थी लेकिन बताने के लिए वहाँ कोई था ही नहीं। मजबूरन मैंने फोटुएं खींचकर और कूड़े के साथ सेल्फ़ी लेकर काम चलाया।
इस प्लांट से आगे का गाँव है- गजोधरपुर। गाँव में घुसते ही एक मरियल कुत्ते ने मुझे देखा जो मेरी ओर आ रहा था। वह ठिठककर खड़ा हो गया। मैंने चेहरे पर हिम्मत का भाव बनाये रखा। उसने जाने क्या भांपकर अपना रास्ता बदल लिया और ऐसे जाने लगा जैसे मुझे देखा ही न हो। मैंने भी राहत की साँस ली।
इस गाँव में सोनिया जी ने सोलर स्ट्रीट लाइट लगवा रखी है। एक लड़के ने पूछने पर बताया- हाँ, जलती है लेकिन तीन-चार दिन से ख़राब है। मैंने पूछा इसे जलाता-बुझाता कौन है तो उसने बताया कि सब फैक्ट्री से ही कंट्रोल होता है। मैं उसका उत्तर समझे बिना ही आगे बढ़ गया।
आगे गाँव में प्रायः सभी मकान पक्के थे और अनेक घरों में दुधारू पशु पाले गये दिखे। वहाँ बाँस की कोठियां भी दिखी और कृषि यन्त्र भी। गाँव के भीतर जाने वाली सड़क एक घर के सामने जाकर समाप्त हो गयी। वहीं बरामदे की सीढ़ियों पर बैठी उनींदी आँखों वाली एक युवती ने बताया कि आगे रास्ता नहीं है। मैं वापस मुड़ा तो मेरी पीठ से उसकी खनकती हुई हँसी टकराई जो किसी को मेरे रास्ता भटकने के बारे में बता रही थी।


















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