रायबरेली में इस सप्ताहांत खूब बारिश हुई। रविवार को मैं लखनऊ चला गया था और 15 अगस्त को मैंने राष्ट्रध्वज की सलामी भी राजधानी में ही कर लिया। मंगलवार को ड्यूटी पर लौटा तो पता चला कि लगातार तीन दिनों की बारिश से रायबरेली और आसपास त्राहि-त्राहि मची है। कितने मकान गिर गये जिनमें दबकर कुछ जानें भी चली गयीं। कलेक्ट्रेट में झंडारोहण का कार्यक्रम डीएम साहब ने छाता लगाकर निपटाया था, और बहुत से कर्मचारी भींग गये थे। कुछ कार्यालयों में पानी भर जाने से झंडारोहण की खानापूर्ति भर हो पायी।
इस बरसात का असर रायबरेली के किनारे से बहने वाली सई नदी पर भी पड़ा है। आज सुबह साइकिल लेकर जब मैं शहीद स्मारक की ओर जाने वाले पैदल पुल के पास पहुँचा तो बिलकुल नया दृश्य देखने को मिला। मई महीने में प्रायः सूख कर छोटी पोखर में बदल चुकी सई नदी की तस्वीरें मैंने साइकिल से सैर की सृंखला में 6 मई को यहाँ पोस्ट की थी। उसकी तुलना में आज नदी के पाट खूब फैले हुए दिखे। पुल के एक ओर अभी भी जलकुम्भी का जाल नदी की सतह पर अपनी जकड़बंदी बनाये हुए था लेकिन दूसरी ओर विशाल जलराशि सबकुछ डुबाये दे रही थी।
धोबीघाट की जगह पहले से करीब 100 मीटर दूर जा पहुँची थी जहाँ आज भी कपड़े धोये जा रहे थे। लेकिन इस कीचड़ युक्त मटमैले पानी से सफ़ेद कपड़े भी धुलकर कैसे उजले हो जाते हैं यह पहेली अभी भी सुलझा नहीं पाया हूँ।
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