आज सुबह उठा तो आसमान में मानसून के बादल चौकड़ी भर रहे थे। साइकिल पर चढ़कर मैं 'गौरमेंट कॉलोनी' से निकलकर जेलरोड पर आया और कानपुर जाने वाले हाइवे पर चला गया। फिर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वार को पार करके राजघाट पुल पर पहुँच गया। यहाँ देखा कि मानसून की बारिश का एक फायदा सई नदी को भी मिल गया है। यह लगभग सूखने के कगार पर पहुँच चुकी थी लेकिन अब इसमें पानी का बहाव दिखायी दे रहा है। इस पुराने पुल के बगल में आदिकाल से बन रहे पुल का काम अपनी कच्छप गति को बदस्तूर मेंटेन करता हुआ दिखा। पिलर्स की उँचाई अभी उतनी ही है जितनी तीन महीना पहले थी। दूर नदी के किनारों पर हरी लत्तेदार सब्जियों की खेती लहलहाती दिखी जिनमें नेनुआ-तरोई के पीले फूल ऐसे चमक रहे थे जैसे साफ आसमान में तारे चमकते हैं।
ट्रकों व रोडवेज की बसों की पों-पों को पीछे छोड़कर मैं दरीबा तिराहे से बायें मुड़कर कठघर जाने वाली सड़क पर चलने लगा। चूँकि इस सड़क पर दूसरी बार जा रहा था इसलिए निगाह इसपर थी कि दो महीने पहले की गर्मी में जो देखा था वह अब मानसून की बरसात पाकर कैसे बदल गया है।
सबसे पहले वह टमाटर का खेत मिला जिसमें पौधे अपनी उम्र की ढलान पर पहुँच चुके थे। बाँस और रस्सी का सहारा मिलने से वे सीधे खड़े तो अब भी थे लेकिन उनकी हरियाली और चमक गायब थी। इक्का-दुक्का छोटे-छोटे लाल टमाटर दिख रहे थे लेकिन खेत में दूसरे खर-पतवार इतना बढ़ आये थे कि उनके बीच जाकर टमाटर तोड़ना जोख़िम भरा काम था। शायद इसी लिए इसके मालिक किसान ने इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया था। मनुष्य का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। चाहे जितनी देखभाल कर लो लेकिन इसपर उम्र के निशान पड़ते ही जाते हैं और जब इसकी उपादेयता कम होती जाती है तो देखभाल भी घटती जाती है। एकदिन अंतकाल भी आ ही जाता है। इसलिए जीवन में जबतक ऊर्जा है और कार्यक्षमता बनी हुई है तबतक उसका सर्वोत्तम सदुपयोग करते रहना चाहिए।
आगे सीताराम का पुरवा आया जहाँ के उस छोटे से पेड़ में अभी भी कुछ कटहल लटक रहे थे। दुकान की भठ्ठी पर समोसे की चटनी तैयार कर रही महिला से मैंने चाय मांगी तो उसने थोड़ा समय मांगा। मैं थोड़ी देर रुका लेकिन जब महसूस हुआ कि चाय के चक्कर में ज्यादा समय लग सकता है तो मैं वापस चलकर उस आम के बाग में चला गया जिसकी पिछली बार बौर देखकर गया था।
वहाँ एक आदमी सुबह इकठ्ठा किये गये पेड़ से टपके आमों को धुलकर प्लास्टिक के कार्टन में सजा रहा था। आम का आकार अपेक्षाकृत छोटा देखकर मैंने कारण पूछा तो वह बोला कि भरपूर पानी नहीं मिल पाया पेड़ों को। ट्यूबवेल के पानी से वह बात नहीं बनती जो बारिश की उन फुहारों से जो पेड़ के ऊपर पड़ती हैं। मैंने पेड़ में पके आमों में से अपने हाथ से छांटकर कुछ आम अलग किया लेकिन उसे ले जाने के लिए कोई झोला या पॉलीथीन न होने के कारण निराश होने वाला ही था तभी एक पन्नी जमीन पर पड़ी मिल गयी। लड़के ने उसे धुलकर प्रयोग के लायक बनाया जिसमें बमुश्किल दो किलो आम अट सके।
वापस आते हुए मैं उसी टमाटर वाले खेत के सामने नयी-नयी खुली दुकान पर रुका और अदरक वाली चाय बनवाकर पी; साथ में मठरी भी जिसे यहाँ नमकपारा कहते हैं। पास के खेत में बोयी गयी ऊड़द की फसल ख़राब हो गयी थी। चायवाले ने बताया कि पानी नहीं मिला तो कीड़े लग गये। इसी के साथ जोन्हरी (मक्का) भी बोयी गयी थी जो जानवरों के लिए चारे के काम आयी।
चाय पीकर मैंने उसे दस रुपये थमाये और उससे एक मजबूत पॉलीथीन लेकर आम को सुरक्षित कर लिया। इसके बाद वापस शहर में आते ही स्कूल जाते बच्चों और शिक्षक-शिक्षिकाओं की चहल-पहल बढ़ती दिखी। एक बच्ची तेजी से साइकिल पर पैडल मारते मेरे पीछे से आगे निकल गयी। उसके कैरियर पर भारी-भरकम बस्ता लदा हुआ था जो एक तरफ लटकता जा रहा था। उसकी गति सामान्य से अधिक तेज थी। मुझे यह बताना जरुरी लगा कि उसे बस्ता ठीक से दबा लेना चाहिए। मैं अपनी गति बढ़ाकर उसके पीछे गया और बोला- बेटी, तुम्हारा बैग गिरने वाला है। उसने अपना सिर हिलाकर बताया कि यह नहीं गिरेगा और एक हाथ से बस्ते को छूकर आश्वस्त भी हो ली। उसे स्कूल के लिए शायद देर हो रही थी।
थोड़ी दूर चलने के बाद एक झटके से बस्ता नीचे लटक गया तो वह रुकी। मैंने अपना चेहरा दूसरी ओर किया और आगे बढ़ गया। घर आकर ताजी कटी दशहरी का लुत्फ़ लेते हुए आपको हाल बता रहा हूँ।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
www.satyarthmitra.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)