5 मई 2016
सीताराम पुर, रायबरेली #साईकिल_से_सैर
आज सैर पर निकलने को हुए तो साइकिल ने टोका - रोज एक ही रस्ते जाने पर बोर नहीं होते? मैंने तड़ से उसका मूड ताड़ लिया और कानपुर जाने वाले हाइवे की ओर चल दिया। मेरे घर के पास रायबरेली से इलाहाबाद जाने वाली सड़क पर है 'मामा चौराहा' जहाँ से कानपुर के लिए बाईपास रोड निकलती है। इसी बाईपास पर जिला-जेल है और स्टेडियम भी। एक स्पोर्ट्स हॉस्टल भी है SAI का जिसके लॉन में कुछ बुजुर्ग गोल घेरा बनाकर बैठे दिखे। वे योगासन- प्राणायाम आदि करने के बाद ताली बजा बजाकर जोर जोर से हँसने का व्यायाम कर रहे थे। शहर के असंख्य बूढ़े और जवान इस सड़क पर स्टेडियम के लिए आते-जाते दिखे। कुछ सपत्नीक तो कुछ अकेले ही। सुबह की ताजी हवा फेफड़ों में भर लेने की होड़ लगी हो जैसे। मैंने ललचायी नजरों से गेट के भीतर झाँका जहाँ मेरे साथी बैडमिंटन खेल रहे होंगे। लेकिन यह सोचकर कि वे चारो ओर से हवा को बंद करके खेल रहे होंगे मैंने तुरन्त अपने रास्ते पर आगे बढ़ लेना मुनासिब समझा।
सीताराम पुर, रायबरेली #साईकिल_से_सैर
आज सैर पर निकलने को हुए तो साइकिल ने टोका - रोज एक ही रस्ते जाने पर बोर नहीं होते? मैंने तड़ से उसका मूड ताड़ लिया और कानपुर जाने वाले हाइवे की ओर चल दिया। मेरे घर के पास रायबरेली से इलाहाबाद जाने वाली सड़क पर है 'मामा चौराहा' जहाँ से कानपुर के लिए बाईपास रोड निकलती है। इसी बाईपास पर जिला-जेल है और स्टेडियम भी। एक स्पोर्ट्स हॉस्टल भी है SAI का जिसके लॉन में कुछ बुजुर्ग गोल घेरा बनाकर बैठे दिखे। वे योगासन- प्राणायाम आदि करने के बाद ताली बजा बजाकर जोर जोर से हँसने का व्यायाम कर रहे थे। शहर के असंख्य बूढ़े और जवान इस सड़क पर स्टेडियम के लिए आते-जाते दिखे। कुछ सपत्नीक तो कुछ अकेले ही। सुबह की ताजी हवा फेफड़ों में भर लेने की होड़ लगी हो जैसे। मैंने ललचायी नजरों से गेट के भीतर झाँका जहाँ मेरे साथी बैडमिंटन खेल रहे होंगे। लेकिन यह सोचकर कि वे चारो ओर से हवा को बंद करके खेल रहे होंगे मैंने तुरन्त अपने रास्ते पर आगे बढ़ लेना मुनासिब समझा।
बसावट के आखिरी छोर पर बने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वार को पार करके राजघाट नामक संकरे पुल तक पहुँच गया जिसके नीचे से सई नदी गंदे नाले की तरह बहती दिखी। इसके बगल में नया पुल बनाने की चर्चा तीन साल से सुन रहा हूँ लेकिन अभी मिट्टी के ऊपर पिलर के लिए गाड़ी गयी जंग लगी सरिया ही दिख रही है। पुल के दूसरी बगल में धोबी घाट पर जरूर रौनक दिखी। इस पुल से आगे बढ़ा तो आगे-पीछे से ट्रकों और दूसरी भारी गाड़ियों की पों-पों से मेरा उत्साह ठंडा पड़ने लगा। आँखो में किरकिरी घुसी तो किनारे रुककर उसकी सफाई करनी पड़ी। फिर भी हिम्मत करके आगे बढ़ने लगा तभी दरीबा तिराहे से एक पतली सड़क डलमऊ के लिए निकलती दिखी। मैंने चट से उसे पकड़ लिया। इसके बाद तो मेरे आनंद की सीमा न रही।
इस ग्रामीण सड़क पर मेरी मुलाकात नीम, आम, पीपल, आदि के पुराने वृक्षों से हुई जिनकी घनी डालियाँ सड़क को ढके जा रही थीं। दोनो और के खेतों में सब्जियों की हरी-भरी फसल लगी हुई थी। पिपरमिंट के खेत भी थे और उड़द व टमाटर के भी। कुछ खेत खाली थे जिनसे हल ही में गेहूं काटा गया था। आम का बाग़ भी दिखा जिसमे टिकोरे दूर से चमक रहे थे और उनकी रखवाली के लिए मड़ई डाली जा चुकी थी। एक खेत में टमाटर के पौधों को सहारा देने के लिए बाँस की ऐसी बाड़ लगायी गयी थी कि मैं बरबस उसके नजदीक जा पहुंचा। हर पौधे को जूट की सुतली से लपेटकर ऊपर बॉस की बनी क्षैतिज लड़ी से जोड़ दिया गया था। पौधे यूँ सीधे होकर चहक रहे थे जैसे कोई छोटा बच्चा अपने पिता की अंगुली पकड़कर उछल रहा हो। मन हुआ कि इसकी वीडियो बनाऊँ लेकिन एक फोटो लेकर ही आगे बढ़ गया।
आगे एक ट्यूब वेल से मोटी धार में पानी निकल रहा था जो किसी सब्जी की सिंचाई कर रहा था। मन हुआ पानी की धार को अंजुरी में भर-भरकर चेहरे पर छपकार लूँ लेकिन फिर टाल गया। वहीं से दस कदम पर एक चाय की दुकान मिली। मैंने अपनी टू-ह्वीलर गाड़ी खड़ी की और अदरक वाली चाय का आर्डर देकर बेंच पर बैठ गया। भठ्ठी पर एक बड़ी सी कड़ाही चढ़ी हुई थी और समोसे में भरने के लिए आलू को मसाले के साथ भुना जा रहा था।
दुकान की गुमटी के ऊपर नज़र गयी तो मोबाइल कैमरा अपने आप हरकत में आ गया। एक छोटे से पेड़ में इतने अधिक कटहल लटक रहे थे कि मुझे पेड़ की उम्र पूछनी पड़ी। ट्यूबवेल के पानी से बाल्टी भर-भरकर पेड़ की जड़ में उड़ेल रहे आदमी ने बताया कि यह अभी 6-7 साल का ही हुआ है। मेरे सामने यकबयक अल्पवयस्क लड़कियों की शादी हो जाने और जल्दी ही माँ बन जाने की तस्वीर घूम गयी। ग्रामीण जन इन पेड़-पौधों से यूँ भी प्रेरित हो सकते हैं क्या? लेकिन मैंने इस विचार को तुरंत मटिया दिया और आपको यह सब हाल बताने के लिए नोटपैड खोलकर रूरल स्थान पर डिजिटल हो लिया।
इस बीच प्लास्टिक की पंचामृत बांटने वाली गिलास में अदरक वाली चाय आ गयी। मैंने उससे शीशे का गिलास पूछा तो बोला कि यहाँ यही चलता है। मैंने बताना चाहा कि यह सेहत को नुकसान पहुँचाता है तो उसका चेहरा यह भाव बनाकर चला गया कि बड़े आये ज्ञान बांटने; पांच रुपल्ली में बड़की गिलास भर चाय, वह भी अदरक वाली चाहिए! मैंने उसी प्लास्टिक की चुस्की ली तो चाय और अदरक का स्वाद प्रधान था।
मैंने चाय पीकर नोटपैड बंद किया और वापसी यात्रा प्रारम्भ हुई। राजघाट पुल पार करते ही घोड़े से जुते हुए एक ठेले में पूरा भरकर हरा कटहल जाता मिला और बच्चों को भरकर ले जाते स्कूली रिक्शे तो एक के बाद एक मिलते गए।
इस समय सड़क पर बड़ी संख्या में कामकाजी महिलाएं दिखीं जिनमें अधिकांश सरकारी प्राइमरी स्कूलों की शिक्षिकाएँ थी। इस सकारात्मक आविर्भाव के बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। अभी के लिए बस इतना ही। धन्यवाद।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
www.satyarthmitra.com
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