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शुक्रवार, 13 मई 2016

रायबरेली के लोक उद्यम भी बदहाल हैं...

साइकिल_से_सैर
आज तीन दिन के ब्रेक के बाद जब साइकिल से सैर की बारी आयी तो बाहर निकलने पर ध्यान आया कि आज मंगलवार है, बजरंग बली का दिन जिनके नाम भक्तगण मंगल व्रत रखते हैं और आज मंदिरों में विशेष पूजा और दर्शन की भीड़ रहती है। मैंने भी छात्र-जीवन में पूरी पाबन्दी से हनुमान जी का व्रत किया है। अभी भी नित्य पूजा की शुरुआत हनुमत वंदन से ही करता हूँ। अस्तु मैंने साइकिल का रुख उस और मोड़ दिया जिधर रायबरेली का सबसे प्रसिद्ध हनुमान मंदिर है।
गोरा बाजार चौराहे से फिरोज गांधी नगर की सड़क पर आगे बढ़ा तो मेरे बगल से एक स्कूल-बस धूल उड़ाते हुए गुजरी। नाक में धूल न घुसे इसलिए मैंने थोड़ी देर साँस खींचना स्थगित कर दिया। लेकिन कितनी देर? धूल का गुबार बैठने से पहले ही साँस लेनी पड़ी। बस आगे जाकर रुकी और बच्चों को बैठाने लगी। मैंने सोचा इसके आगे निकल जाऊँ तभी धूल की नई किश्त थमाते हुई बस फिर चल पड़ी। तीन बार रुक-रुककर इसने बच्चे बैठाये और मुझे धूल से नहलाती रही। चौथी बार रुकी तो मैंने अपनी गति बढ़ाकर इसे पार कर लेने में सफलता पा ली। तबतक सड़क परिवर्तित होकर गली बन चुकी थी यानि बस की धूल से छुटकारा मिल चुका था। लेकिन तभी एक घर का दरवाजा खुला और अंदर से झाड़ू लगाते आते लड़के ने घर का सारा बहारन सींक वाली झाड़ू के जोर से सड़क की ओर उछाल दिया। गनीमत है कि मैं उस कूड़े की बौछार का सीधा निशाना नहीं बना। सिर्फ कुछ धूल ही मेरे हिस्से में आयी। इसके आगे कई दरवाजों से झाड़ू लगाते धूल उड़ाते पुरुष या स्त्रियां दिखीं जिन्हें पीछे छोड़ मैं सुल्तानपुर जाने वाले हाइवे पर निकल आया।
रेलवे क्रासिंग पर पहुँचते-पहुँचते मुझे चार-पाँच भारी भरकम ट्रकों ने पार किया। मैं सोच ही रहा था कि हनुमान जी के कारण मुझे आज धूल-प्रधान सैर करनी पड़ रही है तभी क्रासिंग का बैरियर गिर गया और सभी ट्रकें खड़ी हो गयीं। मैंने साइकिल झुकाकर बैरियर पार किया और दोनों ओर खड़ी बड़ी गाड़ियों को टाटा बॉय बॉय करते हुए साइकिल भवानी पेपर मिल की ओर जाने वाली सड़क पर मोड़ ली जिसके प्रांगण में काले संगमरमर वाले हनुमान जी का मंदिर है।
इस सड़क की एक ओर डेढ़-दो साल से बंद पड़ी पेपर मिल है तो दूसरी ओर दसियों साल पहले बंद हो चुकी आईटीआई का विशाल प्रांगण है। टेलीफोन बनाने वाली यह पब्लिक सेक्टर कंपनी जिस रूप में यहाँ पड़ी हुई है वह सरकारी नौकरशाही के हाथों में उद्योग-धंधों का क्या हश्र होता है इसका जीता-जागता नमूना है। यहाँ करदाता के पैसे से जुटायी गयी भारी पूंजी का निवेश करने के बाद उत्पादन को बाजार की मांग के अनुसार बनाये रखने तथा कंपनी को लाभ दिलाने का लक्ष्य प्रायः किसी के मन को प्रेरित नहीं करता। संचार क्रांति के इस युग में इसी सेक्टर से जुड़ी इतनी बड़ी कंपनी पर यूँ ताला लग जाना यह बताता है कि सरकारी क्षेत्र में भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता किस स्तर तक व्याप्त है और उत्तरदायित्व की भावना किस हद तक नदारद है। अलबत्ता यहाँ मजदूर संघ का ऑफिस (INTUC) अभी भी विद्यमान है जो कर्मचारियों के वेतन भत्तों के लिए धरना आदि देता रहता है, लेकिन कम्पनी को दुबारा चलाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास किसी भी स्तर पर नहीं दिखायी देता।
आईटीआई का विस्तृत प्रांगण खूब हरा-भरा है जिसमें नीम, पीपल, जामुन, आम आदि के विशाल पेड़ हैं। ऊँची चारदीवारी से घिरे कारखाने के आसपास कर्मचारियों की आवासीय कॉलोनी भी है जिसे दूरभाष नगर कहा जाता है। मैं पेपर मिल के गेट से आगे बढ़कर अगले मोड़ तक पहुंचा तो दायें बायें कुछ गरीब परिवारों के कच्चे मकान दिखे जिनके बाहर स्त्रियां सरकारी नल पर कपड़ा धुल रही थीं और प्लास्टिक के डिब्बों में पानी भर रही थीं। बगल में ही एक बच्चा शौचकर्म में लिप्त था जो दूसरे बच्चों को साइकिल के पुराने टायर से खेलते हुए देख रहा था। नुक्कड़ के दूसरी ओर चाय की दुकान पर दूध उबल रहा था। मुझे एकबारगी मक्खियों से बात करने वाली विद्या बालन जी की याद आ गयी और भारत सरकार की ओडीएफ गाँव (Open Defecation Free Village) की महत्वाकांक्षी परिकल्पना पर तरस भी आने लगी। मैं वहीं से लौट आया।
वापसी करते हुए मैंने साइकिल रोककर मंदिर के सामने जाकर हनुमान जी को प्रणाम निवेदित किया। बिना स्नान किये अंदर जाकर दर्शन करना ठीक नहीं था। इसके बाद मैंने बंद पड़ी पेपर मिल के अलावा भारत सरकार के दो अन्य संस्थानों की भी तस्वीरें लीं जो आईटीआई के अनुपयोगी भवनों को किराये पर लेकर चलाये जा रहे हैं। इनमें एक है राष्ट्रीय औषधि अनुसंधान व शिक्षण संस्थान (National Institute of Pharmaceutical Education and Research) और दूसरा है राष्ट्रीय दुर्घटना अनुसन्धान व विश्लेषण संस्थान (National Centre for Vehicle Research and Safety-Accident Data Analysis Centre.)
रायबरेली में इतने महत्वपूर्ण संस्थानों की उपस्थिति के बारे में मुझे आज से पहले पता ही नहीं था। यहीं एक चौकीदार ने बताया कि राजीव गांधी पेट्रोलियम रिसर्च इंस्टिट्यूट भी आईटीआई के भवन में ही किराया देकर चल रहा है। लगता है इन सब के बारे में विस्तार से जानने के लिए मुझे कई बार इधर आना चाहिए। लेकिन भारी वाहनों से उड़ती-पड़ती रास्ते की धूल का क्या करूँ? लौटते हुए चेहरे पर रूमाल बांधकर आ तो गया लेकिन साइकिल से सैर का असली उद्देश्य तो साफ-सुथरी ऑक्सीजन वाली हवा में साँस लेते हुए शारीरिक व्यायाम करना है न!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
www.satyarthmitra.com

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