सेवानिवृत्त कर्मचारी की पेंशन शुरू करने के लिए जो गवाही होती है उसी के लिए नरेन्द्र जी मेरे पास दफ़्तर में आये। सरकारी काम खत्म होने के बाद मैंने उनसे पूछ लिया - जीवन भर अध्यापक के तौर पर बच्चों से बातें करने के बाद सेवानिवृत्ति की शांति कैसे कटती है? बोले – मैं थोड़ा-बहुत लिखने का शौक रखता हूँ। कवि-सम्मेलनों में बुलाया जाता हूँ। उसके लिए लगातार रचनायें तैयार करने और समानधर्मी मित्रों के साथ सुनने-सुनाने में समय कटता रहता है।
मैंने जब बताया कि कुछ लिखने पढ़ने का शौक मैं भी रखता हूँ तो उन्होंने मुझसे पूछकर बाहर खड़े अपने साथी को भी अन्दर बुला लिया। फिर उन्होंने बताया कि उनकी एक साहित्यिक मंडली है जो नियमित अन्तराल पर कविगोष्ठी करती रहती है। इसमें “तरही मुशायरा” भी किया जाता है। मैंने पहले कहीं यह शब्द सुना तो था लेकिन मेरे लिए यह अभी भी अबूझ पहेली सा था। सो मैंने पूछ लिया कि इसमें दरअसल होता क्या है? उन्होंने बताया कि हम सबको एक लाइन दे देते हैं जिसे ग़जल के मक्ते में प्रयोग करके पूरी ग़जल कहनी होती है। “अच्छा, तो इस बार आप लोग किस लाइन पर ग़जल कह रहे हैं?”, मैंने पूछा।
“कोंख में धरती के सोना है बहुत” । मुझे यह लाइन सुनते ही संत शोभन सरकार के सपनों का स्वर्णकोष याद आ गया जिसकी खुदाई का कार्यक्रम बहुत चर्चा में रहा है। पुरातत्व विभाग वाले अब अपना काम समेटने लगे हैं लेकिन स्वर्णकोष है कि बाहर आने का नाम नहीं ले रहा। लगता है यह लाइन तब तय की गयी होगी जब देश की सारी मीडिया इस तमाशे को पीपली लाइव बनाकर उन्नाव जिले के उस डोंडियाखेड़ा गाँव में जम चुकी थी।
बहरहाल फुरसतिया जी के शब्दों में कहें तो इस लाइन को लेकर बहुत सी तुकबन्दी मेरे दिमाग में खदबदाती रही और आज सबकुछ उफनकर बाहर आ गया है। अब जब यह बाहर आ ही गया है तो आपसब के लिए पेश भी कर देता हूँ:
कोंख में धरती के सोना है बहुत |
खोजने का हुनर होना है बहुत |
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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आपकी काव्य प्रतिभा को को नमन -पुनः पुनरपि !
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण लाईनें बन पडी हैं !
एक वैदिक ऋचा की शुरुआत है -
सत्य का मुंह सोने से ढका हुआ हैं
सो आज सत्य भी अप्राप्य है -सोना की चमक तो है पर वो भी मिलता नहीं है !
कई शेर अच्छे बने हैं।
जवाब देंहटाएंचकाचक है तरही गजल।
जवाब देंहटाएंतरही मुशायरा के बारे में जब भी पढ़ता हूं मुझे अनायास तहरी की याद आ जाती है। तहरी मतलब खिचड़ी घराने का हल्का भोजन जिसको बनाने में चावल के अलावा मौसमी सब्जियां -आलू,मटर, प्याज,गोभी,लौकी आदि डालकर बनाया जाता है।
लगे हाथ सोचते हैं हम भी कुछ योगदान दे दें इस तरही मुशायरे में।
पटाखे गुमसुम रहे साल भर अकेले,
अब दीवाली पर फ़ड़फ़ड़ायेंगे बहुत।
मंहगाई की करेंगे ये ऐसी-तैसी मियां,
खिलखिलायेंगे, हल्ला मचायेंगे बहुत।
मिठाइयां की मांग बढ़ी है दीवाली पर,
हलवाई खोये में आलू मिलायेंगे बहुत।
लईया, खील, गट्टा चमक रहे हैं मजे से,
सब दीवाली में मस्ती मनायेंगे बहुत।
प्याज को फ़िर टमाटर ने पटक ही दिया,
अभी तक तो इतरा रहा था उचकता बहुत।
ए के सैंतालीस की क्या ज़रूरत है अब ,
हटाएंकत्ल-ओ-गारद को,कनपुरिया-कट्टा है बहुत !
जवाब देंहटाएंसुंदर...दिवाली की शुभकामनाएं...
धरा मानव से कह रही है...
दोनों ओर प्रेम पलता है...
आप को पावन पर्व दिवाली की ढेरों शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंआप की ये सुंदर रचना आने वाले सौमवार यानी 04/11/2013 को नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है... आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित है...
सूचनार्थ।
धरा मानव से कह रही है...
दोनों ओर प्रेम पलता है...
धन्यवाद।
हटाएंक्यों शराबी हो रहा है आदमी
जवाब देंहटाएंइसमें पाना कम है खोना है बहुत
सरहदों पर जागता था यह शहीद
अब लिटा दो इसको सोना है बहुत
गहरे भाव , शानदार रचना !!
खूबसूरत ग़ज़ल बन गई.. वाह!
जवाब देंहटाएंदीपावली की शुभकामनाएँ..
www.satyarthmitra.com के लिए बधाई !
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