आज इतवार की सुबह अखबार खोलकर लखनऊ की स्थानीय खबरों का जायजा लेते हुए मन दुखी हो गया। राजनीति की खबरें तो निराशाजनक हैं ही लेकिन आज अपने समाज में औरत की जो तस्वीर अखबारों से उभरती है वह मन को अशान्त कर देती है। एक सांसद की डॉक्टर पत्नी द्वारा अपनी नौकरानी पर बरती गयी क्रूरता की खबरें दिल दहलाने वाली तो हैं ही; लेकिन यह मुख-पृष्ठ पर इसलिए छपी है कि इसमें एक ‘माननीय’ का नाम है। सच्चाई यह है कि अखबार के भीतरी पन्नों पर स्थानीय स्तर पर घटित होने वाली इस तरह की घटनाओं की खबरें रोज ही छपती रहती है।
दैनिक जागरण के इस भीतरी पृष्ठ की बानगी देखिए। विज्ञापनों के अतिरिक्त इसमें कुल छः खबरे छपी हैं जिसमें तीन समाचार की मोटे शीर्षक वाले हैं: १- गरीबी से तंग विधवा ने दो बच्चों संग दी जान। २- विवाहिता ने बच्चियों के साथ दी जान ३-छात्रा से दुष्कर्म के बाद गला दबाकर हत्या।
इन तीनों घटनाओं में जिन औरतों की जान गयी उनकी पीड़ा भी किसी निर्भया से कम नहीं है। लेकिन इनका उल्लेख एक अखबारी कतरन और लोकल थाने की डायरी में होकर रह जाएगा। कल किसी और की बारी आ जाएगी। अकाल मृत्यु की शिकार ये औरतें हमारे समाज के चरित्र के बारे में बहुत कुछ बताती हैं। (पूरी खबर पढ़ने के लिए चित्रों पर क्लिक करें।)
पहले मामले में गरीबी का मुकाबला नहीं कर पाने से उसके पति ने आत्महत्या कर ली थी और अपनी पत्नी और बच्चों को बेसहारा छोड़ गया था। इस समाज और सरकारी तंत्र को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा और दो महीने ठोकर खाने के बाद अन्ततः उसे भी अपने बच्चों के साथ इस निर्मम दुनिया को छोड़ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं सूझा। आत्महत्या का किसी भी प्रकार से समर्थन या महिमा मंडन नहीं किया जा सकता; लेकिन इस सैद्धान्तिक बात के साथ हमारा विमर्श पूरा नहीं हो जाता। क्या ऐसी परिस्थितियों से निजात दिलाने की कोई मुकम्मल व्यवस्था हमारी सरकारें नहीं कर सकती। क्या हमारा समाज ऐसे बेसहारा महिलाओं के लिए कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं दे सकता? शायद हम अभी इतना सभ्य नहीं हो पाये हैं।
दूसरे मामले में यौन कुंठा से ग्रस्त दो लड़कों ने उस किशोरी से दुष्कर्म किया और उसकी हत्या भी कर दी। हो सकता है पुलिस उन्हें पकड़ ले और जेल में भी डाल दे। लेकिन इसकी गारंटी तो फिर भी नहीं रही कि अगले दिन यह बीभत्स घटना हमारे या आपके साथ नहीं हो सकती। फिर भी हम क्यों सुस्त पड़े हैं? क्यों आज भी ऐसे वहशी बेधड़क निडर होकर यह सब कर जाते हैं? हमने बेहद कमजोर सामाजिक सुरक्षा का तंत्र बना रखा है। शायद ऐसा कोई तंत्र है ही नहीं।
तीसरे मामले पर दहेज से संबंधित होने का संदेह व्यक्त किया गया है। दहेज हत्या की घटनाएं भी बदस्तूर जारी हैं। इक्का-दुक्का नहीं, थोक के भाव से बहुएं जलायी जा रही हैं, शादी के तीन-चार साल बाद तक भी प्रताड़ना सहते हुए जान गँवाने का सिलसिला थम नहीं रहा। अब इसे अखबार के भीतरी पन्नों में छोटी सी जगह कभी-कभार मिल जाती है। आम जनता कभी इससे विचलित नहीं होती। यह घटना बस एक छोटी सी अखबारी कतरन बनके रह जाती है जो उस अभागिन के मायके वाले कुछ दिनों तक सम्हाल कर रखते हैं।
आखिर हम कैसे समाज का हिस्सा बनकर रह रहे हैं? जैसा चरित्र इस समाज का है वैसा इसे मिला कहाँ से? हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे सामाजिक रीति-रिवाज, हमारे सांस्कृतिक मूल्य, हमारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, और सबसे बढ़कर इंटरनेट का निर्बाध प्रयोग जहाँ सबसे ज्यादा देखी जाने वाली सामग्री पोर्नोग्राफी है। इन सभी पहलुओं पर गंभीर चिन्तन करने और प्रभावी कदम उठाने के लिए क्या बाहर से कोई आएगा? कदाचित् हमें किसी दूसरे ग्रह से आने वाले एलिएन कि प्रतीक्षा है।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
सटीक
जवाब देंहटाएंसमाचार पत्र पढ़ते या टीवी पर देखते मन व्यथित हो जाता है। कौन लेगा आखिर इस समाज की जिम्मेदारी। हमारे राज्य में स्त्रियों के दोषी जेल में बंद तीन दिग्गज़ नेताओं की पत्नी , माता और भाई को टिकट दिया गया है!!!!
जवाब देंहटाएंटिकट देने वालों को यह विश्वास होगा कि जनता उन्हें वोट देने से पहले उनके पति, पुत्र या भाई के कुकर्म को बिल्कुल भूल जाएगी और उनके व्यक्तित्व के प्रति अपने दास-भाव के वशीभूत होकर वोट उन्हें ही देगी। यदि यह विश्वास एक अनुभवी पार्टी के नियंत्रक लोग कर रहे हैं तो इसमें कुछ सच्चाई तो होगी ही। मेरी चिन्ता यही है कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका अभी भी अंधा और मतिमंद है जो इस लोकतंत्र के बावजूद घटिया लोगों को सरकार बनाने के लिए चुनता आ रहा है।
हटाएंदुखद है अपने समाज की यह स्थिति।
जवाब देंहटाएंपूर्व में परिवारों में संतान को संस्कार दिए जाते थे लेकिन अब संस्कारों के लिए समय नहीं है। यही कारण है कि समाज में दिन प्रति दिन असभ्यता बढ़ती जा रही है। परिवारों का अंकुश भी संतानों पर नहीं है, कभी रोजगार के लिए, कभी शिक्षा के लिए करोड़ों युवा परिवारों से दूर हैं और वे अनियन्त्रित हैं।
जवाब देंहटाएंइन सभी पहलुओं पर गंभीर चिन्तन करने और प्रभावी कदम उठाने के लिए क्या बाहर से कोई आएगा?
जवाब देंहटाएंjo log in vishyo par isii hindi blog jagat me likhtae they unkae saath kyaa vyvhaar kiyaa jaataa thaa yaad jarur karae . samay rehate aap chet gaye yae dekh kar kuchh sukun haen
आपकी यह पोस्ट संवेदनशीलता के लिए याद की जानी चाहिए !
जवाब देंहटाएंसमाज की मनोदशा, और संवेदनशीलता, आपकी इस पोस्ट पर आये कमेंट से पता चल जायेगी ! औरतें और बच्चे भूख से तड़प रहें हैं तो यह असभ्य असामाजिक लोग क्या करेंगे सिवाय अपना पेट भरने के !
आपके तीनों केस हमारी जहालत और जलालत का जीवंत प्रदर्शन है , हमें कोई फर्क नहीं पड़ता बशर्ते वह अपने ऊपर न गुजरी हो ! दूसरों के कष्टों के प्रति हमारी असंवेदनशीलता हर क्षेत्र से चीख चीख कर बोलती है , मगर कहीं कोई कष्ट नहीं , किसी के पास समय नहीं जो दूसरों के लिए रोये , अपना पेट ठीक से भरने का प्रबंध हो गया , ऐश करेंगे आगे भी , दूसरों का ठेका थोड़े ही लिया है !
और यह मीडिया , पहले से ही डूबे, मिटे समाज को गर्त में ले जाने का काम बड़ी कुशलता के साथ निभा रही है ! सबसे अधिक जूते इन्हीं को पड़ने चाहिए ,
हमारी जानवरों से, ख़राब स्थिति के लिए
- सबसे अधिक जिम्मेवार है मूर्ख अशिक्षित वोटर
-और इसके बाद लालची मीडिया
:(
जवाब देंहटाएंbahut dukhad sthiti :(
यह सब उसी समाज में हो रहा है जिसमें हम रह रहे हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसके जिम्मेदार भी। बहुत विक्षुब्ध कर खबरें
जवाब देंहटाएं:( :(..
जवाब देंहटाएं" मातृदेवो भव ।" की गुहार लगाने वाले देश में कितना पाखण्ड है, यह हम सभी जानते हैं । आज भी हर घर में स्त्रियों के साथ अन्याय हो रहा है और उसकी सबसे बडी कमज़ोरी है उसकी सज्जनता । पुरुष जानता है कि वह अपनी सज्जनता नहीं छोडेगी और यह सच है कि हम अपनी सज्जनता नहीं छोड सकते चाहे कुछ भी हो जाए ।
जवाब देंहटाएंअब भी न चेते तो क्या होगा ....यह सोचकर डर लगता है ...सटीक और विचारणीय पोस्ट
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