आजकल इण्टरमीडिएट परीक्षा और इन्जीनियरिंग कालेजों की प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित हो रहे हैं। इण्टर में अच्छे अंको से उत्तीर्ण या इन्जीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में अच्छी रैंक से सफलता हासिल करने वाले प्रतिभाशाली लड़कों के फोटो और साक्षात्कार अखबारों में छापे जा रहे हैं। कोचिंग सस्थानों और माध्यमिक विद्यालयों द्वारा अपने खर्चीले विज्ञापनों में इस सफलता का श्रेय बटोरा जा रहा है। एक ही छात्र को अनेक संस्थाओं द्वारा ‘अपना’ बताया जा रहा है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा चरम पर है। इस माहौल में मेरा मन बार-बार एक बात को लेकर परेशान हो रहा है जो आपके समक्ष रखना चाहता हूँ।
मैंने इन सफल छात्रों के साक्षात्कारों में इनकी भविष्य की योजना के बारे में पढ़ा। कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी का कहना है कि वे आई.आई.टी. या यू.पी.टी.यू. से बी.टेक. करने के बाद सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में शामिल होंगे। कुछ ने बी.टेक. के बाद एम.बी.ए. करने के बारे में सोच रखा है। यानि कड़ी मेहनत के बाद इन्होंने इन्जीनियरिंग के पाठ्यक्रम में दाखिला लेने में जो सफलता पायी है उसका प्रयोग वे केवल इन्जीनियरिंग की स्नातक डिग्री पाने के लिए करेंगे। सरकार का करोड़ो खर्च कराकर वे इन्जीनियरिंग सम्बन्धी जो ज्ञान अर्जित करेंगे उस ज्ञान का प्रयोग वैज्ञानिक परियोजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए नहीं करेंगे। ये अपनी प्रतिभा का प्रयोग उत्कृष्ट शोध द्वारा आधुनिक मशीनों के अविष्कार, निर्माण और संचालन की दक्ष तकनीक विकसित करने में नहीं करेंगे। बल्कि इनकी निगाह या तो उस सरकारी प्रशासनिक कुर्सी पर है जिसपर पहुँचने की शैक्षिक योग्यता किसी भी विषय में स्नातक मात्र है, या आगे मैनेजमेण्ट की पढ़ाई करके निजी क्षेत्र के औद्योगिक/व्यावसायिक घरानों मे मैनेजर बनकर मोटी तनख्वाह कमाने की ओर है जिसकी अर्हता कोई सामान्य कला वर्ग का विद्यार्थी भी रखता है।
साल दर साल हम देखते आये हैं कि आई.आई.टी. जैसे उत्कृष्ट संस्थानों से निकलकर देश की बेहतरीन प्रतिभाएं अपने कैरियर को दूसरी दिशा में मोड़ देती हैं। जिन उद्देश्यों से ये प्रतिष्ठित संस्थान स्थापित किए गये थे उन उद्देश्यों में पलीता लगाकर देश के ये श्रेष्ठ मस्तिष्क `नौकरशाह’ या `मैनेजर’ बनने चल पड़ते हैं। यह एक नये प्रकार का प्रतिभा पलायन (brain drain) नहीं तो और क्या है?
क्या यह एक कारण नहीं है कि हमारे देश में एक भी मौलिक खोज या अविष्कार नहीं हो पाते जिनसे मानव जीवन को बेहतर बनाया जा सके और पूरी दुनिया उसकी मुरीद हो जाय? यहाँ का कोई वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार के लायक क्यों नहीं बन पाता? हमें राष्ट्र की रक्षा या वैज्ञानिक विकास कार्यों हेतु आवश्यक अत्याधुनिक तकनीकों के लिए परमुखापेक्षी क्यों बने रहना पड़ता हैं? साधारण मशीनरी के लिए भी विदेशों से महंगे सौदे क्यों करने पड़ते हैं? आखिर क्यों हमारे देश की प्रतिभाएं अपने वैज्ञानिक कौशल का प्रयोग यहाँ करने के बजाय अन्य साधारण कार्यों की ओर आकर्षित हो जाती है? क्या यह किसी राष्ट्रीय क्षति से कम है?
इस साल जो सज्जन आई.ए.एस. के टॉपर हैं उन्हें डॉक्टर बनाने के लिए सरकार ने कुछ लाख रुपये जरूर खर्च किए होंगे। लेकिन अब वे रोग ठीक करने का ज्ञान भूल जाएंगे और मसूरी जाकर ‘राज करने’ का काम सीखेंगे। क्या ऐसा नहीं लगता कि चिकित्सा क्षेत्र ने अपने बीच से एक बेहतरीन प्रतिभा को खो दिया?
इसके लिए यदि नौकरशाही को मिले अतिशय अधिकार और उनकी विशिष्ट सामाजिक प्रतिष्ठा को जिम्मेदार माना जा रहा है तो राष्ट्रीय नेतृत्व को यह स्थिति बदलने से किसने रोका है? इस धाँधली(farce) में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में क्या हम सभी शामिल नहीं हैं?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
sahi sawal uthaya aapne..
ReplyDeleteसिद्धार्थ जी आपकी चिंता सत्य और गंभीर है ,लेकिन क्या करें कोई भी मानवीय शोध,नैतिकता और सच्ची समाज व इंसानियत के सेवा में आना नहीं चाहता और दुर्भाग्य का मार ऐसा की न तो सरकार और न ही कोई औद्योगिक घराना किसी ऐसे प्रयास को ईमानदारी से करना या बढ़ाना चाहता है | अब तो हम सब को एकजुट होकर ही कुछ भागीरथी प्रयास करने होंगे ,हमारा संगठन बनाने का मकसद ही यही है ,आपसे सहयोग की अपेक्षा है !
ReplyDeleteसवाल सही है लेकिन समाधान क्या हो..?
ReplyDelete..उस ज्ञान का प्रयोग वैज्ञानिक परियोजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए नहीं करेंगे। ये अपनी प्रतिभा का प्रयोग उत्कृष्ट शोध द्वारा आधुनिक मशीनों के अविष्कार, निर्माण और संचालन की दक्ष तकनीक विकसित करने में नहीं करेंगे....
..इसके लिए उन्हें क्या करना चाहिए..? माता-पिता के क्या कर्तव्य हैं..? इस लेख में इन सब बातों की चर्चा होती तो और भी अच्छा होता.
यह तो एक ट्रैंड है सिद्धार्थ जी। बीच में कुछ सरकारी अधिकारियों ने अपना पद छोडकर प्राईवेट कंपनीयों में ज्वाईन किया था, बेहतर पैकेज और रूटीन से मुक्ति की चाह ने ऐसे लोगों को आकर्षित किया था।
ReplyDeleteअब लोग प्राईवेट की बजाय सरकारी पर टूट पड रहे हैं तो इसके पीछे रिसेशन आदि का कारण भी है ।
और जहां तक बात हो रही है कि क्यों इंजिनियर और डॉक्टर इस ओर खींचे चले आ रहे हैं तो मेरा मानना है कि लोग फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं। अनिश्चतता की बजाय पहले एक सुरक्षित मार्ग खोज कर बैकअप रख रहे है कि अगर उसमें सेलेक्शन न हुआ तो यह तो है ही। और यही वजह है कि लोग बैकअप ट्रैक पकड कर इन नौकरीयों की ओर यूपीएससी और ऐसे तमाम प्रतियोगिताओं में शामिल होते हैं। और स्थायित्व और रूतबे की चाह किसे नहीं होती। सरकारी नौकरी इस ओर पूरक है और ऐसे में हू केअर की सरकार ने क्या कितना खर्च किया है एक इंजिनियर या डॉक्टर बनवाने पर।
आप की चिंता सही है। पर यह तो मैनेज करने के लिए बहुत बाद की बात है। इस से पहले तो देश में उत्पादन, श्रम और पूंजी का सही सामाजिक प्रबंधन कर लिया जाए वही बहुत है।
ReplyDeleteचिन्तनीय विषय है...
ReplyDeleteबहुत सही सवालों के साथ...... शानदार पोस्ट....
ReplyDeleteबात आपकी लाख पते की है मगर सुनने वाला कौन है ?
ReplyDeleteये मुद्दा भी उन्ही में से एक है जिस पर मैं पहले बहुत बार मंथन किया हूँ... इस पर बहुत बात चीत करने की जरुरत है...
ReplyDeleteमुद्दा देश हित में गंभीर है.
बहुत सही मुद्दा…
ReplyDeleteमेरे विचार से Compensation जैसा कोई प्रावधान होना चाहिये, अर्थात यदि कोई बच्चा इंजीनियरिंग क्षेत्र छोड़कर (पूरा करके) मैनेजमेण्ट अथवा IAS की ओर जाना चाहता है, तो वह सरकार को कुछ लाख रुपये वापस करे… (जो सरकार का उस पर खर्च हुआ है)… तब शायद इस प्रवृत्ति पर कुछ रोक लगे। इस सम्बन्ध में इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लेने से पहले ही कोई फ़ॉर्म अथवा बॉण्ड भरवाया जा सकता है, ताकि उसे पहले ही पता रहे।
विचारणीय और चिंतनयोग्य ...........मैं खुद पाँच साल कोटा में रहा हूँ ..वहां पर प्रतियोगी परीक्षा {IIT AIEEE VIT BITS PILANI ICAR } और भी कई तय्यारी करवाई जाती है .....कम ही विद्यार्थी सफल होते है और ...उन्हें किसी भी संस्थान द्वारा पैसा देकर अपने विज्ञापन में फोटो और नाम के लिए ..कहा जाता है ...इसे कई छात्र मान भी लेते है ...उन से desh के विकास की उम्मीद करना बेबकूफी है .
ReplyDeleteएक ईमानदार मुद्दा उठाये गए , बधाई !
ReplyDeleteकेवल बांड भरने और कुछ राशि संस्थान के खाते आ जाने से
उन असफल को जिसे ये नामांकन से बेदखल कर देते , देता है ,वो भटक जाता है
जान दे देता है, ऐसे लोग निश्चित रूप से अपराधी हैं .
मुझे लगता है ये सफल लोग , सफलता को पचा नहीं पाते तभी न असफलता
के दौड़ में शामिल होते है .सोचिये एक भारतीय प्रशासनिक सेवक की सेवा
१२ पास या फेल मंत्री ,सांसद ही भोगते हैं ज्यादातर.
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नौकरशाही का आकर्षण और दोनों हाथों में लड्डू रखने की प्रवृत्ति जो न करवा दे.
ReplyDeleteचिंता जायज है और इस पर चिंतन आवश्यक है
यह बात तो मेरे मन में भी कई बार सर उठाती है जब किसी महिला डॉक्टर को सिर्फ एक हाउस वाइफ के रूप में देखती हूँ...ये भी सोचती हूँ कि सरकार के कितने रुपये बेकार गए होंगे और यह भी ख़याल आता है कि इस पढ़ाई का लाभ उठाने वाले किसी लड़के/लडकी का हक़ भी मारा गया.
ReplyDeleteकई लोगों की निगाहें शुरू से IAS पर ही होती हैं और उन्हें पता होता है कि बरास्ते इंजीनियरिंग/मेडिकल के जाने पर रास्ता सुगम हो जायेगा और सफलता का प्रतिशत बढ़ जाता है. और असफल होने की दशा में दूसरा ऑप्शन खुला रहता है.
सरकार का पैसा और एक दूसरे बच्चे का हक़ दोनों ही मारे जाते हैं,इस स्थिति में .
करीब २०० एयरफोर्स पायलट के त्यागपत्र स्वीकृति के लिए पड़े हुए हैं.वे प्रायवेट एयर्लाइन्स ज्वाइन करना चाहते हैं.सरकार २ करोड़ रुपये उन्हें प्रशिक्षित करने पर खर्च करती है...पर तनख्वाह उतनी नहीं देती...यही वजह है कि वे घास जहाँ ज्यादा हरी हो उस तरफ उन्मुख होना चाहते हैं.
हमारे यहां सिर्फ़ पढाई इस लिये की जाती है की पेसा कमाया जाया, बडा आदमी सिर्फ़ पेसे से बनता है, दुख सुख सब पेसे से ही नापे जाते है, क्योकि हमारे यहां शुरु से ही यह सिस्टम बन गया है, एक प्रतिभा शाली बच्चे को जो देश के लिये कुछ करना भी चाहे उसे सरकार मदद तो क्या देगी बल्कि उसे दुतकार ही लगायेगी.... ओर फ़िर जो बच्चा इतना खर्च कर के यहां तक पहुचा है, वो पहले मां बाप का कर्ज ही उतारेगा..
ReplyDeleteपद,पैसा और प्रतिष्ठा किसे अपनी तरफ आकर्षित नहीं करती. शायद इंजीनियरिंग या फिर डॉक्टर के क्षेत्र में इसकी कमी ने इन प्रतिभावों को दुसरे करियर आप्शन की तरफ आकर्षित किया है. जैसा की आपने नौकरशाही को मिले अतिशय अधिकार और उनकी विशिष्ट सामाजिक प्रतिष्ठा का इसके लिए जिम्मेदार होने की बात की तो फिर ये मुझे १०० फीसदी सही लगी ,लेकिन वोट बैंक की राजनीती करने वाले राष्ट्रीय नेतृत्व से हमें ज्यादा उम्मीदें नही रहीं.
ReplyDeleteहम भी प्रतिभाशाली बनने की कोशिश किए थे लेकिन असफल हुए। आज लगता है कि अच्छा हुआ कि प्रतिभाशाली न होकर औसत ही रहे नहीं तो नेताओं की बेहूदगी सहने और मातहतों/जनता के साथ बेहूदगी करने की प्रतिभा का विकास करते करते कुछ और ही हो गए होते।
ReplyDeleteयह सब मांग और पूर्ती का खेल है...हर एक जगह के लिए कई लोग हैं इसलिए जिसे जो मिलता है ले चलता है
ReplyDeleteत्रिपाठी जी,
ReplyDeleteआपने बड़े मार्के की बात कही है...ये हमारे एजुकेशन सिस्टम की ही नाकामी है...आदमी पढ़ता कुछ और है और बनता कुछ और...मैंने सुना है जैसे ही सिविल सर्विसेज की लिस्ट आती है...धन्नासेठ और उद्योगपति इन रंगरूट नौकरशाहों को चांदी के जूते के बल पर अपनी लड़कियों का वर बनाने के लिए सारे घोड़े खोल देते हैं...और शायद यही सबसे पहले देश के इन कर्णधारों का भ्रष्टाचार से पहला सामना होता है...
और जो वास्तव में साइंस की फील्ड में ब्रेन होते हैं उनका बाहर ड्रेन हो जाता है...किसी ने खूब कहा है...ब्रेन ड्रेन इज़ बैटर दैन ब्रेन इन ड्रेन...
जय हिंद...
त्रिपाठीजी, हमारा बड़ा बेटा इंजिनियरिंग के दौरान और बाद में भी रिसर्च करने के लिए इधर उधर भटक रहा है लेकिन फंडिंग कौन करेगा...रिसर्च में मदद कौन करेगा...छोटी छोटी कई रुकावटें है जिस कारण हमारे बच्चे विदेश भागते हैं..रोबोटिक्स की रिसर्च के लिए अगर घर में ही सुविधाएँ हो तो बच्चे खुशी खुशी वही रहें.. वैसे भी इंसान की स्वाभाविक प्रवृति है आसानी की ओर भागना...
ReplyDeleteप्रश्न महत्वपूर्ण हैं और उस पर बहस भी ।
ReplyDeleteक्या 17 वर्षीय युवा इतना समझदार होता है कि वह अपना भविष्य निर्धारण केवल अपनी अभिरुचियों के अनुसार कर सके ?
क्या प्रशासनिक या प्रबन्धन सेवाओं में केवल उन लोगों को ही आना चाहिये जिन्हें इन्जीनियरिंग व चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में कुछ भी ज्ञान नहीं ?
क्या विदेश के कुछ संस्थानों को छोड़कर विशेष शोध का कार्य कहीं होता है ?
क्या सारी की सारी तकनीकी सेवायें तीन या चार वर्ष बाद ही प्रबन्धन में प्रवृत्त नहीं हो जाती हैं ?
देश की प्रतिभा देश में रहे क्या इस पर हमें सन्तोष नहीं होना चाहिये ?
समाज का व्यक्ति पर व व्यक्ति का समाज पर क्या ऋण है, मात्र धन में व्यक्त कर पाना कठिन है ।
बात तो आपने सही उठायी है ...भेडचाल है ये
ReplyDelete@प्रवीण पाण्डेय जी , १७ साल का निर्णय लेने लो क्षमता तो रखता है बशर्ते बचपन से ही उसे आत्मनिर्भर होना और खुद की पसंद के अनुसार काम करने की आजादी दी जाए
आज दिनांक 4 जून 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट बेईमानी की प्रतिभा शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब के लिए इस लिंक http://blogonprint.blogspot.com/ पर जा सकते हैं।
ReplyDeleteaap ko engineers ka dard nahi samajh me aayega ......jab khud ka pet bhara ho to updesh dene me bahut maja aata hai
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