मेरी पिछली पोस्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए खुशदीप सहगल जी ने इन शब्दों को उद्धरित किया था। द इकोनॉमिस्ट अखबार में १० सितम्बर २००५ को छपी एक सर्वे रिपोर्ट का शीर्षक था- Higher Education, Wandering Scholars. इस अखबार ने सर्वे रिपोर्ट में भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. राजीव गान्धी का यह वक्तब्य उद्धरित किया था, ‘‘Better Brain Drain than Brain in the Drain” अर्थात् प्रतिभा का पलायन प्रतिभा की बर्बादी से बेहतर है। इस मुद्दे पर आने वाली प्रतिक्रियाओं को देखने से मुझे ऐसा लगता है कि कुछ विन्दुओं पर अभी और चर्चा की जानी चाहिए।
वैसे तो सबने इस प्रश्न को महत्वपूर्ण और बहस के लायक माना है लेकिन इस क्रम में मैं सबसे पहले आदरणीय प्रवीण पांडेय जी के उठाये मुद्दों पर चर्चा करना चाहूँगा। उनकी टिप्पणी से इस बहस को एक सार्थक राह मिली है, और मुझे अपनी बात स्पष्ट करने का एक अवसर भी।
@क्या 17 वर्षीय युवा इतना समझदार होता है कि वह अपना भविष्य निर्धारण केवल अपनी अभिरुचियों के अनुसार कर सके ?
एक सत्रह वर्षीय युवा निश्चित रूप से बहुत परिपक्व (mature) फैसले नहीं ले पाता होगा, लेकिन यहाँ बात उच्च प्रतिभा के धनी ऐसे बच्चों की हो रही है जो सामान्य भीड़ से थोड़े अलग और बेहतर हैं। साथ ही उनके निर्णय का स्वरूप निर्धारित करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हम सभी अर्थात् उनके अभिभावक, शिक्षक, रिश्तेदार, मित्र, पत्र-पत्रिकाएं, मीडिया और शासन के नीति-निर्माता इत्यादि शामिल हैं। मैने तो यह सवाल किया ही था कि इस धाँधली(farce) में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में क्या हम सभी शामिल नहीं हैं? मेरा जवाब हाँ में है।
@क्या प्रशासनिक या प्रबन्धन सेवाओं में केवल उन लोगों को ही आना चाहिये जिन्हें इन्जीनियरिंग व चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में कुछ भी ज्ञान नहीं ?
मेरा यह आशय कदापि नहीं था। बल्कि प्रशासनिक या प्रबन्धन सेवाओं में इन्जीनियरिंग एवं चिकित्सा सहित जीवविज्ञान, अर्थशास्त्र, कानून, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, दर्शन, धर्म, संस्कृति, मनोविज्ञान, समाज, खेल-कूद आदि नाना प्रकार के विषयों का ‘सामान्य ज्ञान’ होना चाहिए। किसी एक विषय की विशेषज्ञता का वहाँ कोई काम नहीं है। यू.पी.एस.सी. द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम इस ओर पर्याप्त संकेत देता है। आयोग द्वारा इस दिशा में निरन्तर परिमार्जन का कार्य भी होता रहता है।
@क्या विदेश के कुछ संस्थानों को छोड़कर विशेष शोध का कार्य कहीं होता है?
बिल्कुल नहीं होता। यही तो हमारी पीड़ा है। मैं मानता हूँ कि विकसित और विकासशील देशों के बीच जो मौलिक अन्तर है वह अन्य कारकों के साथ इन उत्कृष्ट शोध संस्थानों द्वारा भी पैदा किया जाता है। भारत में विश्वस्तरीय शोध क्यों नहीं कराये जा सकते? किसने रोका है? केवल हमारी लापरवाही और अनियोजित नीतियाँ ही इसके लिए जिम्मेदार है।
@क्या सारी की सारी तकनीकी सेवायें तीन या चार वर्ष बाद ही प्रबन्धन में प्रवृत्त नहीं हो जाती हैं?
तकनीकी सेवाओं का प्रबन्धन बिल्कुल अलग कौशल की मांग करता है। उसे कोई गैर तकनीकी व्यक्ति नहीं कर सकता। लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा जो प्रबन्धन किया जाता है उसमें किसी एक विषय की विशेषज्ञता जरूरी नहीं होती बल्कि प्रबन्धन के सामान्य सिद्धान्त प्रयुक्त होते हैं। इनका शिक्षण-प्रशिक्षण प्रत्येक नौकरशाह को कराया जाता है। एक विशिष्ट विषय का विशेषज्ञ अपने क्षेत्र में उच्च स्तर पर कुशल प्रबन्धक तो हो सकता है लेकिन सामान्य प्रशासक के रूप में उसकी विषय विशेषज्ञता निष्प्रयोज्य साबित होती है।
@देश की प्रतिभा देश में रहे क्या इस पर हमें सन्तोष नहीं होना चाहिये?
प्रतिभा को देश में रोके रखकर यदि उसका सदुपयोग नहीं करना है तो बेहतर है कि वो बाहर जाकर अनुकूल वातावरण पा ले और अखिल विश्व के लाभार्थ कुछ कर सके। इस सम्बन्ध में राजीव गान्धी की उपरोक्त उक्ति मुझे ठीक लगती है।
@समाज का व्यक्ति पर व व्यक्ति का समाज पर क्या ऋण है, मात्र धन में व्यक्त कर पाना कठिन है।
पूरी तरह सहमत हूँ। बल्कि कठिन नहीं असम्भव मानता हूँ इस अमूल्य ऋण के मूल्यांकन को। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इस ऋण को मान्यता ही न दी जाय। पिता द्वारा अपने पुत्र का पालन-पोषण किया जाना एक अमूल्य ऋण है। इसे पुत्र द्वारा धन देकर नहीं चुकाया जा सकता। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पुत्र अपने पिता के प्रति कर्तव्यों को भूल जाय या यह कहकर चलता बने कि पिता ने अपना प्राकृतिक दायित्व पूरा किया था। किसी बालक की परवरिश परिवार के साथ एक खास समाज और देश के अन्तर्गत भी होती है। उसके व्यक्तित्व के निर्माण में इन सबका योगदान होता है। अपनी प्रतिभा के बल पर जब वह आगे बढ़ता है तो उसकी विकास प्रक्रिया में यह सब भी शामिल होते हैं। सक्षम होने पर उसे निश्चित रूप से ऐसे कार्य करने चाहिए जो उसके समाज और देश की उन्नति में कारगर योगदान कर सके।
मेरा आशय तो यह है कि कदाचित् हम अपने देश की सर्वोच्च मेधा को देश और समाज के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं। मुझे लगता है कि देश की नौकरशाही में सबसे अधिक बुद्धिमान और मेहनती युवक इसलिए नहीं आकर्षित हो रहे कि वे उस पद पर जाकर देश के लिए सबसे अधिक कॉन्ट्रिब्यूट करने का अवसर पाएंगे बल्कि कुछ दूसरा ही आकर्षण उन्हें वहा खींच कर ले जा रहा है। इसकी और व्याख्या शायद जरूरी नहीं है।
बेचैन आत्मा जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि सवाल सही है लेकिन समाधान क्या हो..?
...इसके लिए उन्हें क्या करना चाहिए..? माता-पिता के क्या कर्तव्य हैं..? इस लेख में इन सब बातों की चर्चा होती तो और भी अच्छा होता।
आज की तारीख़ में इसका समाधान बहुत आसान नहीं है लेकिन यह असम्भव भी नहीं है। भारत की नौकरशाही का जो स्वरूप आज दिखायी देता है उसकी नींव अंग्रेजी शासन काल में पड़ी थी। ब्रिटिश शासकों की प्राथमिकताएं आज की जरूरतों से भिन्न थीं। उन्हें एक गुलाम देश पर राज करते हुए अपनी तिजोरियाँ भरनी थीं। विरोध के प्रत्येक स्वर को दबाना था। भारत का आर्थिक शोषण और ब्रिटिश हितों का पोषण करना था। इसलिए उन्होंने नौकरशाही का एक ऐसा तंत्र खड़ा किया जो कठोरता से फैसले लेता रहे और मानवाधिकारों की परवाह किए बिना प्रचलित अंग्रेजी कानूनो को अमल में लाकर इंग्लैण्ड की राजगद्दी के हितो का अधिकाधिक पोषण करे। सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक मूल्य, मानवाधिकार, नागरिकों के मौलिक अधिकार, लैंगिक समानता, सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन, देश की आर्थिक उन्नति, सामाजिक सौहार्द, सबको शिक्षा तथा स्वास्थ्य इत्यादि की बातें उनकी प्राथमिकताओं में नहीं थी। इसलिए उन्होंने ‘माई-बाप सरकार’ की छवि प्रस्तुत करने वाली नौकरशाही विकसित की।
देश के स्वतंत्र होने के बाद एक लोकतांत्रिक, संप्रभु गणराज्य की स्थापना हुई। देश में निर्मित संविधान का शासन लागू हुआ। बाद में हमारी उद्देशिका में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष जैसे मूल्य भी जोड़े गये। हमारे देश की नौकरशाही की भूमिका बिलकुल बदल गयी। अब प्रशासनिक ढाँचा देश के आर्थिक संसाधनों के शोषण और गरीब व असहाय जनता पर राज करने के लिए नहीं बल्कि देश को उन्नति के पथ पर आगे ले जाने के लिए, और इस हेतु जरूरी अवयवों के कुशल प्रबन्धन और विभिन्न सेवाओं व सुविधाओं को आम जनता की पहुँच तक ले जाने के लिए सुकारक (facilitator) की भूमिका के निर्वाह के लिए तैयार करना चाहिए था।
एक ऐसा तंत्र जहाँ देश के वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में विश्वस्तरीय शोध कर सकें, इन्जीनियर उत्कृष्ट परियोजनाओं का निर्माण कर उनका क्रियान्वयन करा सकें, विकास को बढ़ावा देने वाले उद्योग स्थापित करा सकें, चिकित्सा वैज्ञानिक देश और दुनिया में रोज पैदा होती नयी बीमारियों से लड़ने के लिए गहन शोध और अनुसंधान द्वारा नयी चिकित्सा तकनीकों और दवाओं की खोज कर सकें, रक्षा वैज्ञानिक देश के भीतर ही हर प्रकार के बाहरी खतरों से लड़ने के लिए आवश्यक साजो-सामान और आयुध तैयार कर सकें, अर्थ शास्त्री देश के हितों के अनुसार समुचित नीतियाँ बना सकें, कृषि वैज्ञानिक इस कृषि प्रधान देश की जरूरतों के मुताबिक पर्याप्त मात्रा में उन्नत बीज, उर्वरक और रसायन बना सकें तथा नयी कृषि तकनीकों का आविष्कार कर उसके उपयोग को सर्वसुलभ बनाने का रास्ता दिखा सकें। देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय संचालित हों जिनमें मेधावी छात्रों को पढ़ाने के लिए उच्च कोटि के शिक्षक उपलब्ध हों।
ऐसी स्थिति तभी आ सकती है जब हम एक इन्जीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, शिक्षक, के कार्य को अधिक महत्वपूर्ण और सम्मानित मानते हुए अपने पाल्य को उस दिशा में कैरियर बनाने को प्रेरित कर सकें। व्यक्तिगत स्तर पर अधिकाधिक धनोपार्जन को सफलता की कसौटी मानने वाली मानसिकता से बाहर आकर जीवन की नैतिक गुणवत्ता (moral quality of life) को महत्व देना होगा। यह सब अचानक नहीं होगा। हमें इसकी आदत डालनी होगी। हम जितना भी कर सकते हैं इस सन्देश को फैलाना होगा। हाथ पर हाथ धरे बैठने से अच्छा है कि हम देश में पैदा होने वाली प्रतिभाओं की पहचान कर उनकी मेधा का उचित निवेश कराने की दिशा में जो बन पड़े वह करें। राजनेताओं और वर्तमान नीति-निर्माता नौकरशाहों से उम्मीद करना तार्किक नहीं लगता। अपने हितों का संरक्षण सभी करते हैं। वे भी हर हाल में यही करना चाहेंगे।
आदरणीय अरविन्द मिश्र जी जैसे लोग जब यह कहते हैं कि “बात आपकी लाख पते की है मगर सुनने वाला कौन है?” तो मैं पूछना चाहता हूँ कि आप स्वयं एक सरकारी महकमें में जो नौकरी कर रहे हैं उसे चलाने के लिए साइंस ब्लॉग खोलना जरूरी तो नहीं था, न ही वैज्ञानिक कहानियाँ लिखना। दुनिया भर के मुद्दों पर बहस करना भी आपकी आजीविका और आय में कोई परिवर्तन करते नहीं दीखते। फिर भी ऐसा करके आप मन में एक सन्तुष्टि का अनुभव करते होंगे। इसका कारण यह है कि वैज्ञानिक विषयों की महत्ता को रेखांकित करना अपने आप में एक साध्य है। कोई तो जरूर सुनेगा… बस आशावादी बने रहिए।
इस चर्चा में उपरोक्त मित्रों के अतिरिक्त सर्व श्री जय कुमार झा (Honesty Project Democracy), सतीश पंचम, डॉ. दिनेशराय द्विवेदी, सुरेश चिपलूनकर, राजेन्द्र मीणा, संजय शर्मा, एम. वर्मा, रश्मि रविजा, राज भाटिया, हर्षकान्त त्रिपाठी ‘पवन’, गिरिजेश राव, काजल कुमार, मीनाक्षी, व राम त्यागी जी ने अपने सकारात्मक विचार रखे जिससे इस मुद्दे पर एक राय बनती नजर आयी। आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद।
इसके अतिरिक्त समीरलाल जी ‘उड़न तश्तरी’, दीपक मशाल, सुलभ जायसवाल व महफ़ूज अली ने भी मुद्दे की गम्भीरता को समझा इसलिए मैं उनका आभारी हूँ।
पुछल्ला: जब देश की सर्वोच्च मेधा नौकरशाही में लगी हुई है तो भी हमारा डेलीवरी सिस्टम इतना खराब क्यों है? इनके होने के बावजूद यदि इसे खराब ही रहना है तो इन विशेषज्ञों को अपने मौलिक कार्य पर वापस क्यों न भेंज दिया जाय?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
ब्रेन ड्रेन पर अच्छा विमर्श किन्तु अब तो लोग सुविधाओं की तलाश में (आधारभूत) देश से बाहर निकलने का पहला ही मौका पकड़ लेते हैं. यह स्थिति पंजाब के किसानों से लेकर जो जमीन बेचकर यहाँ आ बसे से लेकर हर प्रान्त से गुजरात तक फैली हुई है.
ReplyDeleteआज रोजगार के अच्छे अवसर और उचित वेतनमान के बावजूद भी यहाँ का स्वाद चख चुके लोग नित बिजली, पानी, सड़क और अराजकता के संकटों के जाल में नहीं फंसना चाहते..और बाकी उनकी देखा देखी सुन सुन कर चले आ रहे हैं. मेहनत तो सोनों ही जगह करना है तो क्यूँ न बेहतर जीवन की सुविधाएँ भोगते हुए मेहनत की जाये, शायद यही सोच रहती होती.
ब्रेन ड्रेन पर अच्छा विमर्श!
ReplyDeleteव्यक्तिगत स्तर पर अधिकाधिक धनोपार्जन को सफलता की कसौटी मानने वाली मानसिकता कैसे खत्म हो? जब समाज धन-संपदा को ही सम्मान का सर्वोच्च मानदंड मानता हो।
ReplyDeleteसुचिंतित ,विचारशील और सन्दर्भणीय पोस्ट ...प्रशासनिक सेवाओं का आकर्षण जिन कारणों से है वह सर्वविदित है -लेकिन यह सेवा और दूसरे अनुशासनो को खुद से बहुत हेय मानती है यही सोचनीय हैं -तकनीकीविदों की कोई कद्र नहीं है यहाँ और इसलिए प्रतिभाएं दूसरे देशों में जा रही हैं तो कुछ भी बुरा नहीं है ...और प्रतिभाओं को देश काल की परिधि तक ही सीमित कर रखने की सोच उचित नहीं है ....वे वैश्विक धरोहर हैं !
ReplyDeleteभारत की हालत बड़ी चिंताजनक है -यहाँ दोयम तीयंम दर्जे की प्रतिभाएं देश की मुख्य धारा में हैं -अपने लम्बे सेवाकाल में मैंने पाया है कि प्रशासनिक सेवाओं के लोगों का समग्र ज्ञान ,संवेदनशीलता ,परिष्कृत सोच अन्य सेवाओं के लोगों की तुलना में औसतन फिसड्डी ही है मगर वे सिरमौर बने रहते हैं ....आम जनता ,व्यवस्था उन्हें सर पर उठाये रहती है ..मगर दूसरे सेवाओं के लोग ?
मैंने इसी लिए लिखा की हम कर भी क्या सकते हैं -यह घोर हताशा ,पलायन और मोहभंग की स्थिति है हमारे लिए .....
बहरहाल इस उम्दा चिंतन और विवेचन के लिए आभार !
बहुत बढ़िया ! अब तीसरा लेख 'Specialist' और 'Generalist' पर भी हो जाय।
ReplyDeleteसमीर जी की बात में दम है। अरविन्द जी की 'वैश्विक धरोहर' वाली बात मैंने कई अकादमिक लोगों के मुँह से सुनी है। सच है बहुत बार प्रतिभाएँ यहाँ व्यवस्था से जूझते ही समय गँवाती रहती हैं लेकिन जब वही किसी विकसित देश में पहुँच जाती हैं तो कमाल कर जाती हैं।
उठाये हुये प्रश्नों को सुलझाने का बहुत आभार । प्रश्न केवल विशुद्ध बौद्धिक शास्त्रार्थ हेतु नहीं उठाये गये थे वरन इस समस्या का कोई भी सार्थक हल इन प्रश्नों से होकर अवश्य गुजरेगा, यह मेरा अनुभवजन्य विचार है ।
ReplyDeleteनिःसन्देह संसाधनो का यथोचित व यथासम्भव उपयोग ही देश के विकास में निश्चित प्रयास होगा और उसी दिशा में देश की नीतियाँ बने और बढ़ें भी ।
प्रतिभायें जब अपने क्षेत्र में सही सम्मान नहीं पाती हैं, तब या तो अपना क्षेत्र बदल लेती हैं या दूसरे देश चली जाती हैं या निराश होकर प्रतिभा का दुरुपयोग प्रारम्भ कर देती हैं । शान्त बैठ जाना या ड्रेन में चले जाने वाले व्यक्तव्यों से कदाचित वही प्रभावित होंगे जिन्होने प्रतिभा की छटपटाहट को पास से न देखा हो ।
प्रथम दृष्ट्या धन कमाना सामाजिक उच्चता पाने का एक साधन लग सकता है पर शान्तमना व्यक्तित्व अपनी निष्पत्ति समाज को सार्थक योगदान देने में समझते हैं । साबुन बेचने वाले युवा धनाड्य धन की प्यास बुझते ही शीघ्र इस तथ्य को समझने लगते हैं ।
प्रतिभा सम्भवतः धन नहीं, सम्मान की भूखी हैं । जब समाज धन के सम्मान में बाकी गुणों की तिलांजलि दे बैठा है तो उस मानसिकता का विकार युवा चिन्तन से प्रस्फुटित हो तो आश्चर्य कैसा ?
त्वरित हल की घोषणा कर देना, इस विकार को सम्भवतः उचित महत्व न देने जैसा होगा । प्रौद्योगिक संस्थानों की देश के वास्तविक धरातल से विलग बौद्धिक उड़ानें यदि कहीं ले जाती हैं तो वह विदेश ही है । वहाँ इतना धन है कि दहेज और सरकारी सेवाओं में भी जीवन पर्यन्त कमाया धन उसके सामने कम है । प्रतिभा का सम्मान भी है ।
देश में प्रतिभा की उपेक्षा के जघन्य अपराध का दोष युवाओं पर मढ़ देना कदाचित निर्दोष को दण्ड देने जैसा हो ।
इस विषय पर सबकी टिप्पणियाँ समस्या का कोई न कोई स्वरूप इंगित कर रही हैं ।
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ReplyDeleteआपकी रचनाधर्मिता से ब्लॉग जगत प्रभावित है. आपकी रचनाएँ भिन्न-भिन्न विधाओं में नित नए आयाम दिखाती हैं. 'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग एक ऐसा मंच है, जहाँ हम प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं. रचनाएँ किसी भी विधा और शैली में हो सकती हैं. आप भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए 2 मौलिक रचनाएँ, जीवन वृत्त, फोटोग्राफ भेज सकते हैं. रचनाएँ व जीवन वृत्त यूनिकोड फॉण्ट में ही हों. रचनाएँ भेजने के लिए मेल- hindi.literature@yahoo.com
ReplyDeleteसादर,
अभिलाषा
http://saptrangiprem.blogspot.com/
सही कहा आपने पर हम मानते हैं कि देश में ऐसे हालात ही क्यों वनें कि ऐसे समाधान डूंढने पड़ें ।इन हालात से संघर्ष कर इन्हें सुधारना होगा।
ReplyDeleteइस पोस्ट ने पिछली पोस्ट "प्रतिभा का पलायन प्रतिभा की बर्बादी से बेहतर है" से जारी विमर्श को नई ऊँचाई दी है.
ReplyDeleteसमीर जी की बातें जमीनी सच्चाई है और आपके उत्तर नष्ट होती प्रतिभा को बचाने के लिए समाज को नैतिक जिम्मेदारी के प्रति जागरूक करने का प्रयास.
अनायास उठे प्रश्नों के प्रति गहन चिंतन के साथ संतुष्ट कर देने वाला पक्ष रखने के लिए आभार.
samay ka sadupyog....
ReplyDeletebahut sahi..........
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi जी की टिपण्णी से १००% सहमत है,
ReplyDeleteयह इस विषय पर सबके सोचने का समय है। कल ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस है,पर्यावरण को बचाने की दिशा में हम अपनी ओर से कोई भी छोटा संकल्प, जैसे प्लास्टिक या पोलीथीन का बहिष्कार, लेकर मदद कर सकते हैं। हम सबकी ये छोटी छोटी कोशिशें धरती को हरी भरी रखने में मददगार साबित होंगी। ऐसा करके हम भले ही कोई बडा काम न कर पायें, पर अपनी ओर से एक छोटी सी शुरुआत तो कर ही सकते हैं। इस सन्दर्भ में विस्तार से लिखना तो सिद्धार्थ जी जैसे बडे और सिद्धहस्त ब्लोगर्स का काम है।
ReplyDeleteइसके पूर्व मेरी प्रतिक्रिया शायद कुछ भटक गयी थी। मैं सिद्धार्थ जी से पूर्णतया सहमत हूं कि हमें आशावादी होना चाहिये। हमें हर अच्छे काम करते रहना चाहिये बगैर परिणाम की प्रतीक्षअ के। समाज में परिवर्तन धीरे धीरे आता है, इतना धीरे कि वह आखों से दिखाई नहीं देता। एक न एक दिन इसका सार्थक परिणाम देखने को अवश्य मिलेगा।
ReplyDeleteप्रतिभा सम्भवतः धन नहीं, सम्मान की भूखी हैं । जब समाज धन के सम्मान में बाकी गुणों की तिलांजलि दे बैठा है तो उस मानसिकता का विकार युवा चिन्तन से प्रस्फुटित हो तो आश्चर्य कैसा ?
त्वरित हल की घोषणा कर देना, इस विकार को सम्भवतः उचित महत्व न देने जैसा होगा । प्रौद्योगिक संस्थानों की देश के वास्तविक धरातल से विलग बौद्धिक उड़ानें यदि कहीं ले जाती हैं तो वह विदेश ही है । वहाँ इतना धन है कि दहेज और सरकारी सेवाओं में भी जीवन पर्यन्त कमाया धन उसके सामने कम है और वहां प्रतिभा का सम्मान भी है ।
फिलहाल तो ऐसा लगता है कि भारत में बेन ड्रेन से ज्यादा बड़ी समस्यसा ब्रेन इन ड्रेन की है ।
ReplyDeleteप्रिय श्री त्रिपाठी जी,
ReplyDeleteआप द्वारा प्रस्तुत “प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं” पढ़ा देखा और मनन किया। निषकर्ष यह निकला कि मेधावी छात्र पलायन वादी हो रहे हैं। इन्हें समाज में व्याप्त चकाचौंध इतना दुष्प्रभावित कर रही है कि वे अपने दायित्वों से मुख मोड़कर सुख-सुविधा व अधिकार सम्पन्न जीवन निर्वाह करना चाहते हैं। यदि वे अपनी प्रतिभा का उपयोग विज्ञान के अविष्कारों व तकनीकी ज्ञान में लगाकर समाज को नयी दिशा देते कदाचित् अत्यन्त उपयोगी व सार्थक होता।
आशा है कि आप अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त कर नयी युवा पीढ़ी को सही सोच प्रदान करेंगे, जिससे वे समाज की सही सेवा कर सकें।
सद्भावी...!
शिवराज शुक्ल
अपर निदेशक कोषागार एवं पेन्शन
विन्ध्याचल मण्डल, मीरजापुर
सिद्धार्थ जी , बधाई। आपका “प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं” लेख ०५/०६/२०१० के जनसत्ता के सम्पादकीय वाले पेज पर छपा है। जनसत्ता में छपना ही अपने-आप में बडी बात है, इससे इस विषय की गम्भीरता का भी अह्सास होता है। एक बार फिर बधाई।
ReplyDelete“प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं” लेख ०५/०६/२०१० के जनसत्ता के सम्पादकीय वाले पेज पर छपा है।
ReplyDelete....इस खबर को पढ़कर खुशी हुई.
जनसत्ता मे छपने कि बधाई . यह उस प्रश्न क उत्तर भी है कि " कौन सुनेगा ?" लोग सुन् रहे है और् जिस तरह से लोक्तन्त्र मैच्योर् हो रहा है, नौकरशाही मे भी बदलाव अ रहा है.
ReplyDeleteआपकी इस बात से मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ,क्योंकि मेरा भी यही विश्वास है...अपने तरफ से सच्चा और अच्छा करने को प्रतिपल सचेष्ट रहना चाहिए...यदि किसी एक व्यक्ति को भी यह प्रभावित करती है,किसी एक व्यक्ति के जीवन और सोच में ही यह सार्थक सकारात्मक परिवर्तन ला सकती है,तो उद्देध्य सफल हुआ...
ReplyDeleteआपने वर्तमान के ज्वलंत प्रश्नों को जिस प्रकार से देखा है और समाधान प्रस्तुत किया है,वह सार्थक,प्रशंशनीय है...
जैसा कि अरविन्द मिश्रा जी ने अपनी टिपण्णी में कहा है - यहाँ दोयम तीयंम दर्जे की प्रतिभाएं देश की मुख्य धारा में हैं. ऐसा इस लिए क्योंकि प्रतिभाएं आरक्षण सहित अन्य कारकों से अपना हक़ पाने से वंचित रह जाती हैं. यदि देश उन्हें पचा नहीं पाता तो विदेश भागना उनकी मजबूरी है.
ReplyDeleteApko naye assignment ki hardik shubhkamnayen. Meraj
ReplyDeleteअच्छा विचार विमर्श है.
ReplyDeleteफिलहाल एक बात ये भी है कि यह ट्रेंड बदल रहा है धीरे-धीरे ही सही, इनफैकट बहुत तेजी से बदलता हुआ देखा है मैंने. अभी जिन बच्चों के साक्षात्कार आपने पढ़े हैं उनमें से बहुत कम इन पर कायम रह पायेंगे.
ReplyDeleteएक समय था जब भारत में बहुत कुछ किया भी नहीं जा सकता था. नतीजा था सिविल सर्विस और पलायन. पर यह ट्रेंड बहुत तेजी से गिरा है. प्राइवेट सेक्टर से तो यह बदला ही है साथ में बी टेक के बाद आर्ट्स पढने वाले भी निकल रहे हैं. ये सच जरूर है कि रूचि के हिसाब से निर्णय लेने की क्षमता १७ साल की उम्र में नहीं होती. उस उम्र में निर्णय हम उसी हिसाब से लेते हैं जो देखते सुनते हैं. और फिर अच्छे हो तो साइंस पढो... फिर आईआईटी इससे ज्यादा हमारा परिवेश सोचने नहीं देता. पर यह भी बदल रहा है और आई आई टी में पहुचने के बाद भी कई लोग ये समझ कर दिशा बदल रहे हैं. पेट भरने की समस्या वाली जगह पर आदर्श सोच काम नहीं कर सकती और जैसे जैसे वो समस्या ख़त्म हो रही है... सोच भी बदल रही है.