आज गिरिजेश भैया ने अपनी पोस्ट से गाँव की याद दिला दी। गाँव को याद तो हम हमेशा करते रहते हैं लेकिन आज वो दिन याद आये जब हम गर्मी की छुट्टियों में वहाँ बचपन बिताया करते थे। अपनी ताजी पोस्ट में उन्होंने पुरानी दुपहरी के कुछ बिम्ब उकेरे हैं। एक बिम्ब देखकर सहसा मेरे सामने वह पूरा दृश्य उपस्थित हो गया जो वैशाख-जेठ की दुपहरी में सास-बहू की तू-तू मैं-मैं से उत्पन्न हो सकता है। ये रहा उनकी कविता में रेखांकित बिम्ब और उसके आगे है उसकी पड़ताल-
हुई रड़हो पुतहो
घर में सास पतोहू लड़ीं।
भरी दुपहरी
मर्दों को अगोर रही
दुआरे खटिया खड़ी
इसके पीछे की कहानी यह रही--
धर दिया सिलबट पर
टिकोरा को छीलकर
सास बोल गई
लहसुन संग पीस दे पतोहू
मरिचा मिलाय दई
खोंट ला पुदीना...
बहू जम्हियाय
उठ के न आय
तो...
वहीं शुरू हुआ
रड़हो-पुतहो
धनकुट्टी की टिक टिक हमने भी सुनी है, धान कुटाने को साइकिल के बीच में बोरा लादकर गये भी हैं। ये बात दीगर है कि बहुत छोटी उम्र के कारण हमें धान कुटाने के लिए शारीरिक श्रम नहीं करना पड़ता। दरवाजे पर का आदमी साथ होता। हम तो केवल उस मशीनी गतिविधि को देखने जाते थे। इंजन की आवाज इतनी तेज कि सभी एक दूसरे से इशारे में ही बात कर पाते। लेकिन वह एक बहुत बड़ी सुविधा थी जो आम गृहस्थ के घर की औरतों को ढेंका और जाँत से मुक्त होने की राह दिखा रही थी। इन्जन मशीन से चलने वाली चक्की और ‘हालर’ ने गाँव की रंगत बदल दी। अब तो हमारी भाषा से कुछ चुटीले मुहावरे इस मशीनी क्रान्ति की भेंट चढ़ गये लगते हैं। आइए देखें कैसे…!
पहले हर बड़े घर में एक ढेंकाघर होता था। ढेंका से कूटकर धान का चावल बनाया जाता था। असल में यह कूटने की क्रिया ही इस यन्त्र से निकली हुई है। आजकल धान की ‘कुटाई’ तो होती ही नहीं। अब तो धान को ‘रगड़कर’ उसकी भूसी छुड़ाई जाती है। ढेंका के रूप में लकड़ी का एक लम्बा सुडौल बोटा दो खूंटों के बीच क्षैतिज आलम्ब पर टिका होता था जो लीवर के सिद्धान्त पर काम करता था। इसके एक सिरे पर मूसल जड़ा होता था जिसका निचला सिरा धातु से मढ़ा हुआ होता था। इस मूसल के ठीक नीचे जमीन की सतह पर ओखली का मुँह होता। आलम्ब के दूसरी ओर ढेंका का छोटा हिस्सा होता जिसपर पैर रखकर नीचे दबाया जाता था। नीचे दबाने पर इसका अगला हिस्सा ऊपर उठ जाता और छोड़ देने पर मूसल तेजी से ओखली में चोट करता। ओखली में रखे धान पर बार-बार के प्रहार से चावल और भूसी अलग-अलग हो जाते। इसे बाद में निकाल कर सूप से फटक लिया जाता।
मूसल के अग्र भाग को थोड़ा भोथरा रखते हुए इसी ढेंका से चिउड़ा कूटने का काम भी हो जाता था। धान को कुछ घण्टॆ पानी में भिगोकर निकाल लिया जाता है। फिर उसे कड़ाही में भूनकर गर्म स्थिति में ही ओखली में डालकर कूट लिया जाता है। चलते हुए मूसल के साथ ताल-मेल बनाकर ओखली के अनाज को चलाते रहना भी एक कमाल का कौशल मांगता है। मूसल की चोट से नौसिखिए की अंगुलियाँ कट जाने या टूट जाने की दुर्घटना प्रायः होती रहती थी। ओखली से अनाज बाहर निकालते समय ढेंका को ऊपर टिकाए रखने के लिए एक मुग्दर जैसी लकड़ी का प्रयोग होता था जिसे उसके नीचे खड़ा कर उसीपर ढेंका टिका दिया जाता था।
गेंहूँ से आटा बनाने के लिए भी हाथ से चलने वाली चक्की अर्थात् ‘जाँता’ का प्रयोग किया जाता था। जाँता की मुठिया पकड़कर महिलाएं भारी भरकम चक्की को घुमातीं और गेंहूँ इत्यादि ऊपर बने छेद से डालते हुए उसका आटा तैयार करती। चक्की से बाहर निकलते आटे को सहेजने के लिए कच्ची मिट्टी का घेरा बना होता था। इसे बनाने के लिए दक्ष औरतों द्वारा तालाब की गीली मिट्टी से इसकी आकृति तैयार कर धूप में सुखा लिया जाता था। जाँता चलाते हुए इस अवसर पर पाराम्परिक लोकगीत भी गाये जाते जिन्हें जँतसार कहते थे। पं. विद्यानिवास मिश्र ने इन गीतों का बहुत अच्छा संकलन अपनी एक पुस्तक में किया है।
ये दोनो यन्त्र गृहस्थी के बहुत जरूरी अंग हुआ करते थे। जिन गरीब घरों में ये उपलब्ध नहीं थे उन्हें अपने पड़ोसी से इसकी सेवा निःशुल्क मिल जाती थी। घर की बड़ी बूढ़ी औरतें इन यन्त्रों की देखभाल करती। बहुओं को भी बहुत जल्द इनका प्रयोग करना सीखना पड़ता था। जिन घरों में नौकर-चाकर होते उन घरों में यह काम वे ही करते। यहाँ तक आते-आते मेरी ही तरह आप के दिमाग में भी दो-तीन मुहावरे और लोकोक्तियाँ आ ही गयी होंगी। नयी पीढ़ी के बच्चों को शायद यह किताब से रटना पड़े कि ‘ओखली में सिर दिया तो मूसलॊं से क्या डरना’ का मतलब क्या हुआ। लेकिन जिसने ओखली में धुँआधार मूसल गिरते देखा हो उसे कुछ समझाने की जरूरत नहीं। गेंहूँ के साथ घुन भी कैसे पिस जाते हैं यह समझाने की जरूरत नहीं है।
कबीर दास जी ने यही चक्की देखी थी जब वे इस संसार की नश्वरता पर रो पड़े थे।
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय॥
आपको अपने आस-पास ऐसे लोग मिल जाएंगे जो कोई भी काम करने में कमजोरी जाहिर कर देते हैं। किसी काम में लगा देने पर बार-बार उसके समाप्त होने की प्रतीक्षा करते हैं और ऐसे उपाय अपनाते हैं कि कम से कम मेहनत में काम पूरा हो जाय। ऐसे लोगों के लिए एक भोजपुरी कहावत है- “अब्बर कुटवैया हाली-हाली फटके” अब इस लोकोक्ति का अर्थ तभी जाना जा सकता है जब ढेंका से धान कूटने की प्रक्रिया पता हो। ढेंका चलाने में काफी मेहनत लगती है। कमजोर आदमी लगातार इसे नहीं चला सकता, इसलिए वह सुस्ताने के लिए धान से भूसी फटक कर अलग करने का काम जल्दी-जल्दी यानि कम अन्तराल पर ही करता रहता है।
आपने सौ प्याज या सौ जूते खाने की बोधकथा सुनी होगी। इसका प्रयोग तब होता है जब दो समान रूप से कठिन विकल्पों में से एक चुनने की बात हो और यह तय करना मुश्किल हो कि कौन वाला विकल्प कम कष्टदायक है। ऐसे में हश्र यह होता है कि अदल-बदलकर दोनो काम करने पड़ते हैं। इसी सन्दर्भ में हमारे ग्रामीण वातावरण में यह कहावत पैदा हुई होगी जब बहू को बहुत देर से ढेंका चलाते हुए देखकर उसकी सास प्यार से कहती है कि ऐ बहू, थोड़ा ब्रेक ले लो। तुम थक गयी होगी इसलिए ढेंका चलाना छोड़ दो और जाँता चलाना शुरू कर दो यानि धान कूटने के बजाय गेंहूँ पीस डालो।
ऎ बहुरिया साँस लऽ, ढेंका छोड़ि दऽ जाँत लऽ
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
सिद्धार्थ जी आनंद आ गया -एक डिनर ड्यू -घर बाहर जहाँ लेना चाहें ,आज की डेट में डायरी में लिख लें ताकि भूले न ..
जवाब देंहटाएंअपरंच ...कभी कभी आप दोनो जबरदस्त मेहरा लोग लगते हैं -घर घुसवा टाईप ! इतना सूक्ष्म निरीक्षण और सटीक अभिव्यक्ति भला और कैसे संभव है ...और इन दिनों मुझे यह भी लगने लगा है की ब्लॉगजगत में भी आप दोनों अपनी इसी शाश्वत भूमिका में ही है -आप लोगों के प्रति बढ़ती नारी रुझाने यही इंगित करती हैं ....विस्तार करने की चुनौती मत दीजियेगा नहीं तो घर में महाभारत मचेगी ...बता देता हूँ !
ब्लाग जगत में रणहू पुतहू का पहला प्रेक्षण गिरिजेश जी के नाम दर्ज है और उनकी इन्गिति पर मैंने भी मुहर लगाई है ....
जरा अपनी पहली बोध कविता की व्याख्या करें -
भरी दुपहरी
मर्दों को अगोर रही
दुआरे खटिया खड़ी
भरी दुपहरी मर्दों को क्यों अगोर रही ? जहाँ तक मुझे अल्प ज्ञात है (मैं कभी मेहरा नहीं रहा ,आज अफ़सोस होता है )
क्या ?? और फिर दुआरे खटिया खडी -किस बात का सकेतक है ? बिम्ब ? दुआरे की खटिया खडी तो घर के भीतर की बिछी ?? वैसे खटिया खडी होना तो एक मुहावारा है -आप देख ही रहे होंगे मैं अच्छा खासा संभ्रमित हो चुका हूँ -मेरा भ्रम मिटायें आर्य !
पुनश्च : पत्नी ने अर्थ समझा दिया ,मैं भी कितना जड़ हूँ ! सीधी सी बात है दोनों जन सुनायी या फैसले के लिए मर्दों के खेत से लौटने का इंतज़ार कर रही हैं !शायद खटिया भी बिछने के लिए !
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट को पढ़कर मंत्रमुग्ध हूँ...बचपन की भूली-बिसरी यादें ताजा हो गईं..धान कुटाने का इतना सटीक ज्ञान और इतना सुंदर वर्णन तो लिख कर रखने लायक है...
जवाब देंहटाएं...ढेंका के रूप में लकड़ी का एक लम्बा सुडौल बोटा दो खूंटों के बीच क्षैतिज आलम्ब पर टिका होता था जो लीवर के सिद्धान्त पर काम करता था। इसके एक सिरे पर मूसल जड़ा होता था जिसका निचला सिरा धातु से मढ़ा हुआ होता था। इस मूसल के ठीक नीचे जमीन की सतह पर ओखली का मुँह होता। आलम्ब के दूसरी ओर ढेंका का छोटा हिस्सा होता जिसपर पैर रखकर नीचे दबाया जाता था। नीचे दबाने पर इसका अगला हिस्सा ऊपर उठ जाता और छोड़ देने पर मूसल तेजी से ओखली में चोट करता। ओखली में रखे धान पर बार-बार के प्रहार से चावल और भूसी अलग-अलग हो जाते। इसे बाद में निकाल कर सूप से फटक लिया जाता।
........वाह! क्या बात है..!
कालजयी विशुद्ध ब्लॉगरी वाली पोस्ट। जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है। ढेंका और जाँते का वर्णन मयचित्र ! जूनियर सेक्सन में पढी विज्ञान की किताबें याद आ गईं। ढेंका और जाँता के चित्रों के नीचे उनके नाम दे दो, आने वाली पीढ़ी के लिए सन्दर्भ पूरा। मैं तो कहूँगा कि कहीं चित्र मिल जाय तो उसे मिला कर वीकीपीडिया पर अपलोड किया जा सकता है।
जवाब देंहटाएंउन गीतों की अच्छी याद दिला दिए लेकिन मुझे एक भी नहीं पता। पक्का 'मेहरा' नहीं हूँ।:)
मुहावरों के साथ प्रक्रिया की व्याख्या और उनके अर्थकारणों को व्याख्यित करती यह पोस्ट अमूल्य हो गई है। मुझे तो अपने उपर भी नाज हो आया है।
@ बढ़ती नारी रुझाने - महराज! हमरे ब्लॉग पर तो इन लोगों का टिपियाना करीब करीब बन्द हो चला है जब कि अपने यहाँ खुदे देख सकते हैं :)
प्रेक्षण महत्त्वपूर्ण है। प्रेक्षक तबियत का आदमी कुछ भी देखता है तो महीनी से। इस श्रेणी में आप भी आते हैं। भाभी जी से बतियाया कीजिए। महिलाओं के पास लोकज्ञान का खजाना होता है। आप को बता दूँ कि बाउ प्रकरण की तकरीबन सारी सामग्री मुझे अम्मा से मिली है।
मेरी बिम्ब कविता में 'खाट खड़ी होना' मुहावरे का प्रयोग बहुअर्थी है। दुआर पर खाट का खड़ा पाया जाना बहुत बुरा माना जाता है। ऐसे घर का द्योतक जहाँ मर्द नालायक आलसी हों और औरतें पपंची झगड़ालू जिन्हें घर की कोई सुध ही न हो। वैसे खटिया का मानवीकरण, परिवार का एक सदस्य मानते हुए कीजिए। घर की कलह से दु:खी भरी दुपहरी खिन्नमना घर का एक सदस्य चुपचाप अभिभावकों के आने की प्रतीक्षा में है !
तो...
जवाब देंहटाएंवहीं शुरू हुआ
रड़हो-पुतहो
क्या बात है !!
साजिशन आपने तो मुझे अपने गाँव पहुँचा दिया. डेढ साल से गया नहीं हूँ. सब कुछ आईने की तरह सामने आती गयीं और एक चलचित्र बन गयी.
वाह
खटिया खडी होना तो एक मुहावारा है...
जवाब देंहटाएंराजस्थान के कुछ इलाकों में इसे अशुभ मना जाता है ...जब घर में किसी का सदस्य का परलोकगमन हो जाये तो घर के बहर खटिया को खड़ा रख देते हैं ...
पूरी पोस्ट दुबारा पढनी पड़ेगी ...!!
@गिरिजेश जी ,टिप्पणी में व्याख्यित शब्द खटक रहा है ? यह कहीं व्याखायित तो नहीं है ?
जवाब देंहटाएंमेरा वर्तनी ज्ञान सो सो है !
अहा, ग्राम्य जीवन और उसकी मधुरता को बड़ी सुघड़ता से व्याख्यायित करती पोस्ट । आनन्द आ गया ।
जवाब देंहटाएंसंस्कृत के अनुसार सही शब्द है - व्याख्यायित (गुगल अनुसन्धान - 11200 परिणाम)
जवाब देंहटाएंव्याखायित गलत है। (गुगल अनुसन्धान - 66 परिणाम)
व्याख्यित (गुगल अनुसन्धान - 752 परिणाम)
वैसे गुगल अनुसन्धान कोई मानक नहीं है। व्याख्यायित और व्याख्यित टाइप के शब्दों पर आधुनिक हिन्दी के विकास काल में विवाद भी हुए थे। संस्कृत समर्थक शुद्धता के पक्षधर व्याख्यायित को सही मानते तो सरलता के समर्थक व्याख्यित को । (वैसे कुछ को दोनों कठिन लगेंगे और explanation की वकालत करेंगे :)) मुक्ति दी अगर आएँगी तो अधिक प्रकाश डालेंगी।
इतनी बारीकी से टिप्पणी पढने के लिए आभार।
आनन्द आ गया यह पोस्ट पढ़कर...गांव लौट चला..सुबह उठकर फिर पढ़ूंगा यह तय जानिये.
जवाब देंहटाएंआदरणीय अरविन्दजी और गिरिजेशजी ‘मेहरा’ शब्द का क्या तात्पर्य है? जरा व्याख्या करने का कष्ट करें।
जवाब देंहटाएंAm nostalgic !....Nice post !
जवाब देंहटाएं@व्याख्यायित शब्द ही ज्यादा व्यवहृत है और शुद्ध भी !
जवाब देंहटाएंआपकी उद्विग्न जिज्ञासा सहज और स्वाभाविक है, बात आपके 'उनकी ' है ! ईश्वर आपको सौतिया डाह से बचाएं {:)} ,
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी ने चैट चर्चा पर यह भाष्य किया है और मैं उनसे सहमत हूँ -
'मेहरा' पुरुषप्रधान समाज में प्रयुक्त एक टर्म है। नारियों के साथ अधिक बतियाने वाला, उनसे जुड़े मामलों में रुचि लेना वाला, ऐसे कार्य जो नारी सुलभ माने जाते रहे हैं - जैसे खाना बनाना, अन्य घरेलू कार्य करना आदि आदि में निपुण, बात व्यवहार से कोमल दिखने वाला आदि आदि को 'मेहरा' कहा जाता है। सम्भवत: 'मेहरारू' शब्द में से 'रू' हटाने से बना है। आगे की व्याख्या वडनेरकर जी शायद कर पाएँ :) अरविन्द जी को तो अपना पक्ष रखना ही है।
इस मानक से सोलह कलाओं से युक्त कृष्ण सबसे बड़े 'मेहरा' कहे जाएँगे।
... वैसे यह शब्द पुरुषों की आपसी बेलाग बात चीत में हल्के तौर पर प्रयुक्त होता है। इस प्रयोग को अधिक गम्भीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। कोई जरूरी नहीं कि इसे प्रयोग करने वाला बुरे भाव रखता हो। निर्मल हास्य है । पोस्ट के उपर की टिप्पणियों को उनकी सम्पूर्णता में देखने समझने की आवश्यकता है।
@लगता है थोड़ा और स्पष्टीकरण आवश्यक है -सिद्धार्थ जी की गहन प्रेक्षणीय क्षमता की नोटिस लेते हुए मुझे प्रगटतः नकारात्मक उदाहरण देना पड़ा जैसे तुलसी कहते हैं कि मुझे राम उतना ही प्रिय हैं जैसे कृपण को धन और कामी को नारी ! कामिहि नारि पियारी जिमि ,लोभी को जिमि दाम .....
जवाब देंहटाएंऔर अगर इस पर भी मेरी बात आक्षेप युक्त लग रही है तो त्रिपाठी दंपत्ति से करबद्ध क्षमा निवेदन --आपकी जोड़ी एक विरल जोड़ी है -स्नेहाशीष !
गिरिजेश भैया क त ....बतिया ही अलगे बा.... उनकर साथे.... हमनी के भी बहुते कुछ याद आ जाला.... अऊर रऊ आ के त ई पोस्ट बहुते नीक लागल.... एद्दम करेजा माँ छू गईल....
जवाब देंहटाएंहमार बधाई स्वीकार करीं तनि....
बहुत सुंदर जी आप ने तो हमे गांव मै ही पहुचा दिया सब यादे ताज हो गई, वो हाथ की चक्की जिसे दादी मां सुबह सवेरे चलाती.... वो गाऊ शाला की चक्की जहां सिर्फ़ शोर के कारण कोई किसी की बात समझ नही पाता था, वो बरगद पता नही क्या क्या याद दिला दिया.
जवाब देंहटाएंधन्यवद
इसका उलट भी है - उठअ बूढ़ा सांस ल! चरखा छोड़अ जांत ल!
जवाब देंहटाएंसास या बहू - जिसका दाव चल जाये! :)
अरविन्द जी आपने मेरे प्रश्न का सही-सही उत्तर दिया है इसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंईश्वर करें कि आप सहित सारे पुरुष मेहरा बन जाये इसी में स्त्रियों की भलाई है।
wow Rachna...kya baat likhi hai ...lol
जवाब देंहटाएंयानि कि मेहरा होना भी एक कला है :)
जवाब देंहटाएंबढिया पोस्ट है, बहुत रोचक।
कौन मेहरा नहीं है भला बताये????लोंगों को गलतफहमी की आदत होती है.
जवाब देंहटाएंग्राम्यजीवन को चित्रित करती बेहतरीन पोस्ट.
जिन लोगों ने मेरी पोस्ट पसन्द की उन्हें बहुत धन्यवाद। वैसे इसके हकदार गिरिजेश भइया ही हैं जिन्होंने मन को उटकेर दिया था। वैसे गाँव के बारे में सोचकर ही अच्छा लगता है, अब जाकर वहाँ रहने पर तमाम कठिनाइयाँ सामने आ जाती हैं। फिर भी नॉस्टैल्जिक होने का आनन्द तो है ही।
जवाब देंहटाएंलेकिन एक बात मैं लाख समझाइश के बाद भी ग्रहण नहीं कर पा रहा हूँ जो श्री अरविन्द जी ने इस पोस्ट के बाद मुझे उपाधि स्वरूप प्रदान की है। सारी व्याख्याएं पढ़ने के बाद भी ‘मेहरा’ शब्द से हठात् जो भाव निकलता है वह पुरुषोचित गुणों के विपरीत ही जाता है। एक निर्मल हास्य होते हुए भी यह है तो हास्यास्पद ही। अरविन्द जी ने क्षमा याचना जैसे शब्द का प्रयोग करके मुझे संकट में डाल दिया है। घड़ों पानी डाल दिया मेरे गुबार पर। इसके बाद विरोध दर्ज करना भी ठीक बात नहीं है, लेकिन अपने मन की फाँस कैसे न निकालूँ? अन्दर टभकने के लिए क्यों छोड़ दूँ?
अतः मैं पूरी विनम्रता, और आदरणीय अरविन्द जी के प्रति बड़े भाई के उपयुक्त आदर के साथ बिना किसी म्लानता के यह निवेदन करता हूँ कि मुझे मेहरा कहलाया जाना कत्तई पसन्द नहीं आया। भले ही मेरी धर्मपत्नी इससे अन्ततः प्रसन्न हो चली हों और गिरिजेश भइया की परिभाषा में गिनाए गये सभी गुण मेरे भीतर विकसित हो चुके हों तब भी। :)।
i guess 'mehra' and 'mehdara' are not same?
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंधर दिया सिलबट पर
जवाब देंहटाएंटिकोरा को छीलकर
सास बोल गई
लहसुन संग पीस दे पतोहू
मरिचा मिलाय दई
खोंट ला पुदीना...
--- याद आ गया नल के बगल उगा हुआ पुदीना , जिसे खोंट के
माई ले आती थीं और ..... नामू नामू नामू ,,,,,
बड़ा सोंधा बिम्ब उकेरा है आपने , बधाई !
पूरी पोस्ट अच्छी है !
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मेह:-शब्द का अर्थ है प्रस्राव , इससे मेहरारू शब्द की उत्पत्ति का
तुक कम ही बैठता है , एक लोक अर्थ में बादल है , इससे भी मेहरारू ,
मेहरा , मेहरी शब्द का तुक नहीं बैठता है |
मेह :- स्त्री लिंग संज्ञा शब्द है , फारसी का | अर्थ है कृपा , दया जिससे
मेहरबानी जैसे शब्द बने हैं | पुरुषप्रधान समाज में स्त्री को सदैव दया , कृपा
के दायरे में खंचियाया गया , अतः यह शब्द स्त्री के लिए रूढ़ हुआ और
उसी कोण से 'मेहरारू' , 'मेहरी', 'मेहरा' जैसे शब्दों की सृष्टि हुई !
= 'मेहरा' शब्द उन पुरुषों के लिए मजाकिया - गाली ले रूप में प्रयुक्त
किया जाने लगा जिनमें स्त्रियोचित लक्षण पाए जाते हों , जब किसी मर्द को
कोई यह शब्द कहता तो उसे उसकी मर्दानगी का अपमान लगता और वह
स्वाभाविक तौर पर नाराज होता | आज का भी सच , अभी तक , यही है |
इसलिए सिद्धार्थ जी का कहना सही है कि --- '' ... वह पुरुषोचित गुणों के विपरीत
ही जाता है। एक निर्मल हास्य होते हुए भी यह है तो हास्यास्पद ही। '' ..
'मेहरा' कहना शिष्ट भाषा में किसी को 'स्त्ैण' कहकर लज्जित करना ही माना जाता रहा |
...... अवध क्षेत्र में इसी के वजन पर 'मेंहदरा' शब्द प्रयोग किया जाता है , इससे भी
लोग ( पुरुष ) अपमानित सा अनुभव करते हैं और
कुछ तो गुस्सा में आकर लड़ने पर भी आ जाते हैं |
.......
मैं अपनी कहूँ तो इस शब्द में एक पुरुष से ज्यादा स्त्री का अपमान दिखता है |
पुरुष-प्रधान समाज को अपने मान-अपमान के सामने स्त्री का अपमान कहाँ दिखता है !
........
================
मैंने पहली बार एक लम्बी प्रतिक्रिया लिखी, लेकिन मेरी कम्प्यूटर की अल्पग्यता के कारण पोस्ट ना हो सकी, अफ्सोस...इतनी रात गये अब मुझमें दुबारा वह सब टाइप करने का धैर्य नहीं है। माफ करेंगे।
जवाब देंहटाएं@सिद्धार्थ जी,एक बात बताईयेगा कि मैंने मेहरा शब्द आपको अकेले नहीं गिरिजेश जी को भी कहा था ,उनका जवाब आपके सामने है ...यह आपको ही इतना बुरा क्यों लग गया ? आप जो वस्तुतः हैं नहीं किसी के कहने पर हो जायेगें क्या ? मैंने किसी नकारात्मक अर्थ में आपके लिए मेहरा शब्द नहीं इस्तेमाल किया था बल्कि आपकी सूक्ष्म निरीक्षण की प्रतिभा को इंगित करने के लिए मुझे उससे उपयुक्त शब्द कोई जँचा नहीं -और क्षमा उस लक्ष्मी से माँगा था जिसकी आभा में आप आलोकित हैं .....
जवाब देंहटाएंकुछ और ज्ञानार्जन और हो जाय ...(ज्ञानी लोग जुट रहे हैं ) -मेहरा एक उपजाति भी है .......और मेहरा हेंन पेक हसबैंड भी है -मतलब कुकडूकू खसम ....मैंने जिस अर्थ में मेहरा का प्रयोग किया था वह घर घुसरू किस्म के लोगों के लिए (आपका घर के भीतर की अंतर्कथा का लाजवाब विवरण /विश्लेषण मुझे इस विशेषण तक ले गया !
और यह भी सच है हम सभी कुछ न कुछ अंश में मेहरा हैं -हाँ उन्नीस बीस का फर्क है ....कृष्ण राधा का ही स्वांग भरने को लालायित रहते थे ..एक भूतपूर्व डी जी पी राधा बने रहते हैं ...एक सम्प्रदाय है जो राधा का स्वांग किये रहता है -इसकी इन्गिति क्या है -यह सबमें मौजूद नारीभाव का ही तो प्रगटन है -शिव अर्धनारीश्वर क्यों हैं ? गणेश बिचारे को दूध पीने में हुयी दिक्कतों का ब्यौरा कविगन तफसील से देते फिरते हैं ...थोडा उदात्त बनिए सिद्धार्थ जी और ब्राड माइंडेड भी ....निर्मल और प्रबुद्ध हास्य को अप्रीसियेट करने की अभिरुचि को और भी उत्प्रेरित करिए अपने में -गिरिजेश और सिद्धार्थ का यह अंतर क्यों ? आपके प्रति अपने स्नेह के चलते मैंने वे उदगार व्यक्त किये मगर आप तो भन्ना गए... खैर अब केवल आपसे क्षमा मांगता हूँ -
बढिया पोस्ट! गांव-घर में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों के बहाने भूली-बिसरी यादें भी दोहरा लीं।
जवाब देंहटाएंअमरेन्द्र की बात से सहमत- "इस शब्द में एक पुरुष से ज्यादा स्त्री का अपमान दिखता है |"
और कुछ कहकर किसी को क्या भाव देना!
अरविन्द जी, लगता है आपको मेहरा शब्द बहुत प्रिय है, तभी तो आप अपने को सही सिद्ध करने को प्रतिबद्ध लगते हैं। वर्ना भाई मेरे, हर लेखक संवेदन्शील और सूक्ष्मदर्शी होता है, कोई थोडा कम कोई थोडा ज्यादा। आप भी तो गांव में ही पैदा हुए हैं, आपको मेहरा शब्द का पीछा छोड्कर अपने गांव और बच्पन की ओर लौट्ते हुए कुछ रचना चाहिये। हमें इस नये की प्रतीक्षा है।
जवाब देंहटाएंमर्दों को अगोर रही, दुआरे खटिया खड़ी। इसका मतलअब आप नहिं जानते, तो फोन करेंगे तो समझा दूंगा। बहर्हाल सिद्धार्थ जी को इत्नी अच्छी पोस्ट के लिये बधाई।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंPost kabhi aaram se padhenge.Aapki nai photo pahle vale se achhi lag rahi hai.
जवाब देंहटाएंटेस्ट
जवाब देंहटाएंटेस्ट :)
जवाब देंहटाएंगुड टेस्ट!!!
जवाब देंहटाएंअरविन्द मिश्रा जी का ई-मेल एकाऊंट अमेरिका से हैक किया गया आगे पढ़ें पूरा किस्सा
जवाब देंहटाएंकिस्सा अभी खत्म नहीं हुआ है आगे पढ़ें
जवाब देंहटाएंरीति रिवाज,रहन सहन सीखने समझने तथा परंपरा संस्कृति के बारे में जानने और जीवन के लिए भली प्रकार तैयार होने के लिए दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद बारहवीं तक की पढाई के लिए दो वर्ष मुझे अपने नहिनाल में छोड़ दिया गया......
जवाब देंहटाएंये दो वर्ष मेरे जीवन के स्वर्णिम वर्ष थे...इस अंतराल ने मुझमे जो कुछ जोड़ा,वह अमूल्य है...
आपका यह जीवंत वर्णन मुझे उन्ही स्वर्णिम दिनों में ले जाकर विमुग्ध कर गया...वर्तमान में इस रससिक्त मनोभाव से मुक्त हो टिपण्णी हेतु शब्दों का संधान कर कुछ कह पाना मेरे लिए दुसाध्य है...
आपका कोटि कोटि आभार,इस अन्यतम प्रविष्टि के लिए...
सिद्धार्थ जी, क्या कहने ! मेरा बचपन कुर्बान इस पोस्ट पर
जवाब देंहटाएंआहा सीढ़ी के नीचे चलते जांता "दादी, माई और परोस के कुछ महिलायें"
'जाँता’ और लोकगीत / कहावतें
रोचक और ख़ास पोस्ट है... सोने की चमक है इस ब्लोगनगरी में.
विद्वान लोग जब चांदनी रात में नौका विहार करने जाते हैं तो ठंडी हवा या छिटकी चांदनी का मजा नहीं लेते वे रास्ते भर नारी विमर्श या दलित लेखन जैसे विषयों पर आपस में झगड़ते रहते हैं....
जवाब देंहटाएंवैसे ही अधिकारी लोग जब चांदनी रात में नौका विहार करने जाते हैं तो पेंडिंग फाइल का जिक्र छेड़ सारा मजा किरकिरा कर देते हैं..
..वे यह नहीं जानते कि नाव में कोई और भी सवार है जो कोलाहल से दूर चांदनी रात में सिर्फ नौका विहार का आनंद लेने आया है.
मर गए!
जवाब देंहटाएंसिद्धार्थ जी बढ़िया लिखते हैं सो लिखा उन्होंने।
अरविन्द जी बढ़िया लिखते हैं, सो टीपा उन्होंने।
और हम बढ़िया डरते हैं,
सो डर गए हम,
कि बिना बात के …
इसी के लिए कहा होगा कि सूत न कपास,
जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा;
अब जुलाहे न आते हों लाठी लिए हमें लठियाने।
सो हम मेहरा तो हइये हैं - निकल लेते हैं चुपचाप।
पुनश्च: लेख अच्छा लगा, मगर अभी जल्दी में हैं नहीं तो हम भी मेहरा पर अपने शोधपरक व्याख्यान देते, मगर का करें, हेल्मेट नहीं है न पास हमरे!
sawdhan mai bhi lone me hu. Najare tik gaye hai.kathanee karnee ka bhed na rahe
जवाब देंहटाएंसचित्र व्याख्या के क्या कहने. बहुत अच्छी पोस्ट.
जवाब देंहटाएंरोचक और ज्ञानवर्धक पोस्ट, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंजांत और ढेंका(ओखल मुसल )को छोड़ ही तो औरतें बीमार हुईं हैं .
जवाब देंहटाएं