निरुपमा पाठक की मौत का मामला अभी अखबारी सुर्खियों से हटा भी नहीं था कि इलाहाबाद में ऐसे ही क्रूर कथानक की पुनरावृत्ति हो गयी। इस बार किसी सन्देह या अनुमान की गुन्जाइश भी नहीं है। पुलिस को घटनास्थल पर मिले सबूतों के अनुसार परिवार वालों ने अपने पड़ोसी लड़के से प्रेम कर बैठी रजनी को उसके गर्भवती हो जाने के बाद पीट-पीटकर मार डाला और फिर उसे छत पर एक एंगिल से दुपट्टे के सहारे लटकाकर आत्महत्या का रूप देने की कोशिश की। लेकिन यहाँ पोस्ट मार्टम रिपोर्ट ने सच्चाई से पर्दा उठाने में कोई चूक नहीं की।
रिपोर्ट ने जाहिर किया है कि रजनी को इतना पीटा गया कि शरीर के कई हिस्से काले पड़ गये। सिर में गम्भीर चोट पायी गयी। नाक से खून बहा। गले पर उंगलियों के निशान मिले हैं और सिर दीवार से टकराने की बात आयी है। गर्भवती रजनी के पेट पर वार किये गये थे जिससे उसे अन्दरूनी चोट लगी थी। पुलिस ने रजनी के माता-पिता, दो भाइयों और एक बहन को हिरासत में ले लिया। उसके प्रेमी से भी पुलिस पूछताछ कर रही है।(पूरी रिपोर्ट पढने के लिए अखबारी कतरन को क्लिक करिए)
यह मामला निरुपमा पाठक प्रकरण की तरह पेंचीदा नहीं है। बल्कि अत्यन्त सरल और उजाले की तरह साफ़ है। यहाँ लड़की केवल हाई स्कूल तक पढ़ी थी। निम्न मध्यम वर्ग के साहू परिवार में जन्मी रजनी ने घर वालों की इच्छा के विरुद्ध पड़ोसी केसरवानी परिवार के लड़के से प्रेम किया। घर वाले उसकी शादी की उम्र होने पर अन्यत्र शादी करना चाहते थे जिससे इन्कार करने पर उसे पीट-पीटकर अधमरा कर दिया गया और फिर फाँसी पर लटका दिया गया। यहाँ दलित और सवर्ण जाति के बीच बेमेल रिश्ते का प्रश्न भी नहीं था। यह कुकृत्य किसी पिछड़े ग्रामीण इलाके की खाप पंचायत की देखरेख में भी नहीं हुआ। किसी हाई-सोसायटी की परम आधुनिक जीवन शैली में जीने वाली कोई आधुनिका भी नहीं थी रजनी। लेकिन हश्र वही हुआ जो निरुपमा का हुआ था। आखिर क्यों?
व्यक्ति का अस्तित्व किन बातों पर टिका है यह विचारणीय है। परिवार, समाज, राज्य और वैश्विक परिदृश्य के सापेक्ष उसकी निजी हैसियत क्या है? समाज में नाक कट जाने के डर से परिवारी जन घोर अमानवीय कृत्य कर डालते हैं और यही समाज/राज्य उन्हें जेल भेंज देता है। क्या इससे नाक बची रह जाती है? फिर यह वहशीपन क्यों? आखिर इस कुकृत्य की प्रेरक शक्तियाँ कहाँ से संचालित होती हैं। सुधीजन इस पर अपने विचार रखें। बिना किसी अगड़े-पिछड़े, छोटे-बड़े, हिन्दू-मुस्लिम, अमीर-गरीब, वाम-दक्षिण, महिला-पुरुष के चश्में को चढ़ाये इस मुद्दे पर सोच कर देखिए। केवल मनुष्य के रूप में इस विषय पर चर्चा करिए। क्या कुछ निष्कर्ष निकल पा रहा है?
मेरी कोशिश तो फिलहाल असफल हो रही है। मनुष्य ने अपने लिए जो तमाम श्रेणियाँ बना रखी हैं उससे बाहर निकलना सचमुच बड़ा कठिन है। शायद असम्भव सा…।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
जातिव्यवस्था को जब हमारी सरकार ही मान रही है, जाती के आधार पर जनगणना हो रही है तो एक मध्यम वर्गीय परिवार जिसके पास ले दे कर इज्जत ही पूँजी है, जाति व्यवस्था के चलते वहशी हो जाता है, अपनी ही बेटी की हत्या करता है तो मुझे नहीं लगता कि अपराधी सिर्फ वही है..कहीं न कहीं हम और हमारा समाज भी इन हत्याओं के पीछे जिम्मेदार है. अंतरजातीय विवाह को यह समाज खुलेआम स्वीकार क्यों नहीं करता? पढे-लिखे और बुद्धिजीवी माने जाने वाले वर्ग को तो पहल करनी चाहिए..!
जवाब देंहटाएंविविधता जब फूलों की तरह उद्यान की शोभा बढ़ाती है तो भाती है, जब वही विविधता एक दूसरे से भेद के कारण खोज ले तो मन चीत्कार कर उठता है ।
जवाब देंहटाएंइंसान से कुत्ता बनने की प्रक्रिया जल्द ही शुरू होनी चाहिए.. क्योंकि कुत्तो के सुनने की क्षमता इंसानों से दुगुनी होती है.. शायद कुत्ता बनने के बाद हमें कुछ सुनाई दे जाये..
जवाब देंहटाएंहम हमारा परिवार समाज के जातिगत खूंटे में कुच्छ इस प्रकार बंधे हुए हैं,
जवाब देंहटाएंजहाँ सोच किसी भी परोसी के साथ रहने निभाने और साझा विकास के पहल की तो है परन्तु रिश्तेदारी तभी सफल है जब अपने जाति समूह द्वारा प्रमाणपत्र मिले.
विभिन्न जातीय प्रथाओं में मीन मेख निकालना भी समस्यां के मूल में है.
और सबसे बड़ी बात यह की उंच और नीच जाति की कई पंक्तियाँ है. किसी व्यक्ति विशेष की आदत को जातीय प्रथा मानकर उसे बेईज्ज़त करने की प्रथा है अपने समाज में. क्या कहें बातें बहुत है, परिणाम वही है. व्यक्ति के निजी जीवन में परिवार(और स्थानीय जातिगत समाज) का दखल राज्य/देश के क़ानून से भी ऊपर है.
हमने अपने आस पास एक घेरा खींच रखा है और उसी में हम बंद हैं। पर कब तक?
जवाब देंहटाएं'स्व' सबसे प्यारा होता है। समस्या 'स्व' को जड़ और तुच्छ मान्यताओं से जोड़ने से होती है।
जवाब देंहटाएंयह कृत्य बर्बर है, निन्दनीय है। लेकिन लड़के लड़की क्यों अपने को किसी आसमानी दुनिया का समझने लगते हैं? वे भाग कर शादी कर सकते थे। इस जमाने में भी गर्भ ठहरा लेना मुझे समझ में नहीं आता।
थोड़ी बहुत बेवकूफी तो आ ही जाती है लेकिन यह कैसा प्यार है जो इतना मूर्ख बना देता है? कटु यथार्थों की ऐसी उपेक्षा क्यों की जाती है? लड़के को कुछ नहीं होगा और लड़की की जान अपनों ने ही ले ली। ऐसे स्वार्थियों को लड़कियाँ क्यों नहीं पहचान पातीं ? ..ऐसी घटनाओं में गर्भ का डीएनए परीक्षण अनिवार्य हो जाना चाहिए ताकि पुरुष को भी दण्ड मिल सके। ..
प्यार ओर हवस मै फ़र्क है, यह लोग जिसे प्यार का नाम देते है वो क्या सच मै ही प्यार है???
जवाब देंहटाएंलेकिन जो भी हुआ वो बहुत गलत हुआ,शायद मां बाप ओर भाईयो ने गुस्से मै इतना मारा कि यह लोग भुल ही गये कि वो भी इन के परिवार का एक हिस्सा है.... दोष किसे दे?
जातियां मनुष्य की सामाजिकता पुष्ट करने को बनी थीं, वे अब तानाशाही कर रही हैं।
जवाब देंहटाएंकितना दुखद है यह सब.
जवाब देंहटाएंमारी तो नारी ही जाती है न, पुरुष क्यों नहीं। पुरुष प्रधान समाज है शायद इसलिये?
जवाब देंहटाएंबहुत दुखद -मनुष्य शरीर का ऐसा त्रासद अंत .....खुद मनुष्य के द्वारा ! वह भी अपने ही खून का खून ! कौन कहेगा की ब्लड इज थिकर देन वाटर !
जवाब देंहटाएंऔर यह गर्भ किस मूर्खता की देंन है -विडंबना है कि गर्भ निरोधक गोली का यह पचासवां वर्ष है
यह विषय इतना सरल नहीं कि इसपर त्वरित टिपण्णी की जा सके...
जवाब देंहटाएंदोनों ही समस्याएं जटिल हैं,निंदनीय तथा वर्जनीय हैं....अभिभावकों द्वारा अपने संतान की हत्या करना भी और संतान का अल्पवय में शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना भी...
एक जीवन से कीमती कुछ नहीं होता। रजनी का मरना दुखद है।
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