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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

गान्धीजी नहीं हैं… अच्छा है।

बापू,

सादर नमन्‍…

ये अच्छा ही है जो आज तुम हमारे बीच नहीं हो…।

यदि होते तो बहुत तकलीफ़ में रहते…।

आसान नहीं है आँख, कान, मुँह बन्द रखना…

9 टिप्‍पणियां:

  1. बापू को नमन।
    इस वैचारिक-नैतिक प्रदूषण से कौन उबारेगा?

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  2. पर इन तीनों का इस्तेमाल भी
    सब कहाँ कर पा रहे हैं ?
    =======================
    आभार
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  3. बापू की याद में श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

    बुरा न देखने सुनने बोलने के प्रतीकों के लिए बंदरों का ही चुनाव क्यों किया गया था? क्या इसके पीछे भी कोई कथा है?

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  4. भई ये बात कुछ लोगों के लिये बहुत आसान है आँख, कान और मुँह बंद रखना। जैसे कि जब कोई बम फटा तो दिखाई नहीं दिया, कपडे बदल दिया....तब तक बम की आवाज भी आ गई पर वो भी सुनाई न पडी और फिर कपडे बदल दिये....ईतने में पत्रकार पहुँचे पूछने तो भी मुँह बंद रख रटा रटाया कहा - सख्ती से निपटेंगे...और फिर एक कपडा बदल लिया.......और जनाब अब भी गृहमंत्री बने हैं ....आँख बंद, कान बंद, और जबान .....वो तो कब से बंद है।
    अच्छी पोस्ट रही । वैसे आप की बात में दम है कि- आसान नहीं है आँख, कान, मुह बंद रखना।

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  5. होते तो ख़ुद कांग्रेस ही सुपारी दे देती !

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  6. प्रभावी!!

    गाँधी जयंति की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

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  7. Aaj Gandhiji faile hue hain aam aadmi ke chote-chote prayason mein; aap jaison ke blogs mein! Kya yeh desh hamare karndharon (chahe wo kisi bhi dal ke hon!) ke bal par chal raha hai? yahi praman kafi nahi is baat ka ki 'Urja ka kabhi vinash nahi hota, wah sirf apna roop badal leti hai'.

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