हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

बाप-बेटी के बीच फँसी एक उलझन…?

शिक्षा विभाग में तैनात अधिकारी स्कन्द शुक्ला जो मेरे मित्र हैं, के मन की परेशानी एक अंग्रेजी के प्रतिष्ठित अखबार ने उन्ही के शब्दों में यहाँ छापी है। स्कन्द का मन अभी तक उलझन में है; क्योंकि सरकारी महकमें में काम करते हुए भी उन्होंने अपनी सामाजिक संवेदनाएं बचा कर रखी हुई हैं। नहीं तो, ग्रामीण भारत के पिछड़े समाज में सरकारी विकास योजनाओं के क्रियान्वयन के स्तर पर ऐसे विद्रूप तो कदम-कदम पर दिख जाते हैं।

कहानी कुछ यूँ है कि कुछ वर्ष पहले एक जिले की प्राथमिक शिक्षा को सवाँरने का जिम्मा देकर इन्हें वहाँ का आला हाकिम बना भेजा गया था। देश के विकास का मूल आधार शिक्षा है, तथा शिक्षा के विकास का मूल आधार प्राथमिक शिक्षा है; यह सोचकर देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान का अवसर जान स्कन्द ने जिले में जाकर खूब मेहनत की। सरकारी योजनाओं को पूरे नियम से लागू करने का बेड़ा जो उठा लिया था।

गाँव-गाँव में खुले प्राइमरी स्कूलों की अवस्थापना सुविधाओं को सुदृढ़ करने, स्कूलों में प्राथमिक शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित करने, गरीब छात्रों को निःशुल्क पाठ्यपुस्तकें व यूनीफॉर्म तथा दोपहर का भोजन उपलब्ध कराने, विद्यालय भवनों की मरम्मत व नवनिर्माण कराने, स्कूल छोड़ चुके छोटे बच्चों का दुबारा नाम लिखाने, फिर भी छूटे रह गये बच्चों को अलग से पढ़ाने की व्यवस्था कराने, उनका स्वास्थ्य परीक्षण कराने आदि जैसी अनेक कल्याणकारी योजनाएं देशी और विदेशी आर्थिक अनुदान से चलायी जा रही हैं। प्रत्येक जिले में करोड़ों का बजट।

आप जानते ही हैं प्राथमिक शिक्षा को संवैधानिक अधिकार का दर्जा मिला हुआ है। यहाँ जमीनी हकीकत का व्यौरा देने कि कोई आवश्यकता नहीं है। आप जरूर जानते होंगे। स्कन्द की उलझन को स्पष्ट करने के लिए मैं यहा चर्चा करूंगा इन्हीं योजनाओं में से एक अति महत्वाकांक्षी और ‘सफल’ योजना का जिसे शिक्षामित्र योजना कहते हैं-

ग्राम पंचायतों में खोले गये प्राथमिक विद्यालयों में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए उसी गाँव के निवासी तथा इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा प्राप्त अभ्यर्थियों में से सर्वोच्च मेरिट वाले अभ्यर्थी को शिक्षामित्र के रूप में चयनित किया जाता है; जो संविदा के माध्यम से ग्यारह माह के मानदेय भुगतान के बदले अपनी सेवाएं विद्यालय में देता है।

शिक्षामित्र योजना का उद्देश्य यह है कि स्थानीय स्तर पर कम लागत में बच्चों को क, ख, ग,… पढ़ाने के लिए पर्याप्त संख्या में मानव संसाधन जुटाए जा सकें। सरकारी प्रशिक्षित अध्यापकों की भारी कमी और उनकी नियुक्ति पर आने वाले भारी व्यय की तुलना में राजकोष की पतली हालत को देखते हुए यह कामचलाऊ योजना अत्यन्त उपयोगी साबित हुई है। बल्कि आज आलम यह है कि प्राथमिक शिक्षा का सारा दारोमदार इन्हीं शिक्षामित्रों के कंधों पर टिका हुआ है।

सरकारी विभागों में कार्यरत एक चपरासी से भी कम पारिश्रमिक पाने वाला शिक्षामित्र ग्रामीण भारत के गरीब बच्चों के भविष्य की एकमात्र आशा की किरण बना हुआ है। विभाग से मोटी तनख़्वाह पाने वाले अन्य सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के ऊपर सरकार ने शिक्षण कार्य से इतर अनेक जिम्मेदारियाँ डाल रखी हैं। नये स्कूल भवनों का निर्माण कार्य, शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं का प्रचार-प्रसार, सूचना संकलन, सर्वे, पल्स पोलियो, मीटिंग, गोष्ठी, अधिकारियों का दौरा, आवभगत, वेतन बिल का भुगतान और नेतागीरी। उन्हें इन सभी जिम्मेदारियों को पूरा करने का ही समय नहीं मिल पाता। बेचारे क्या करें…? शिक्षामित्र को स्कूल की चाभी देकर निकल लेते हैं।:)

…तो शिक्षामित्र के रूप में चयन के लिए बेरोजगारों की लम्बी फौज एकदम से टूट पड़ी। गाँव में अपने घर पर रहते हुए जो हार मान कर छिपी हुई बेरोजगारी से तालमेल बिठा चुके थे; उन्हें भी घर बैठे एक अवसर मिल गया। इण्टर तक पढ़ाई कर चुके वे नौजवान हों जो श्रम आधारित रोजगार की तलाश में बाहर भटक रहे थे, अथवा घरों के भीतर चूल्हे-चौके में अपनी नियति तलाश चुकी बहुएं हों या शादी की प्रतीक्षा में दिन काट रही बेटियाँ; सबको इस लम्बी कतार में देखा जा सकता था। सबने बक्से और आलमारी में छिपा कर रखे अपने अंकपत्र बाहर निकाल कर छाड़-पोंछ लिए और आवेदन ग्राम-प्रधान जी को प्रस्तुत कर दिया।

शुरुआती दौर में तो हाई स्कूल और इण्टर के अंकों को मेरिट में शामिल किया गया। बाद मे कुछ अधिमानी (preferential) योग्यताएँ निर्धारित की गयी। आरक्षण के नियम भी लागू हुए। ग्राम शिक्षा समितियों ने चयन में धाँधली शुरू की तो इसे जिला स्तर पर समिति गठित करके जिलाधिकारी के सर्वोच्च नियन्त्रण में सौंप दिया गया।

लेकिन मूल बात यह है कि यह नौकरी गाँव के ही अभ्यर्थी को उसके गाँव में ही मिलनी है। इसकी चयन प्रक्रिया की शुरुआत गाँव स्तर से ही होनी है। वहीं से सभी आवेदकों की सम्मिलित वरीयता सूची (merit list) शीर्षस्थ अभ्यर्थी के चयन के प्रस्ताव के साथ जनपदीय समिति के अनुमोदन के लिए भेजी जाती है।

यह प्रक्रिया देखने में जितनी सरल लगती है, व्यवहार में उतनी ही कठिनाई पैदा करने वाली है। हर कदम पर धाँधली और बेईमानी का प्रयास होता है। इसीलिए सम्बन्धित अधिकारी को उसी अनुपात में सजग और सतर्क रहना पड़ता है। क्रमशः सारी प्रक्रिया को इतना पारदर्शी बनाने की कोशिश की गयी है कि धाँधली और फर्जीवाड़ा करना बहुत मुश्किल हो गया है। लेकिन तू डाल-डाल मैं पात-पात वाला खेल यहाँ खूब चलता है।

चित्रकृति : The Times of India से साभार

इस प्रकरण में जिस लड़की का जिक्र किया गया है, वह ग्राम पंचायत की मेरिट सूची में प्रथम स्थान पर थी। लेकिन उसके चयन का प्रस्ताव गाँव से भेजा नहीं जा रहा था। मेरिट सूची में दूसरे स्थान पर जो लड़का था, उसे अपना चयन कराने के लिए किसी भी तरीके से उस लड़की को अनर्ह (disqualified) घोषित कराना था।

उसे नियमों में सेंध लगाने का एक रास्ता हमारी उस सामाजिक व्यवस्था में मिला जिसके अनुसार लड़की का विवाह हो जाने के बाद वह हमेशा के लिए अपने पति के घर की हो जाती है। मायके में उसका अपना कोई अधिकार नहीं बचता। अपने ही माँ-बाप के पास वह केवल मेहमान बनकर आती है। वह तब वहाँ की निवासिनी नहीं रह जाती।

शिक्षामित्र की पहली शर्त है कि अभ्यर्थी उसी ग्राम-सभा का स्थाई निवासी हो। उस लड़की ने जब आवेदन किया था तो उसी गाँव की निवासी थी; लेकिन जब मेरिट लिस्ट बनायी जा रही थी तभी उसका विवाह हो गया। विवाह से एक साल के भीतर उसका गवना होना था; अर्थात् उसे अपनी ससुराल चला जाना था। ( ग्रामीण समाज में अभी भी विवाह के तत्काल बाद विदाई का रिवाज नहीं है।)

वह लड़की जनपदीय कार्यालय में यह शिकायत करने गयी थी कि भ्रष्ट SDI (Sub-deputy Inspector of School) जिसे डिप्टी साहब कहा जाता है, द्वारा उसके चयन का प्रस्ताव जानबूझकर जिले पर अनुमोदन के लिए नहीं भेजा जा रहा था। यह इसलिए कि उसका गवना हो जाने पर वह दूसरे स्थान वाले को चयनित करा सके। जबकि वह इस अवसर का लाभ उठाकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी। इस संवेदनशील अधिकारी ने उस SDI को पत्रावली और चयन प्रस्ताव के साथ अगले दिन कार्यालय तलब कर लिया। लड़की की उम्मीदें बलवती हुईं। वह प्रसन्न होकर घर लौट आयी।

शाम को ऑफिस से घर आने पर इस अधिकारी को अपने दरवाजे पर उसी लड़की का बाप हाथ जोड़े प्रतीक्षा करता मिला। असमय निवास पर आने का कारण पूछने पर उसने विनय पूर्वक बताया कि अपनी बेटी का चयन रोकने का प्रयास वह स्वयं कर रहा है, डिप्टी साहब नहीं। उसी ने उसके विवाहित होने की सूचना लिखकर उन्हें भेंजी है ताकि उसका नाम मेरिट सूची से हटा लिया जाय।

विस्मित होकर स्कन्द ने जब इस अप्रत्याशित फैसले का कारण पूछा तो उस गरीब ने अभयदान का आश्वासन पाने के बाद जो रहस्य खोला वह विचलित कर देने वाला था-

“साहब, …मुझ गरीब के लिए बेटी की नौकरी से अधिक जरूरी उसका गवना कराना है, जिससे मेरी इज्जत पर दाग न लगे। गवना का खर्चा मुझे उसी लड़के ने दिया है जो दूसरे नम्बर पर आया है…।”

स्कन्द के लिए अब फैसला लेना अत्यन्त कठिन हो गया; लेकिन अगले दिन सुबह-सुबह ऑफिस पहुँचने पर उन्हें अपने ट्रान्सफर का आदेश सबसे पहले मिला और कोई निर्णय लिए बिना उन्हें वहाँ से छुट्टी मिल गयी। (अकस्मात्‌ स्थानान्तरण की कहानी फिर कभी...)

स्कन्द के मन में अनिर्णय की स्थिति अभी भी बनी हुई है, और उलझन भी…। आप बताइए, आप क्या निर्णय लेते?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

29 टिप्‍पणियां:

  1. “साहब, …मुझ गरीब के लिए बेटी की नौकरी से अधिक जरूरी उसका गवना कराना है, जिससे मेरी इज्जत पर दाग न लगे। गवना का खर्चा मुझे उसी लड़के ने दिया है जो दूसरे नम्बर पर आया है…।”



    अगर ये कथा नारी ब्लॉग पर होती तो सिद्दार्थ जी आप की प्रतिक्रिया क्या होती . मे आप की दी गयी टिप्पणियों को जो नारी सशक्तिकरण के आलेखों पर अलग अलग ब्लॉग पर आयी हैं निरंतर पढ़ रही हूँ और हर जगह आप ने नारी के नौकरी का विरोध ही किया हैं इस लिये मुझे लगता हैं की सबसे पहली राय आप की होनी चाहिये की आप क्या करते इस परिस्थिति मे ?? दुसरो से क्यों राय मांगते हैं पहले अपनी राय तो दे . मै आज इस को नारी ब्लॉग पर डालना चाहती थी पर आप ने डाल दिया हैं सो थैंक्स समाज की इस विद्रूप से पुनेह परचित करने के लिये

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  2. अगर ये कथा नारी ब्लॉग पर होती तो सिद्दार्थ जी आप की प्रतिक्रिया क्या होती . मे आप की दी गयी टिप्पणियों को जो नारी सशक्तिकरण के आलेखों पर अलग अलग ब्लॉग पर आयी हैं निरंतर पढ़ रही हूँ और हर जगह आप ने नारी के नौकरी का विरोध ही किया हैं इस लिये मुझे लगता हैं की सबसे पहली राय आप की होनी चाहिये की आप क्या करते इस परिस्थिति मे ?? दुसरो से क्यों राय मांगते हैं पहले अपनी राय तो दे . मै आज इस को नारी ब्लॉग पर डालना चाहती थी पर आप ने डाल दिया हैं सो थैंक्स समाज की इस विद्रूप से पुनेह परचित करने के लिये

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  3. बधाई सिद्धार्थ जी, आप इस घटना के यथार्थ चित्रण से समाज के अनेक अन्तर्विरोधों को एक साथ उजागर कर गए हैं।
    सब के पीछे आर्थिक विषमता छिपी है। लड़की अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है, वह आर्थिक रूप से सक्षम हो कर अपने जीवन के लिए कुछ आजादी बढ़ाना चाहती है। पिता आर्थिक रूप से तंग है वह अपनी लड़की का गौना कर के अपनी जिम्मेदारियों से निवृत्त होना चाहता है,उसे अपनी पुत्री के विवाहोपरांत जीवन से कोई लेना देना नहीं है। आर्थिक विषमता और बेरोजगारी ने एक युवक को इतना स्वार्थी बना दिया है कि वह लड़की के अधिकार को किसी भी कीमत पर खरीदकर अपना आर्थिक भविष्य सुरक्षित करना चाहता है और उस के लिए उस ने लड़की के पिता को धन दे कर इस के लिए तैयार कर लिया। निर्णय लेने वाला अधिकारी असमंजस में है कि वह क्या करे।

    कानूनी बात तो यह है कि स्थाई निवास की स्थिति उस दिन की देखी जाएगी जिस दिन आवेदकों के आवेदन प्रस्तुत करने की अंतिम तिथि थी। किसी लड़की का विवाह हो जाने से उस का स्थाई आवास नहीं बदल जाता है। इस आर्थिक विषमता के युग में लालच बहुओं के प्रति कितना निर्मम है यह बहुओं के जलाए जाने की घटनाओं के आंकड़ों से स्पष्ट होता है।

    मान लो लड़की को अपने ससुराल में परेशानी देखनी पड़ती है और लड़की ससुराल या पति से परेशान हो कर वापस अपने पिता के घर लौटती है तो वही पिता फिर से इसी नौकरी को अपनी लड़की को दिलाने के लिए अपने सारे घोड़े खोल देगा।

    समस्या का मूल आर्थिक विषमताओं में है। लड़की का पिता आर्थिक रूप से सक्षम होता तो वह गौना भी करता और लड़की की नौकरी को दांव पर भी नहीं लगाता। लेकिन उसे आज उस के पिछड़े हुए सामाजिक मूल्यों ने मजबूर कर दिया है और वह गलत दिशा में सोच रहा है।

    लड़की के पिता को पहले अपनी पुत्री को आर्थिक सक्षम बनाने के बारे में सोचना चाहिए बाद में उस के विवाह और गौने के बारे में।

    कोई भी अधिकारी जो इस परिस्थिति में निर्णय करे उसे चाहिए कि वह प्राथमिकता उस लड़की को दे। गौना दो बरस बाद भी हो सकता है। आर्थिक रूप से सक्षम हो जाने पर गौने का खर्च लड़की भी जुटा सकती है।

    दीपावली के मंगल पर्व पर हार्दिक शुभ कामनाएँ!
    यह दीपावली आप के और आप के परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि ले कर आए।

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  4. क्‍या कहूं। कुछ आपके आलेख और कुछ दिनेश राय द्विवेदी जी की टिप्‍पणी ने समाज का सही चित्र खींच कर दिखाया है।

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  5. परम मंगलमय त्‍यौहार दीपावलि की आप सबको भी बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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  6. द्विवेदी जी के जवाब से काफ़ी बातें स्पष्ट हो गई हैं. जब हमने स्कंध जी का आलेख आज सुबह पढ़ा तो हमारा मस्तिस्क बिल्कुल स्पष्ट था. स्कंध जी पढ़े लिखे और जिम्मेदार पड़ पर स्थापित शख्स है तो उन्हें समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए था और लड़कियों के प्रति भेद करने वाली मानसिकता को रोकना चाहिए था. शायद ये ऐसा मामला था जिसमे उन्हें तुरत कार्यवाही करना चाहिए था.
    लड़की पिता के पीछे चाहे जो सामाजिक मजबूरियां रही हों पर ये कुल मिला कर भ्रष्टाचार, जोड़ तोड़ और असमानता को बढ़ावा देने वाला मामला था. स्कन्द जी ने सोचने में देरी कर के एक सुनहरा मौका गवां दिया.

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  7. मैं होता तो लड़की को चयनित करता, बाकी बातें बाद में सोंची जाती.

    और शिक्षा मित्र में धांधली तो होती ही है सुना है ऐसे भी लोग होते हैं जो शिक्षा मित्र होते हैं पूर्वी उत्तर प्रदेश में... और साथ-साथ इलाहबाद विश्विद्यालय के छात्र भी होते हैं !

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  8. It's very easy to say to have selected the lady for those who cannot imagine the plight of her poor father. The father has to live in his society not in that of Roshanji. Would the socity have left him unscathed had he postponed her 'gauna'? We should remember that the father is not against his daughter working,(it was he who got her educated) but he is bogged in his circumstances. It must not be forgotten that the incident has emotional aspects apart from economic.

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  9. I's readin' whole issue here and d's took mee to a sad conclusion; even highly educated, and positioned at places where they are to work for better society, are just working to keep the society as it was. I feel officials must get good training to meet d problmes or they will always be helpless like skand shukla

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  10. बहुत धांधली है. लड़्की को चयनित किया जाना चाहिये वैसे.

    दीपावली पर आप के और आप के परिवार के लिए

    हार्दिक शुभकामनाएँ!

    समीर लाल
    http://udantashtari.blogspot.com/

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  11. सही आधार पर नौकरी मिलनी चाहिये। अन्य समस्यायें अपना रास्ता खोज लेंगी।

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  12. After reading the comment by Skand Shukla I am really happy that he was transferred before he could take a decision . When such learned and educated people try to justify the autocracies and harassment done on woman in the name of society what can you expect from others . Woman have been slaughtered in the name of so called marriage . The girl was in the merit list , top position holder and still Mr. skand feels that we need to understand the plight of the father .
    The same father would have run after government officials had the groom wanted the girl to work to get he job for the girl , After all its the MAN society .
    When I read this in the newspaper yesterday i felt remorse for Mr. sknad , i could feel what he might have gone thru in teems of trauma of not being able to help a girl who was the merit holder , but now i feel that he might have just helped the father instead .
    Which centaury are we living in . I FEEL PITY FOR THE AUTHOR WHO IS SYMPATHIZING WITH THE FATHER .

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  13. I don't know a thing about Ms Rachna singh but i'm sure of one thing-- she has never seen what a remote backward village society is. I'm also sure of one thing -- she has no knowledge of literature. Literature is not an expression of concepts and theories , it is an expression of human emotions, predicaments and, more than all-- experience.With all respects to the feminist( of the bra-burning variety)i would like to stress that i have not written a sociological/economic treatise. I have only given expression to an experience where i felt a duel between society's demands- a father's dilemma - a young girl's aspirations. I hope the debate would rest.

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  14. Mr Skand SHukla
    Thanks for telling us that your writing was a piece of literature and was posted here only to give publicity to it . I am sorry to have wasted my time on commenting on the same . And ofcourse i am an illetrate so have no knowledge of literature . In bloging though we give vent to our feeling on issues that touch a cord . But it seems this post was just a gimmick an ploy to attract traffic to the blog rather then to find what people want to discuss on the issue
    sorry i wasted my idle time and your precious time
    Of course there will be thousand gramitical and speeling meistakes in my writing , but as already said i am uneducated so do forgive me with a generous heart .

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  15. दीपावली पर आप को और आप के परिवार के लिए
    हार्दिक शुभकामनाएँ!
    धन्यवाद
    लेख पढने के बाद टिपण्णी दुगां

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  16. @दुसरो से क्यों राय मांगते हैं पहले अपनी राय तो दे .

    रचना जी, सर्वप्रथम आपको यहाँ आने के लिए धन्यवाद। धन्यवाद इसलिए भी कि आप मेरी टिप्पणियों को लगातार पढ़ती रही हैं।

    अब एक विनम्र शिकायत:
    आप पढ़ती तो हैं लेकिन ध्यान से नहीं। अपने पूर्वाग्रही पुरुष-विरोधी अतिरंजित निष्कर्षों तक छलांग लगाने की जल्दबाजी में आप लेखक के आशय को समझ पाने से कभी-कभी चूक जाती हैं।

    पता नहीं मेरी किस बात से आप ने यह समझ लिया कि मैं महिलाओं की नौकरी का विरोधी हूँ। मैने तो यही कहा है कि नौकरी को मूलतः जीवन की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का ‘साधन’ मानना चाहिए इसे एक ‘साध्य’ के रुप में जीवन का श्रेय-प्रेय मान लेना ठीक नहीं है।

    नौकरी करने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण और कठिन कार्य परिवार का सुचारु संचालन है। स्त्री यह काम करने में पुरुषों से ज्यादा सक्षम और प्रवीण है, इसलिए यदि उसके नौकरी किये बगैर घर में पर्याप्त पैसा आ जा रहा है तो उसे इस बेहतर जिम्मेदारी का कार्य करना चाहिए। क्या आपने ऐसी महिलाओं को नहीं देखा जो नौकरी से लाखो-करोड़ो कमाती हैं लेकिन उनका पारिवारिक जीवन छिन्न भिन्न हो चुका है?

    वस्तुतः परिवार के प्रबन्धन और बच्चों की परवरिश को हेय और तुच्छ मानने की गलती अधिकांश स्त्री और पुरुष करते हैं और सारी समस्या यहीं से शुरू होती है।

    पैसा कमाना जरूरी तो है, लेकिन यह न तो योग्यता का कोई पैमाना है और न ही किसी उत्कृष्टता का। बहुत से करोड़पति आप को ऐसे मिल जाएंगे जिनके जैसे कर्म करना आप अवसर मिलने पर भी नहीं करना चाहेंगी।

    लेकिन यहाँ जिस मामले का जिक्र हुआ है, उसमें तो सबकी संवेदनाएं उस लड़की के साथ ही जुड़ी हैं। स्कन्द की भी। वहाँ तो वह लड़की अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।

    उसका नसीब वैसा नहीं है जिसमें परिवार सम्हालने और नौकरी करने के बीच शौकिया अपनी पसन्द छाँटनी हो। उसे तो दोनो में से सिर्फ़ एक ही मिल पाने की मजबूरी है। उसके ग्रामीण समाज की सच्चाई यह है कि एक बार किसी अपरिचित लड़के के साथ फेरे ले लेने के बाद उसकी दुनिया वहीं सिमट कर रह जाती है। इससे बाहर निकलने का मतलब है एक लांछित जीवन जीने को अभिशप्त होना। वहाँ यह लांछन केवल पुरुष समाज लगाएगा यह जरूरी नहीं है। और लांछित तो पूरा परिवार होता है।

    हमें और आपको इस विडम्बना को मिटाने के लिए मिलकर काम करना होगा तभी उस जैसी लड़कियों का अन्धेरा मिटेगा। व्यर्थ प्रलाप और दोषारोपण से नहीं।

    @दिनेश राय द्विवेदी जी,

    विडम्बना यह भी है कि उस समय के प्रवृत्त नियमों के अनुसार उस लड़की का चयन तो हो जाता लेकिन १५-२० दिनों में गौना हो जाने के बाद ससुराल जाते ही विद्यालय से उसका नाम काट दिया जाता और नये सिरे से चयन प्रक्रिया शुरू होती जिसमें तीन-चार महीने निकल जाते। तब तक स्कूल खाली रहता।

    अब इस नियम में सुधार हो गया है। शादी के बाद भी अपने मायके में रहने को तैयार लड़की से उसकी सेवा नहीं छीनी जा सकती। यह बात अलग है कि इस समाज में ऐसे उदाहरण काफी कम मिलते हैं जहाँ घर की बहू नौकरी के लिए मायके में रहने को छोड़ दी जाय।

    चर्चा में शामिल होने वाले सभी मित्रों का धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  17. अब एक विनम्र शिकायत:
    आप पढ़ती तो हैं लेकिन ध्यान से नहीं। अपने पूर्वाग्रही पुरुष-विरोधी अतिरंजित निष्कर्षों तक छलांग लगाने की जल्दबाजी में आप लेखक के आशय को समझ पाने से कभी-कभी चूक जाती हैं।


    @जिस विनम्र भावः से आप ने ये आक्षेप मुख पर लगाया ये प्रियवर सिदार्थ जी उसी विनर्म भाव से ये भी बता दे की जो भी महिला नारी आधारित विषयों पर बात करती हैं वो आप को और आप जसे तामाम सुधि जानो को "पुरूष विरोधी " क्यूँ लगती हैं और आप को एसा क्यूँ लगता हैं की हर लेखिका पूर्वाग्रही पुरूष विरोधी ही हैं . क्या आप को अपना " काम काजी , आर्थिक रूप से सखम महिला विरोधी होना नज़र नही आता . काफ़ी पहले मे जनरल मेनेजर की हसुयत से दाबुर इंडी लिमिटेड कंपनी मे काम करती थी . मेरे नीचे काम करने वाली टाइपिस्ट लड़की डाबर के मालिक के ड्राईवर की बेटी थी . एक दिन हर्ड डिविजन ने उसको नौकरी से निकाल दिया क्युकी उनको उस से ज्यादा सक्षम टाइपिस्ट कम पैसे मे मिल गया . ड्राईवर ने तुंरत बर्मन जी जो मालिक हैं उनसे कहा , आप की इतनी बड़ी कंपनी मे मेरी एक बेटी को नौकरी नहीं मिल सकती , उसकी शादी इसी नौकरी की वजह से हुई हैं और अगर नौकरी चली गयी तो शादी भी टूट जायेगी . टाइपिस्ट को पुनः नौकरी पर रखा गया . और ये बात १५ साल पुरानी हैं . मे नहीं जानती आप किस दुनिया मे हैं और किस समय की बात कर रहे हैं . आज कल नौकरी करने वाली महिला की शादी ज्यादा सहूलियत से होती है और शायद आप ने वो घर नहीं देखे जहाँ महिला नौकरी नहीं करती और फिर भी पति ही आटा गुंध कर ऑफिस जाते हैं . घर संभाला को कार्य नहीं हैं . जिन मे सलीका हैं वो नौकरी भी करते हैं और घर भी सभालते है . इस आलेख मे केवल और केवल एक ही बात प्रमुख हैं की सामजिक व्यवस्था के चलते स्त्री की शादी उसके करियर को बेच कर खरीदी गयी हैं और मै इस व्यवस्था के विरुद्ध लिखती हूँ ना की पुरूष के विरुद्ध . पर क्युकी आप पुरूष हैं और इस व्यवस्था को सही मानते हैं सो आप को मे पुरूष विरोधी दिखती हूँ .

    नौकरी को मूलतः जीवन की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का ‘साधन’ मानना चाहिए इसे एक ‘साध्य’ के रुप में जीवन का श्रेय-प्रेय मान लेना ठीक नहीं है।


    ये बात पुरुषों पर भी लागू क्यों नहीं होती ?? क्यों नौकरी पुरुषों की सही हैं और स्त्री की प्रश्नवाचक . मै समानता की बात करती हूँ जो व्यवस्था मे नहीं हैं .
    इस लड़की को संवेदना की नहीं जरुरत हैं . अगर जरुरत हैं तो व्यवस्था मे बदलाव की ताकि फिर किसी लड़की को ये दिन ना देखना पड़े आप का ब्लॉग लिंक बहुत सी महिला ब्लॉगर को भेजा हैं शायद कोई और भी कुछ कहे मुझे पूर्वाग्रही पुरुष-विरोधी कह कर आप को सुख मिलता हैं तो कोई बात नहीं पर कभी ek भी मेरी प्सोत दिखा दे जहाँ मेने किसी भी पुरूष के विरोध मै लिखा हो . मेने हमेशा सिस्टम के विरोध मै लिखा हैं

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  18. लडकी को ही नौकरी प्राप्त होनी चाहिये !!इतनी छोटी सी बात उस पिता को समझ मे नही आती की लडकी खुद कुछ सालो मे अपने गौने के लिये पैसा अपने वेतन से इक्ठ्ठा कर लेगी !!

    वैसे शादी के लिये प्रेम आवश्यक है गौने दहेज और समाज का व्यपार नही !!

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  19. कुछ बातें कानूनी रूप से सही होतीं हैं और कुछ सामाजिक रूप से. हमें ख़ुद को ऎसी परिस्थिति में खड़े करके ये देखना होगा कि हम क्या करते? आज हम सामाजिक-आर्थिक रूप से कितने भी आगे क्यों न बढ़ गए हों पर अपनी सोच को पीछे ही स्थिर किए हैं. ये बात सही है कि लड़की को नौकरी करनी (मिलनी) चाहिए, गोना दो-तीन साल बाद हो जाता.....पर क्या गौना लड़की या लड़की के बाप की मर्जी अकेले पर ही टिका रहता है कि जब चाह किया जब चाह नहीं किया?
    यदि किसी लड़की के गौने में इतना समय लगता है तो तमाम तरह की बातें बननी शुरू हो जातीं हैं (विशेष कर गाँव में) बहरहाल समस्या इस तरह की है कि हम लोग दूर बैठ कर सिर्फ़ आदर्शात्मक बातें ही कर सकते हैं वास्तविकता से जो पिता जूझ रहा है उससे पूछो तब पता लगेगा.........

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  20. यह बात समझ में नहीं आयी कि जो लड़का अपने गाँव की दूसरी लडकी के गौने का खर्च उठा सकता है वह चपरासी से भी कम तनख्वाह वाली (जैसा कि पोस्ट में पढा) इस नौकरी के लिए उल्टे-सीधे रास्ते क्यों अपना रहा है?

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  21. निर्णय की दुविधा वाली बात सही है। लड़की के गौने की बात सही है। सामाजिकता की बात अपनी जगह है। लेकिन अगर सही निर्णय की बात कही जाये तो वही होना चाहिये जो नियम कहता है। लड़की अगर नियमानुसार उचित अभ्यर्थी है तो उसका चुनाव होना चाहिये। अधिकारी के कर्तव्यों में यह भी आता है कि वह तनाव या दबाव की स्थिति में कैसे काम करता है। यह उसकी नौकरी का हिस्सा है। लड़की जब अपनी ससुराल चली जायेगी तब की तब देखी जायेगी। नियमानुसार लड़की का चयन अगर उचित है तो उसका चयन होना चाहिये। बाकी चीजें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी।

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  22. सारी चर्चा पढ़ी । दिनेश जी की बात सही है । रचना जी पर अभियोग लगाना एक आदत सी बनती जा रही है। और यह ब्रा बर्निंग कहाँ से आ गया ? वैसे भी हमारा वस्त्र है, हम चाहे जो करें, पहनें या जलाएँ।
    मूल बात यह है कि यदि लड़की मेरिट में सबसे आगे नहीं होती, यदि शिक्षामित्र योजना ना आरम्भ की जाती, तो क्या पिता बेटी का गौना नहीं करता ? मैं नहीं कहती कि विवाह या गौने में पैसा खर्च करना सही है परन्तु यह पिता तो इसे सही या कहिए अपनी व बेटी की नियति मानकर चल ही रहा था । सो क्या विवाह उसने यह सोचकर किया था कि जब बेटी की शिक्षामित्र की नौकरी छोड़ने के लिए कोई उन्हें पैसा देगा तो उससे वह गौना करवाएगा ? नहीं ना ? फिर अब वह हाथ आता पैसा जाने नहीं देना चाहता। यह भी सोचने की बात है कि बेटी को जो आय होती वह पिता की योजना से अतिरिक्त होती ।
    बहुत संभव है कि पिता बहुत गरीब व असहाय होगा । परन्तु क्या वैसी ही गरीब व असहाय उसकी पुत्री नहीं है ? यह एक ऐसा अवसर उसे जीवन में मिल रहा था जब वह स्वावलंबी होने का स्वाद चख सकती थी । शायद यह उसका जीवन बदल देता । शायद कल वह प्रताड़नाएं ( जो शायद नहीं मिलें परन्तु बहुत सम्भव है मिलें ) सहने से इनकार कर देती । क्यों पुरुष प्रताड़ना सहना अपनी नियति मानकर नहीं चलता ? कारण आदिकाल से उसका स्वतंत्र व स्वावलंबी होना है । स्त्रियों की नौकरी केवल धन अर्जन का ही जरिया नहीं होती वह आत्मविश्वास, स्वावलंबी होने की पहली सीढ़ी होती है । यदि हम यह सीढ़ी ही उसके पैर पड़ने से पहले सरका देंगे तो स्त्री का सशक्तिकरण एक नारा ही बनकर रह जाएगा ।
    जहाँ तक घर चलाना नौकरी से अधिक सम्मानजनक व कठिन काम होने की बात है और स्त्री को तभी काम करना चाहिए जब उसके पास पैसे की कमी हो वाले तर्क की बात है तो यह भी सोचना होगा कि क्या अमीर घरानों , पैतृक सम्पत्ति वाले पुरुषों को नौकरी नहीं करनी चाहिए ? क्योंकि उन्हें पैसे की आवश्यकता नहीं है । दूसरी बात यह कि जब प्यास लगेगी तभी कुँआ खोदेंगे क्या ? और जब स्त्री को पैसे का अभाव होगा तब क्या नौकरियाँ उसकी राहों में पलकें बिछाएँ बैठी होंगी ? क्या चालीस या पचास या साठ वर्ष में विधवा, या तलाकशुदा होने वाली, या पति की नौकरी न रहने पर उस उम्र में नौकरी खोजने वाली स्त्री को कोई नौकरी सरलता से मिलेगी ? मैं जानती हूँ कि इस उम्र में यदि मैं नौकरी खोजने निकलूँगी तो शायद ही कोई सम्मानजनक नौकरी मिले ।
    सामाजिक कुरीतियों को मजबूरी मानकर चलाने को आप सही कहना चाहें तो कह सकते हैं परन्तु कम से कम जो अधिकार कानून स्त्री को दे रहा है उन्हें समाज के नाम पर मत छीनिए । वैसे भी उसके पास अधिकारों की बहुत कमी है और कर्त्तव्यों व नसीहतों की बहुतायत !
    घुघूती बासूती

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  23. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ,नमस्कार, मै आप की बात से सहमत हुं,जो महिलये नोकरी करती है, पेसो के लिये उन की तन्खा कितनी भी क्यो ना, लेकिन जरा उन के बच्चो को ध्यान से देखॊ,आप का लेख आंखे खोलने के लिये काफ़ी है, हां मजबुरी मै अगर किसी ओरत को काम करना पडे तो अलग बात है, ओर अगर कोई महिला ज्यादा पढ लिख जाती है तो जरुरी नही उस ने शिक्षा सिर्फ़ पेसा कमाने के लिये ही पायी है, नारी का शिक्षक होना अच्छा है, लेकिन नोकरी करना जरुरी नही....
    मुझे इस लडकी से हमदर्दी है ओर उसे उस का हक भी मिलना चाहिये, नीचे लिखे शब्द आप के ही है, लेकिन यह शव्द मेरे दिल की आवाज है....
    नौकरी करने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण और कठिन कार्य परिवार का सुचारु संचालन है। स्त्री यह काम करने में पुरुषों से ज्यादा सक्षम और प्रवीण है, इसलिए यदि उसके नौकरी किये बगैर घर में पर्याप्त पैसा आ जा रहा है तो उसे इस बेहतर जिम्मेदारी का कार्य करना चाहिए। क्या आपने ऐसी महिलाओं को नहीं देखा जो नौकरी से लाखो-करोड़ो कमाती हैं लेकिन उनका पारिवारिक जीवन छिन्न भिन्न हो चुका है?
    धन्यवाद

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  24. बन्धु,तीन व्यक्ति आप का मोबाइल नम्बर पूँछ रहे थे।मैनें उन्हें आप का नम्बर तो नहीं दिया किन्तु आप के घर का पता अवश्य दे दिया है।वे आज रात्रि आप के घर अवश्य पहुँचेंगे।उनके नाम हैं सुख,शान्ति और समृद्धि।कृपया उनका स्वागत और सम्मान करें।मैने उनसे कह दिया है कि वे आप के घर में स्थायी रुप से रहें और आप उनकी यथेष्ट देखभाल करेंगे और वे भी आपके लिए सदैव उपलब्ध रहेंगे।प्रकाश पर्व दीपावली आपको यशस्वी और परिवार को प्रसन्न रखे।

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  25. हमारे समाज की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि हम हर स्थिति और समस्या को स्त्री-पुरूष, बिहारी-मराठी, ब्राह्मण-शूद्र, हिंदू-मुसलमान या अगड़े-पिछड़े के रूप में बाँट डालते हैं। इससे समस्या का समाधान तो निकलता नहीं, हाँ चाय की प्याली में तूफ़ान जरुर उठ जाता है; और चूहा देख कर डर जाने वाले लोगों को नाखून कटा कर शहीद बनने का मौका भी मिल जाता है। इस मसले पर यही हो रहा है।

    यहाँ समझने की जरुरत है कि समाज में यह विद्रूप आया ही क्यों? क्यों एक पिता को अपनी ही बेटी के गौने के लिए उसके भविष्य का सौदा करना पड़ता है? क्यों एक नौजवान को दूसरे की टांग खींच कर अपने लिए रास्ता बनाना पड़ता है? क्यों उत्तर प्रदेश में लगातार बेकारी बढ़ती ही जा रही है?

    कभी आपने गौर किया कि पिछले 30 वर्षों में यह राज्य सिर्फ़ उद्योग विहीन होता गया है, और कृषि विहीन भी। इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

    उनकी गिरेबान पकड़ने के बजाय अगर हम स्त्री-पुरूष और साहित्य-दर्शन की बेवकूफियों में उलझे हैं, तो गिद्धों का ही काम कर रहे हैं. दूसरों की समस्याओं रूपी लाशों पर टकटकी लगाए बैठे हैं कि गिरें और हम उन पर घडियाली आंसू बहाएं और मजे लें.

    मेरी तो यही राय है; और जिन्हें बुरा लगा हो उससे मैं क्षमा प्रार्थी भी नहीं हूँ.

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  26. यह मामला तो बहुत स्पष्ट सा है -गौने केबाद तो उस महिला को गाँव में रहना ही नही है ,इसलिए उसके पिता का निर्णय बिल्कुल उचित है !

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  27. AHA
    VAH BHAI
    PRIMARY SCHOOLS KI CHARCHA !

    LAGTA HAI KI AB MAJA AATA RAHGA
    MAI COMMENTS DENE FIR AAUNGA

    BYE!

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  28. मेरे अनुसार-

    1 - सब के पीछे आर्थिक विषमता छिपी है। लड़की अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है, वह आर्थिक रूप से सक्षम हो कर अपने जीवन के लिए कुछ आजादी बढ़ाना चाहती है। पिता आर्थिक रूप से तंग है वह अपनी लड़की का गौना कर के अपनी जिम्मेदारियों से निवृत्त होना चाहता है,उसे अपनी पुत्री के विवाहोपरांत जीवन से कोई लेना देना नहीं है। आर्थिक विषमता और बेरोजगारी ने एक युवक को इतना स्वार्थी बना दिया है कि वह लड़की के अधिकार को किसी भी कीमत पर खरीदकर अपना आर्थिक भविष्य सुरक्षित करना चाहता है और उस के लिए उस ने लड़की के पिता को धन दे कर इस के लिए तैयार कर लिया। निर्णय लेने वाला अधिकारी असमंजस में है कि वह क्या करे।@दिनेशराय द्विवेदी

    2 - मैं होता तो लड़की को चयनित करता, बाकी बातें बाद में सोंची जाती. @ अभिषेक ओझा

    3 - सही आधार पर नौकरी मिलनी चाहिये। अन्य समस्यायें अपना रास्ता खोज लेंगी। @Gyan Dutt Pandey

    4 - आज कल नौकरी करने वाली महिला की शादी ज्यादा सहूलियत से होती है @ रचना

    5 - निर्णय की दुविधा वाली बात सही है। लड़की के गौने की बात सही है। सामाजिकता की बात अपनी जगह है। लेकिन अगर सही निर्णय की बात कही जाये तो वही होना चाहिये जो नियम कहता है। लड़की अगर नियमानुसार उचित अभ्यर्थी है तो उसका चुनाव होना चाहिये। अधिकारी के कर्तव्यों में यह भी आता है कि वह तनाव या दबाव की स्थिति में कैसे काम करता है। यह उसकी नौकरी का हिस्सा है। लड़की जब अपनी ससुराल चली जायेगी तब की तब देखी जायेगी। नियमानुसार लड़की का चयन अगर उचित है तो उसका चयन होना चाहिये। बाकी चीजें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी। @ अनूप शुक्ल




    आप सभी को धन्यवाद् सहित ..

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