श्री कैलाशनाथजी
उन्होंने पूछने पर बताया कि वे चंदन का टीका तो लगाते ही हैं, नियमित रूप से इसके इत्र का प्रयोग भी करते हैं जो उनके दामाद जी रतलाम (मध्यप्रदेश) से विशेष तौर पर लाकर देते हैं। ...झट मुझे रवि रतलामी जी याद आ गये। सोचता हूँ उनसे अपनी दोस्ती प्रगाढ़ कर लूँ। खैर...
एक स्थानीय कार्यालय में बाबू की नौकरी से शुरुआत करके अनुभाग अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त होने वाले श्री कैलाश नाथ त्रिपाठी का शौक जानकर मुझे भी इत्र के बारे में कुछ जानने की इच्छा हो गयी। हाँलाकि इसका प्रयोग करना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। एक तो यह धारणा कि इसमें अनेक नुकसानदेह रासायनिक पदार्थ होते होंगे और दूसरा यह कि इसे विलासिता का प्रतीक माना जाता होगा। अपने पूर्वाग्रहों को छोड़ना आसान नहीं होता चाहे हम जितना पढ़-लिख जाँय। फिलहाल इधर-उधर से कुछ जानकारियाँ इकठ्ठा कर ली हैं जो यहाँ बाँट रहा हूँ।
यूं तो भारत में इत्र वैदिक काल से है लेकिन गुलाब से बने इत्र का इस्तेमाल पहली बार मुगलकाल में शुरू हुआ। मुगल बेगम नूरजहां ने खासतौर से गुलाब इत्र के लिए पश्चिम एशिया के कारीगरों को बुलवाया। ये कारीगर कन्नौज में आकर बसे और कन्नौज इत्र उद्योग का गढ़ बन गया।
कहते हैं महक में इतनी ताकत है कि वह हमें जिन्दादिल, ख़ुशमिज़ाज, और तरोताजा बना देती है। इसका प्रयोग महकने के अलावा दूसरों को रिझाने और स्फूर्ति पाने के लिए भी होता है। बारात में आये मेहमानों की खातिरदारी के लिए इत्र छिड़कने की मशीनें अब एक अनिवार्य आइटम हो गयी हैं। मेरा अनुभव है कि ये प्रायः ठीक काम नहीं करती हैं। नाच-नाचकर पसीने से तरब़तर बाराती जब मण्डप में प्रवेश करते हैं तो वहीं स्वागत द्वार पर ख़ुशबूदार पानी का फुहारा उन्हें और भिगो देता है। लोग उससे बच कर निकलने की कोशिश करने लगते हैं।
देवी-देवताओं की पूजा अर्चना में इत्र के प्रयोग से तो सभी परिचित हैं। राजस्थान के एक ‘गोविन्द जी मन्दिर’ में 10-12 हजार का इत्र रोज़ ही खर्च किया जाता है। जयपुर में रोज़ाना हिन्दू और मुस्लिम आस्था-केन्द्रों में औसतन 50 हजार का इत्र अर्पित किया जाता है। एक आँकड़े के मुताबिक केवल राजस्थान में प्रतिदिन करीब 08 लाख का इत्र हवा में ख़ुशबू बिखेरने की भेंट चढ़ जाता है जो त्यौहारों के मौसम में 12 लाख तक पहुँच जाता है। यहाँ से करीब 40 करोड़ का निर्यात भी प्रतिवर्ष होता है, जिसमें अजमेर का हिस्सा 03 करोड़ का है। ख्वाज़ा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भी इत्र की अच्छी खपत होती है। वैसे भारत में इसका कुल कारोबार करीब 730 करोड़ का हो गया है।
इत्र की अनेक किस्में होती हैं। अदर ऊद, कस्तूरी, जफ़रान, गुलाब, खस, चमेली, मोगरा, चंदन, केसर, सुहाग आदि किस्में अधिक लोकप्रिय हैं। परंपरागत भारतीय इत्र में गुलाब, केवड़ा, बेला, चमेली, मेंहदी, कदम, गेंदा, केसर और कस्तूरी शामिल हैं। इसके अलावा शमामा, शमाम-तुल-अंबर और मस्क अंबर जैसे हर्बल इत्र भी बाजार में मिल जाएंगे। अदर ऊद इत्र सबसे महंगा है जो असम में पायी जाने वाली लकड़ी ‘आसामकीट’ से तैयार किया जाता है। इसकी कीमत 09 लाख रुपये प्रति किलो है। जबकि गुलाब का इत्र 12 हजार से लेकर साढ़े-तीन लाख रुपये प्रति किलो की दर से मिल जाता है। इसकी गुणवत्ता में अन्तर समझना और पहचानना भी सबके बूते का नहीं है।
कन्नौज स्थित सुगंध एवं सुरस विकास केन्द्र (एफएफडीसी) के प्रधान निदेशक गोरख प्रसाद के अनुसार इत्र उद्योग संभावनाओं से भरा हुआ है। विदेशों में इन उत्पादों का बहुत बड़ा बाजार है, जहां कारोबारियों को अच्छा मुनाफा मिल सकता है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इत्र कारोबारियों को खरीदार खोजे नहीं मिल रहे हैं। वे बताते हैं कि मानकीकरण के अभाव में निर्यात बाजार में कन्नौज की हिस्सेदारी तेजी से घट रही है। ज्यादातर इकाइयों में आज भी पुराने तरीकों से ही इत्र तैयार किया जा रहा है। भारतीय मानक ब्यूरो ने चंदन तेल के लिए मानक बनाए हैं, लेकिन दूसरे उत्पादों के लिए कोई मानक नहीं है।
आजकल लोग रासायनिक सौंदर्य प्रसाधनों और रासायनिक दवाइयों की जगह हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों और हर्बल औषधि के इस्तेमाल को प्राथमिकता दे रहे हैं। हर्बल उत्पादों की इस माँग का ही असर है कि मध्यप्रदेश के सैकड़ों किसानों ने औषधीय पौधों और सुगंधित पौधों की खेती बड़े पैमाने पर करनी शुरू कर दी है। सबसे ज़्यादा माँग कोलियस, सफ़ेद मुसली, आम्बा हल्दी, लाल चंदन, मुलेठी, सर्वगंधा, नीम, जामुन गुठली, सोठ, ब्राम्ही और शंख पुष्पी की है।
डॉ. महेश परिमल चर्चा करते हैं कि हमारे बीच कई लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें कुछ ख़ुशबुओं से एलर्जी होती है। इसका कारण यही है कि उन्हें श्वसनतंत्र या फिर फेफड़ों में तक़लीफ है। कृत्रिम सुगंध ही शरीर पर दूरगामी असर डालती है। प्रकृति-प्रदत्त सुगंध कुछ और ही होती है। विदेशी परफ्यूम जहाँ अल्कोहल के साथ कृत्रिम रसायनों से बनते हैं, वहीं भारतीय इत्र चंदन के तेल और विविध प्रकार के फूलों के अर्क से बनते हैं। इसकी सुगंध का तो जवाब ही नहीं है। इस सुगंध से किसी को भी एलर्जी नहीं हो सकती। ऐसा मानना है द एनर्जी रिसर्च इंस्टीटयूट (TERI) के वैज्ञानिकों का।
(सिद्धार्थ)
बड़ी जानकारीपूर्ण पोस्ट रही. हम भी रवि रतलामी जी से संबंध बढ़ाते हैं, हम तो इत्र के बहुत शौकीन हैं. :) आभार इस पोस्ट का.
जवाब देंहटाएंवाह.
जवाब देंहटाएंइतनी सारी अच्छी जानकारियों के लिए आभार.
पूरी की पूरी पोस्ट सुगंधमय हो गई है.
Perfumes sub se badhiya FRANCE ke mane jate hain aur Main French + american perfumes per jaldee hee mere BLOG per likhoongi
जवाब देंहटाएंaapka lekh bahut achcha laga
ITRA mujhe behad pasand hain -
Bhartiya itron ki jaankari bahut kaam ki lagee - Shukriya
Lavanya
कामकाज के बीच मुलाकातियों से रचना के सूत्र
जवाब देंहटाएंपकड़ने की आपकी खूबी हमें पसंद आई।
इत्र पर जानकारीपूर्ण आलेख के लिए शुक्रिया...
खुशबू बिखेरती आपकी पोस्ट से सुवाषित रहा .विलास की वस्तु अनिवार्य भी होती है .
जवाब देंहटाएंवाकई आपने तो आज ज्ञान का पिटारा खोल दिया .रतलाम तो हमें बस ट्रेन के रस्ते में पड़ता था जहाँ सर्दियों में ट्रेन रुकने पर हम कुल्हड़ में चाय पीते थे....अब देखिये आपने एक नया नेत्र खोला है.....
जवाब देंहटाएंरतलाम में इत्र की कुछ दुकानें तो हैं, पर यहाँ का इत्र इतना अच्छा है मुझे नहीं पता था - इत्र व तेज खुशबुओं से थोड़ी एलर्जी हो जाती है अतः मैं इन्हें प्रयोग नहीं करता.
जवाब देंहटाएंटेरी (एनर्जी) द्वारा एलर्जी की बात अजूबा नहीं लगती?
ये तो इत्र पुराण हो गया ! बहुत साड़ी जानकारी मिल गई इत्र के बारे में. धन्यवाद.
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