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शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

हिन्दी ब्लॉग जगत का नारीवाद

हिन्दी ब्लाग जगत में अनेक नारीवादी चिट्ठे पढने और उनपर आने वाली गर्मा-गरम टिप्पणियों और प्रति-टिप्पणियों को पढ़ने के बाद मन में हलचल मच ही जाती है। ‘चोखेरबाली’ और ‘नारी ’ ब्लाग के क्या कहने…। समुद्र मंथन में एक से एक अमूल्य रत्न-सुभाषित निकल कर आ रहे हैं। बीच-बीच में कभी-कभार दोनो ओर से “विष रस भरा कनक घट जैसे” विचार भी प्रकट हो जाते हैं। अभी इस प्रक्रिया के ठोस निष्कर्ष आने बाकी हैं, फिर भी मन कभी- कभी उद्विग्न हो ही जाता है। डा.अनुराग की शब्दावली में कहूँ तो- ऐसे ही बवंडर के बीच कुछ लफ़्ज हवा में लड़ते से दिख गये जिन्हें पकड़कर काग़ज (सफ़्हे?) पर चिपका दिया और यह तुकान्त कविता बन गई-



चित्रकृति www.sulekha.com से साभार



प्रगतिशील स्वातन्त्र्य-प्रेम की लौ जलती है,
समता के अधिकारों की इच्छा पलती है।
इस समाज ने डाल दिये हैं जो भी बन्धन
छिन्न-भिन्न करने देखो,‘नारी’ चलती है॥

घर की देवी, पुण्य-प्रसूता, कुल की रानी,
ममतामयी, सहचरी, प्रिया, बात-बेमानी।
अब दुर्गा, काली का रूप धर रही माया;
करुणा छोड़ ध्वंस करने की इसने ठानी॥

वैवाहिक बंधन अब बेड़ी सा लगता है,
है नर का वर्चस्व, भाव ऐसा जगता है।
इस अन्याय भरी दुनिया के खण्डन से ही;
इनके मन से क्षोभ-कलुष देखो भगता है॥

जंगल के बाहर मनुष्य का वो आ जाना,
नर-नारी के मिलन-प्रणय का नियम बनाना।
घर, परिवार, समाज, देश की रचना करके
कहतीं, “नर ने बुना स्वार्थ का ताना-बाना”॥

पढ़ी ‘सभ्यता के विकास’ की गाथा सबने,
इन्सानी फ़ितरत को अर्स दिया था रब़ ने।
इन कदमों को रोक सकेगी क्या चिन्गारी;
जिसे हवा देती हैं नारीवादी बहनें॥

क्या लम्बी यात्रा पर निकला पुरुष अकेला?
बिन नारी क्या सृजित कर लिया जग का मेला?
इस निसर्ग के कर्णधार से पूछ लीजिये,
जिसने देखी प्रथम-प्रणय की वह शुभ बेला॥

प्रकृति मनुज की है ऐसी, ‘होती गलती है’,
पर विवेक से, संयम से यह भी टलती है।
है ‘सत्यार्थ मित्र’ को पीड़ा चरमपंथ से;
छिन्न-भिन्न करती नारी मन को खलती है॥

(सिद्धार्थ)

16 टिप्‍पणियां:

  1. kyaa baata hai!बहुत बढिया लिखा है-

    क्या लम्बी यात्रा पर निकला पुरुष अकेला?
    बिन नारी क्या सृजित कर लिया जग का मेला?
    इस निसर्ग के कर्णधार से पूछ लीजिये,
    जिसने देखी प्रथम-प्रणय की वह शुभ बेला॥

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  2. सही जा रहे है आप.. शुभकामनाए लेते जाइए

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. समुद्र मंथन में एक से एक अमूल्य रत्न-सुभाषित निकल कर आ रहे हैं। बीच-बीच में कभी-कभार दोनो ओर से “विष रस भरा कनक घट जैसे” विचार भी प्रकट हो जाते हैं। अभी इस प्रक्रिया के ठोस निष्कर्ष आने बाकी हैं, फिर भी मन कभी- कभी उद्विग्न हो ही जाता है।
    ------
    मन उद्विग्न हुआ तो बहस का उद्देश्य बहुत सीमा तक प्राप्त हो गया । स्त्री की लड़ाई पुरुष से पीछा छुड़ाने की नही उसका ब्रेन वॉश करने की है :-)कृपया ब्रेन वॉश शब्द से आतंकित न हों !! अब तक स्त्री का भी हुआ रखा था , पर यकीन मानिये हमारी ओर से बॉस बनने और सबॉर्डिनेट बनाने की कोशिश कतई नही है बलकि "टीम" बनाने की मंशा है । उम्मीद है आप जैसे कुछ साथी इस टीम में शामिल हैं और हम सही जा रहे हैं ।

    शुभकामनाएँ !

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  5. यह ऊपर सुजाता जी टीम स्पिरिट की बात कर रही हैं। बड़ा सुलझा विचार है।
    मैं तो सोचता था कि इन ब्लॉगों पर पुरुष को बहुत कोसना चलता होगा!
    आपकी कविता बहुत अच्छी है मित्र!

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  6. shandar aur jaandar kavita hai ji.
    aapne dono taraf ki baaten kah daali.
    jawab nahin aapka.

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  7. बढ़िया सार्थक रचना। सुजाता की टिप्पणी से तो सार्थकता सिद्ध भी हो गई सिद्धार्थ भाई...

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  8. आप को नारी ब्लॉग मे कुछ सही लगा सो आप ने यहाँ लिखा थैंक्स . नारी की लडाई पुरूष से नहीं हैं नारी की लड़ाई समाज की उस सोच से हैं जो रुढिवादी हैं . नारी न कमतर हैं ज्यादा बस संविधान मे पुरूष के बराबर हैं पर व्यवहार मे समाज मे ये नहीं हो पाया हैं आप को नारी ब्लॉग मे कुछ पड़ने लायक लगा जान कर खुशी हुई बस विनर्म निवेदन हैं नारी के किये हुए हर कार्य को "नारीवाद " का फतवा देना ही ग़लत हैं । क्योकि नारीवाद को समाज नेगेटिव सोच से देखता हैं ।
    आप की कविता सुंदर हैं

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  9. शिक्षा ओर सोच है जिस पर अब सारी उम्मीदे टिकी है.......कही एक कथन पड़ रहा था की जब स्त्रिया घर में थी तब भी दिक्कत थी ओर जब बाहर है .तब ओर दिक्कते बढ़ गयी है....स्त्री एक माँ ,बहन ,पत्नी भी है...ओर एक उसका अपना अस्तित्व जिस तरह पुरूष उसके बगैर अधूरा है..स्त्री भी पुरूष के बगैर अधूरी है......जब दोनों एक दूसरे की भावनायो का सम्मान करते हुए साथ चलेंगे तभी समाज का ,घर का भला होगा ओर हाँ आपकी कविता बहुत अच्छी है.......

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  10. आपने बडे सुलझे विचारोँवाली
    कविता लिखी है
    - लावण्या

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  11. ‘सत्यार्थ मित्र’ को पीड़ा चरमपंथ से

    सिद्धार्थजी, बहुत शानदार लिखा है

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  12. कविता लाजबाब है..देर से आया..जो सजा मुकर्रर करिये, झेल लेंगे. :)

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आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)