(... भाग 1 से आगे)
सुरम्य आश्रम सरीखे आवासीय परिसर 'मेघदूत' से जब हम विदा होने लगे तो DrArvind Mishra जी ने हमें सलाह दी कि बनारस से पहले जौनपुर से लगभग 12 किमी. आगे एक प्राचीन मंदिर है - त्रिलोचन महादेव, उसे भी देखते जाँय। इसप्रकार अपनी तीर्थयात्रा में हमने इस पवित्र स्थान को भी जोड़ लिया।
त्रिलोचन महादेव मंदिर का परिसर अभी सरकारी कृपा की बाट जोह रहा है। यहाँ श्रद्धालुओं की ठीक-ठाक भीड़ थी। ठेले-खोमचे व गुमटियों में विविध प्रकार की दुकानें सजी हुई थीं। एक ग्रामीण मेले का दृश्य उपस्थित था। श्रीमती जी ने एक ठेले पर गर्मागर्म जलेबी छनती देखकर कहा कि दर्शन के बाद इसे लिया जाएगा। हमने मंदिर के बरामदे से लगे असंख्य पुजारी गण की चौकियां देखीं जहाँ पूजन व जलाभिषेक के साधन उपलब्ध थे। बेलपत्र, भांग-धतूर व मंदार पुष्प की प्रधानता वाले पूजन सामग्री का दोना लेकर और माथे पर चंदन का औदार्यपूर्ण लेप व ॐ का तिलक लगवाकर हमने लोटे में जल भरा और मंदिर के गर्भगृह में जाकर शिवलिंग का दर्शन-पूजन किया। आशुतोष औघड़दानी को जल चढ़ाकर मैंने मन ही मन कहा कि मुझे जो चाहिए वह मुझसे बेहतर आप स्वयं जानते हैं इसलिए तदनुसार ही कृपा करें। ईश्वर की सदाशयता में पूरी आस्था रखना भक्तिभाव की पहली शर्त है।
बाहर आकर हमने कुछ सेल्फी ली जो मनचाही नहीं आ रही थी। एक वालंटियर तलाशना पड़ा। फिर हम जलेबी वाली जगह पर गए तो ठेला वहाँ से अंतर्ध्यान हो चुका था। शायद वहाँ की जलेबी पर हमारा नाम नहीं लिखा था। एक दूसरी दुकान पर कड़ाही चढ़ी तो थी लेकिन वहाँ की गंदगी देखकर श्रीमती जी का मूड बदल गया। हम फौरन बनारस की ओर चल पड़े।
बनारस में हम पूर्व निर्धारित गेस्ट-हाउस में रुके जिसे डाक-बंगला का नाम दिया गया है। छावनी क्षेत्र में स्थापित यह विशाल प्रांगण कदाचित् आजादी से पहले बना होगा। हरे-भरे लॉन और फलदार पेडों के बीच दूर-दूर बने सुइट्स का नामकरण विभिन्न नदियों के नाम पर किया गया है। हमें सरयू नामक कमरा मिला था। बगल में ही राप्ती और ताप्ती नामक कमरे थे। किचेन के सामने वाले लॉन में बारिश का पानी जमा था। इसमें सफेद बत्तखों का झुंड अठखेलियाँ कर रहा था। हम इस मनोरम दृश्य को कैमरे में कैद करने का लोभ संवरण नहीं कर सके। परिसर में दौड़ते एक सफेद खरगोश की तस्वीर हम नहीं खींच सके।
कमरे में सभी मौलिक सुविधाएं मौजूद थीं। करीब तीन सौ किमी. की ड्राइविंग करने के बाद आराम तो करना ही था। हमने जल्दी से लंच लिया। स्थानीय सहयोगी से वार्ता के बाद मंदिर जाने का कार्यक्रम शाम पांच बजे के लिए तय हुआ। इसमें अभी दो घंटे बाकी थे। इसलिए हम चादर तानकर सो गए।
(...जारी)
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