आजकल छुट्टियाँ मनाने का सबसे लोकप्रिय ठिकाना पहाड़ों के बीच पसंद किया जा रहा है। मैदानी इलाकों की गर्मी से राहत पाने के लिए पर्यटक भारी संख्या में उत्तराखंड व हिमांचल के पहाड़ों की ओर रुख कर रहे हैं। मैं सहारनपुर में राज्य सरकार के आदेशानुसार विश्वविद्यालय व मेडिकल कॉलेज की नौकरी बजा रहा हूँ। यहाँ से देहरादून, मसूरी, ऋषिकेश, हरिद्वार, कोटद्वार, लैन्सडाउन आदि की दूरी बस इतनी ही है कि घर से नाश्ता करके निकलें तो वहाँ घूमघाम कर शाम तक वापस लौट आयें। लेकिन मेरे प्रकृतिप्रेमी मित्र प्रोफेसर संदीप का मानना है कि दूर देश से आने वाले पर्यटकों की भीड़ से इन स्थानों की रमणीयता व वातावरण की शुद्धता पर ग्रहण लग गया है। यहाँ की सड़कों पर लंबा ट्रैफिक जाम और होटलों व रेस्तराओं में ठसाठस भरी जनसंख्या देखकर पर्यावरणीय पर्यटन का आनंद नहीं रह जाता।
देहरादून जिले में ही चकराता क्षेत्र की पहाड़ियों पर बाहरी पर्यटकों का दबाव अपेक्षाकृत नहीं के बराबर है। पिछले 01 जनवरी को संदीप जी ने मुझे चकराता से ऊपर की ओर करीब 15 किलोमीटर चक्कर कटाते हुए एक जमी हुई झील पर उतार दिया था। यह पूरी तरह निर्जन और लगभग गोपनीय स्थल था जहाँ कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं थी।
ऐसे में पिछले सप्ताहांत एडवेंचर टुरिज़म के शौकीन संदीप जी ने मुझे उसी पहाड़ी क्षेत्र की सैर करायी जिसे अभी तक पर्यटन व्यवसाय की नजर नहीं लगी है। पिछले सप्ताहांत मेरी बेटी भी दिल्ली से सहारनपुर आ गयी थी। उसने जब पहाड़ की सैर की इच्छा जताई तो हम प्रोफेसर संदीप के साथ विकासनगर होते हुए चकराता की ओर निकाल पड़े। लेकिन चकराता की मुख्य सड़क से अलग अचानक मुड़कर जब उन्होंने दूसरा पतला रास्ता चढ़ना शुरू किया तो हमारा रोमांच दिल की धड़कने बढ़ाने वाले एक डर में बदलना शुरू हो गया।
बायीं ओर ऊंचे पहाड़ और उनसे लटकते पेड़ों की लड़ी और दायीं ओर बहुत गहरी खाई के बीच रेंगती हुई सर्पीली सड़क पर कोई रेलिंग नहीं बनी थी। अनेक अंधे मोड़ और जगह-जगह गिरे हुए पहाड़ी मलबे को पार करते हुए हम लगातार ऊंचाई पर चढ़ते जा रहे थे। थोड़ी ही देर में हमें विश्वास हो गया कि गाड़ी की स्टेअरिंग ह्वील बहुत ही कुशल हाथों में है और डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। आसपास की हरियाली और पहाड़ों में बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य हमें अपने जादुई आगोश में लेने लगा था। मनुष्य जाति के व्यावसायिक अतिक्रमण से बचा हुआ यह क्षेत्र वास्तव में नैसर्गिक सुख देने वाला है।
एक से एक सुंदर पेड़ अपनी मस्ती में डूबे हुए मिले जिन्हें देश-दुनिया की जहरीली हवा ने नहीं छुआ है। इनके बीच घूमते-चरते इक्का-दुक्का चौपाये जानवर दिखे जिनका कद सामान्य से छोटा और डील-डौल बिल्कुल देसी। अंततः हम उतपालटा व परोडी नामक स्थानों के बीच एक मोड़ पर बने एक छज्जेदार चबूतरे पर जाकर रुके जो पहाड़ की चोटी से कुछ कदम ही नीचे था।
यहाँ से बैठकर हम देर तक निहारते रहे - ऊंचे-नीचे विशाल पहाड़ों की हरियाली, उनपर स्थानीय किसानों के हाथों बने सीढ़ीदार खेतों की दृश्यावली, आसमान में तैरते दूध जैसे सफेद बादलों की अठखेली, ठंडी हवा में झूमते चीड़, देवदार व अन्य असंख्य किस्म के पेड़ों व झाड़ियों की स्वर-लहरी। वहाँ लाल-बैगनी फूलों से लबरेज झाड़ियाँ थीं तो भजकटया के कटीले पौधों की कतार भी थी।
वहाँ से निकट ही लाल बॉर्डर वाले सफेद मकानों की एक कॉलोनी दिखाई दी जो शायद सेना का कोई छोटा सा परिसर था। हम टहलते हुए उसके पास तक गए लेकिन ज्यादा दरियाफ्त करना गैरजरूरी लगा तो लौट आए। उसी चबूतरे के पास इधर आने वाले हम जैसे घुमंतू लोग रुककर फोटो खिंचवाते हैं। हमने भी तस्वीरें लीं।
इधर के स्थानीय घुमक्कड़ लोगों के लिए सस्ती सुविधा के रूप में खुली हुई एक गाड़ी सरपट दौड़ती मिली जिसमें खड़े होकर मुक्त आकाश में पहाड़ी हवाओं का आनंद लेते लड़के, लड़कियां, बच्चे, बूढ़े, औरतें और मर्द हँसते-खिलखिलाते चले जा रहे थे।
इतना आह्लादकारी व सुरम्य वातावरण था कि हमें वहाँ से लौटने का मन ही नहीं कर रहा था लेकिन मजबूरी थी। अंततः शाम ढलने से पहले हमें वहाँ से निकलना पड़ा। रास्ते में हम बुगयाल की एक ऐसी पहाड़ी के पास रुके जिसके ऊपर चढ़कर दोनों ओर की खाई देखी जा सकती थी। वहाँ भी अजीब आकर्षण था।
संदीप जी से जब मैंने कहा कि यहाँ एक बहुत अच्छा पर्यटन केंद्र बन सकता है तो वे असहमत होते हुए जो बोले उसका आशय यह था कि प्रकृति के कुछ हिस्सों को मानव जाति की व्यावसायिक पहुँच से दूर ही रखना चाहिए। कुछ जगहें प्राचीन ऋषि मुनियों की तरह तपस्या करने व मूल प्रकृति के प्रेमियों के विचरण के लिए अक्षुण्ण रहनी चाहिए।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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