सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग के विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार के लिए अच्छे पैनेल की तलाश करते हुए मैंने बहुत से लोगों तक इस सेमिनार की रूपरेखा पहुँचायी। ट्विट्टर और फेसबुक पर सक्रिय अनेक प्रोफाइलें देख डालीं। एक से बढ़कर एक व्यक्तित्व देखने को मिले। मैंने अपनी ओर से संदेश भेजे। बहुत से लोगों ने रुचि दिखायी। आने का वादा किया। कुछ लोग आना चाहते हुए भी निजी कारणों व अन्यत्र व्यस्तता से आने में असमर्थ थे। उन्होंने खेद के साथ सेमिनार के लिए शुभकामनाएँ व्यक्त कर दी। इसी सिलसिले में ट्विट्टर पर राजनैतिक रूप से सक्रिय दो महिला प्रवक्ताओं के बारे में एक मित्र के माध्यम से पता चला। आभासी पटल पर ही उनसे संपर्क हुआ। यद्यपि वे अंग्रेजी भाषा में लिखती हैं, दक्ष और सहज हैं फिर भी उनकी प्रोफाइल, लोकप्रियता, फॉलोवर्स की संख्या और राजनैतिक विषयों पर उनके ट्वीट्स देखकर मैं प्रभावित हुआ और इस सेमिनार में सोशल मीडिया और राजनीति विषयक सत्र के लिए उन्हें बुलाने का लोभ संवरण नहीं कर सका।
जब मेरे संदेश का जवाब दो दिनों तक नहीं आया तो मैंने फोन मिला दिया। औपचारिक अभिवादन के बाद उन्होंने कहा कि हम इसमें आना तो चाहते थे लेकिन एक झिझक की वजह से आने में संकोच कर रहे हैं। मैंने तफ़सील पूछी तो बोलीं- असल में हमारी हिंदी उतनी अच्छी नहीं है जितनी आप लोगों की है। आपका मेल देखने के बाद हमें लगा कि शायद उस मंच पर हिंदी के बड़े-बड़े साहित्यकार आयेंगे जिनके सामने हम लोग शुद्ध हिंदी में अपनी बात नहीं बोल पाएंगे। दूसरी नेत्री ने भी लगभग यही बात बतायी। कहने लगीं- मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि आप आयोजकों द्वारा हमारे चुनाव में जरूर कोई चूक हुई है। हम ऐसे तो हिंदी में बात-चीत कर लेते हैं लेकिन उतने बड़े मंच पर हिंदी के विद्वानों के बीच बोलना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा।
उनकी बातों का जो संक्षिप्त जवाब मैंने दिया और जिससे संतुष्ट होकर उन्होंने अपनी झिझक तोड़ी और आने की संभावना टटोलने और पूरा प्रयास करने का वादा किया वही सब मैं यहाँ थोड़ा विस्तार से बताना चाहता हूँ ताकि इस बहाने इस सेमिनार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण उद्देश्य को समझा जा सके।
आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी देश में हिंदी भाषा के प्रति आम दृष्टिकोण बहुत उत्साह वर्द्धक नहीं कहा जा सकता है। उत्तर भारत के तथाकथित हिंदी प्रदेशों में भी इसका स्थान जो होना चाहिए वह नहीं है। दक्षिण के गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों का तो कहना ही क्या? आज भी हिंदी को साहित्य रचने और स्कूल कॉलेज में एक विषय के रूप में पढ़ने –पढ़ाने वाली भाषा तो माना जाता है लेकिन आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को पढ़ने-समझने और दूसरों को पढ़ाने-समझाने के लिए इस भाषा पर भरोसा करने वाले बहुत कम हैं।
कविता, कहानी, ग़जल और उपन्यास लिखकर पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने या पुस्तक प्रकाशित कराने के लिए तो हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है लेकिन जब कोई वैज्ञानिक शोध पत्र लिखने की बात होती है या कानूनी, वाणिज्यिक, या आर्थिक मुद्दों पर कोई संदर्भ लेख लिखना होता है तो देश के विद्वान उसे अंग्रेजी में तैयार करते हैं और फिर आवश्यक होने पर उसका अनुवाद हिंदी के किसी विद्वान से कराया जाता है। भाषा के ऐसे विद्वान जिसे मूल विषय का शायद ही कोई ज्ञान होता है। ये अनुवादक कभी-कभी ऐसा अर्थ का अनर्थ कर देते हैं कि हँसी भी आती है और क्षोभ भी होता है। मैंने एक बार Pearl Harbor का अनुवाद ‘मोती पोताश्रय’ पढ़ा था तो बहुत देर तक इस पोंगा-पंडिताई पर कुढ़ता रहा। पाश्चात्य लेखकों की लिखी किताबों से तैयार इग्नू (IGNOU) की अनूदित अध्ययन सामग्री कभी पढ़ने को मिले तो इस कष्ट को समझा जा सकता है जहाँ MORE OFTEN THAN NOT को ‘‘नहीं से अधिक बहुधा’’ अनूदित करते हैं।
हमने आज भी हिंदी को एक पवित्रता का चोला पहनाकर उसे दीवार पर टंगी देवी-देवताओं की तस्वीर बना दी है जिसे केवल अगरबत्ती दिखायी जाती है और दूर से सिर झुकाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त कर दी जाती है। गनीमत है कि अभी इस तस्वीर पर चन्दन की माला नहीं टांग दी गयी है।
मुझे लगता है कि हिंदी को इस गोबर-गणेश की छवि से बाहर निकालकर एक आधुनिक चिन्तन-मनन और ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने, जीवनोपयोगी बातों को कहने समझने का माध्यम बनाने और सबसे बढ़कर रोजगार की भाषा बनाने का समय आ गया है। इसके लिए हिंदी के दरवाजे चारो ओर से खोलने होंगे। इसे प्रवचन की व्यास गद्दी और कवि-सम्मेलन के मंच से उतारकर भारतवर्ष और अखिल विश्व के आम जनमानस पर जमाना होगा। इसे बाजार में काम करने वालों से लेकर उसे नियंत्रित करने वालों तक सबकी जुबान पर चढ़ाना होगा। पांडित्य प्रदर्शन के बजाय सभी प्रकार के विचारों, तथ्यों, सिद्धान्तों, प्रयोगों, व्यापारों, नौकरियों, साक्षात्कारों, और आचार-व्यवहार में इसके प्रयोग को सहज और सरल बनाने के यत्न करने होंगे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की स्थापना अन्य के साथ-साथ कदाचित इस उद्देश्य से भी की गयी थी।
अधकचरी अंग्रेजी में गिट-पिट करने वालों को भी हम आधुनिक और पढ़ा-लिखा मान लेते हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले से उम्मीद करते हैं कि वह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परम्परा का पोषक हो। रूढ़िवादी हम हिंदी भाषा के व्याकरण और वर्तनी को लेकर इतने आग्रही हो जाते हैं कि इधर कदम बढ़ाने वाला अपना रास्ता मोड़ लेने को बाध्य हो जाय। जब कोई भारी-भारी शब्दों से लदी हुई अबूझ बात कहे, रस छंद अलंकार की कसौटी पर कसी हुई शुद्ध हिंदी का प्रयोग करे तभी उसे विद्वान कहा जाय और उसे सम्मान की माला पहनायी जाय; और फिर…? फिर एक ऊँचे मंच पर स्थापित करके अक्षत-फूल से पूज दिया जाय। बस, काम खत्म।
…ऐसी सोच वालों की जकड़बन्दी से हिंदी को छुड़ाये बगैर इसका भला नहीं होने वाला।
मुझे अच्छा लगता है जब फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग स्पेस में बिना कोई साहित्यिक दावा किये तमाम लोग अपने मन की बात हिंदी में कहते हैं। बहुत प्रभावशाली ढंग से कहते हैं। उसपर त्वरित प्रतिक्रियाएँ होती हैं और विचारों का बिन्दास आदान-प्रदान होता रहता है। यहाँ थोड़ी सी तकनीक अपनाकर अभिव्यक्ति का बड़ा सा माध्यम हमारे हाथ आ जाता है। लेकिन जब देखता हूँ कि देश के तमाम युवा अपनी हिंदी बात कहने के लिए रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं और इस मजबूरी में अपनी बात असंख्य संक्षेपाक्षरों में और बहुत खंडित तरीके से करते हैं तो दुख होता है। मन में एक कसक उठती है कि काश इन्हें यूनीकोड के बारे में पता होता, लिप्यान्तरण के औंजारों का पता होता तो वे अपनी बात अधिक सहज और सरल तरीके से कह पाते। रोमन में लिखी हुई हिंदी को प्रवाह के साथ पढ़ना कितना कठिन है…! उस बात का पूरा आनंद भी नहीं मिल पाता।
…तो क्या हमें इस विकलांगता से उबरने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
इंटरनेट अब कोई दूर-देश की चिड़िया नहीं है। यह अब हमारे घर-आंगन में चहकने वाली जीवन्त गौरैया है। ट्विटर का नाम शायद यही सोचकर पड़ा होगा। हिंदी ब्लॉग्स की संख्या पिछले दशक में जिस तेजी से बढ़ी उसपर फेसबुक और ट्विटर की तेजी ने थोड़ा ब्रेक लगा दिया। इसका कारण मूलतः तकनीकी है। इनके फॉर्मैट को देखिए। हम पलक झपकते ट्वीट कर लेते हैं और राह चलते फेसबुक पर स्टेटस लिखकर डाल देते हैं। लेकिन ब्लॉग पोस्ट लिखने के लिए थोड़ा समय तो देना ही पड़ता है। यहाँ हिंदी में पोस्ट लिखने के लिए यूनीकोड-देवनागरी जरूरी हो जाती है जबकि वे दोनो ‘छुटके’ (micro-blogging) रोमन में ही निपटाये चले जा रहे हैं। शार्टकट का जो सुभीता इन ‘छुटकों’ के यहाँ है वह ब्लॉग में नहीं। लेकिन कुछ स्थायी किस्म का सहेजकर रखने लायक उपयोगी और जानकारी पूर्ण आलेख लिखना हो तो फेसबुक/ ट्विटर का मंच टें बोल जाता है। यहाँ तो चाय-बैठकी वाली बतकही ही चल पाती है। फास्ट-फूड टाइप है जी यह; निस्संदेह इसका अलग मजा है। यह तकनीक और प्रारूप का अंतर है कि एक है जो एक दिन में कई बार हुआ जाता है तो दूसरा है जो कई दिन में एक बार हो पाता है।
सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग पर राष्ट्रीय सेमिनार कराने का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यही है कि हिंदी के प्रयोग को अधिक से अधिक बढ़ावा मिले। देवनागरी में लिखने की तकनीक सहज, सरल और सर्वसुलभ हो। इन माध्यमों का प्रयोग जो लोग धड़ल्ले से कर रहे हैं वे इसे हिंदी में आसानी से कर सकें। साथ ही इन माध्यमों ने हमारे सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में कैसा हस्तक्षेप किया है और पारंपरिक साहित्यिक मानकों की कसौटी पर हम कहाँ ठहरते हैं; इन प्रश्नों पर विचार करने और बड़ी बहस कराने की तैयारी की गयी है।
आज भी भारत में जिस एक भाषा को बोलना और पढ़ना-लिखना सबसे बड़ी संख्या में लोग जानते हैं वह हिंदी ही है। फिर भी हमें इंटरनेट पर अंग्रेजी और रोमन लिपि अधिक दिख रही है तो इसका एक कारण हमारा तकनीकी रूप से पिछड़ा होना है और दूसरा कारण हिंदी भाषा के प्रति हमारा रुढ़्वादी दृष्टिकोण है। इन दोनो कारणों को इतिहास की वस्तु बनाने में इस सेमिनार ने यदि थोड़ा भी योगदान किया तो यह हमारी सफलता होगी। इसीलिए हम आह्वान करते हैं उन सबका जिन्हें हिन्दी से प्यार है, हिन्दुस्तान से प्यार है और जो इन दोनो को गौरवशाली बनाने के लिए कुछ करना चाहते हैं। इंटरनेट पर हिंदी से जुड़िये और हिंदी का प्रयोग कीजिए। एक बार हिंदी से जुड़ जाने के बाद उसे अनगढ़ से सुगढ़ बनते देर नहीं लगेगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
आपका क्या ख्याल है? हमें जरूर बताइएगा।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
संतोष जी के साथ मैं शामिल हो रहा हूं और अपने 'हिंदी ब्लॉग बुक' के ख्याल की प्रारंभिक रूपरेखा भी पेश कर चुका हूं। इस को गति के गियर में डालकर तेजी से आगे बढ़ाने का कार्य आपके विश्वविद्यालय के बूते का ही है और वही इसे भली प्रकार से संभव और संचालित कर पाएगा। इस महती कार्य के लिए कतिपय विद्वत्जनों का का सलाहकार मंडल, तकनीकी विदों का समूह गठित किया जाना चाहिए। मुझे इस प्रकार के कार्य की पूर्णता में कतई संदेह नहीं है अपितु पूरा विश्वास है कि इसके जरिए हिंदी ब्लॉगिंग उस शिखर की ओर तेजी से बढ़ेगी, जिस ओर पहले से गतिमान रही है।
जवाब देंहटाएंज्ञानचक्षु खुल गए प्रभु !
जवाब देंहटाएंउन दोनों देवियों ने फिलहाल क्या तय किया?
जवाब देंहटाएंआप लगता है सेमीनार से पहले ही एक पूर्व -चर्चा करा लेना चाहते हैं ! जब हम यहीं निपट जायेगें तो वहां क्या होगा?
देखिये ब्लॉग पर गंभीर चर्चा चलना थोडा मुश्किल है . हाँ सेमीनार और उसकी प्रोसीडिंग तो गभीर विमर्श के लिए ही है!
सिद्धार्थ जी , हम गभीर चर्चा यहीं कर सकते हैं मगर चूंकि इसे इस माध्यम/विधा के अनुरूप नहीं पाते इसलिए हल्की फुल्की बातों तक ही यहाँ सीमित हो रहते हैं . हमने अपनी इमेज स्वाहा होने की कीमत पर भी यहाँ अपनी सहज सरल होने की प्रतिबद्धता कायम रखे हुए हैं -मगर फिर भी मित्र मुहं फुलाए रहते हैं कि मेरी हिन्दी क्लिष्ट और गरिष्ठ है !
आप कैसी भाषा चाहते हैं -रिक्शे वालों ,सगड़ीवालों की बोलचाल की भाषा या फिर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की भाषा -हमारा लक्ष्य कहीं बीच में है -
विद्वता की भाषा की अवहेलना या तिरस्कार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है -हाँ हमें सरलीकरण के लिए बीच के लोग चाहिए ! कहाँ लुप्त हुयी वह भाष्यकारों की परम्परा ...
उन देवियों की शंकाओं को निर्मूल करिए -आप या हम भाष्यकार बन जायेगें! भाषाओं में कोई टकराहट नहीं है -झोल हमारे सोच में है !
आदरणीय, मुझे पता था कि आप शंकाग्रस्त होने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देंगे। “विद्वता की भाषा की अवहेलना या तिरस्कार” करने के बारे में कोई हिंदी प्रेमी सोच भी कैसे सकता है? आप तो मेरी टेक पिछले पाँच साल से जानते हैं।
हटाएंयहाँ मेरा आशय यह था कि हिंदी में अपनी बात कहने के लिए यह अनिवार्य शर्त नहीं होनी चाहिए कि आप भाषा के बारे में जयशंकर प्रसाद या हजारी प्रसाद द्विवेदी सरीखे हों। इंटरनेट पर तो कतई नहीं। मैंने तो टूटी-फूटी हिंदी में भी बात कर सकने लायक सभी लोगों का आह्वान किया है और यह विश्वास व्यक्त किया है कि एक बार यहाँ जुड़ जाने के बाद “अनगढ़ को सुगढ़ होते देर नहीं लगेगी।”
उन दो नेत्रियों का पैगाम एक-दो दिन में मिलने वाला है।
जितने अधिक विषयों के संप्रेषण का उत्तरदायित्व हिन्दी उठायेगी, उतना विस्तार पायेगी। जब अच्छा लिखा जायेगा, सच्चा लिखा जायेगा तो लोग पढ़ेंगे ही।
जवाब देंहटाएं“जब अच्छा लिखा जायेगा, सच्चा लिखा जायेगा तो लोग पढ़ेंगे ही।” पूरी तरह सहमत हूँ। मेरी इच्छा यही है कि जो अच्छा लिख सकते हैं और हिंदी जानते हैं वे हिंदी में लिखें और भरपूर लिखें। पढ़ने वालों की बेशक कमी नहीं होगी।
हटाएंबस इतना कह सकता हूँ कि जीवन में जैसे-जैसे साल जुड़ रहे हैं, हिंदी प्रेम और गहरा होता चला जा रहा है. सेमिनार के लिए शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंहिंदी बोलने वाले से उम्मीद करते हैं कि वह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परम्परा का पोषक हो। रूढ़िवादी हम हिंदी भाषा के व्याकरण और वर्तनी को लेकर इतने आग्रही हो जाते हैं कि इधर कदम बढ़ाने वाला अपना रास्ता मोड़ लेने को बाध्य हो जाय। जब कोई भारी-भारी शब्दों से लदी हुई अबूझ बात कहे, रस छंद अलंकार की कसौटी पर कसी हुई शुद्ध हिंदी का प्रयोग करे तभी उसे विद्वान कहा जाय और उसे सम्मान की माला पहनायी जाय; और फिर…? फिर एक ऊँचे मंच पर स्थापित करके अक्षत-फूल से पूज दिया जाय। बस, काम खत्म।
जवाब देंहटाएंi have said this time and again that hindi is the language of heart for all of us .
To blog in hindi means we love the language so much that inspite of our inability to continue with hindi language in the zone where we earn our lively hood we want to write in that language
see these links and may be it will help in this subject
link 1 http://mypoeticresponse.blogspot.in/2011/01/blog-post.html
link 2 Please open and save it as it will be redirected
http://c2amar.blogspot.in/2009/10/blog-post.html
Link 3
http://mypoeticresponse.blogspot.in/2011/09/blog-post_23.html
जब मै यहाँ आई थी ये बात मैने पुरजोर तरीके से कहीं थी पर "हिंदी ब्लॉगर " ने तब भी मखोल उड़ाया था http://masijeevi.blogspot.in/2007/08/blog-post_04.html
और आज भी नारी ब्लॉग पर हुए काम को नकारने के लिये कहा जाता हैं
http://chitthacharcha.blogspot.com/2013/04/blog-post_18.html?showComment=1366249782387#c6659635119320821234
'हाँ,यहाँ आप जिस 'नारी' की पुरजोर वक़ालत कर रहे हैं,उसके हिज्जे-नुक्तों की सामान्य सी गलतियाँ नहीं खटकती,जबकि हिंदी हमारी मातृभाषा है.इस पर दो बोल कहकर आप उसे अभयदान दे देते हैं क्योंकि वह 'सामाजिक-परिवर्तन' जैसे क्रान्तिकारी काम में जुटी हुई है."
हिंदी ब्लॉग लेखन इस लिये ही नहीं पनपा हैं क्युकी लोग हिंदी के टाइपिस्ट बनगए हैं और टाइपिंग की मिस्टेक को गलत हिंदी समझते हैं।
इसके अलावा एक और लिंक दे रही हूँ http://chitthacharcha.blogspot.com/2009/09/blog-post_17.html?showComment=1253248284795#c3956094143243470925
अगर आप ये सब लिंक पढेगे तो एक पेपर क्या कयी पेपर तैयार हो सकते हैं और जो बात २००७ से मै निरंतर पुर जोर तरीके कह रही हूँ उसपर आप अब चिंतन करवा रहे हैं जान कर अच्छा लगा
इतने लिंक एक साथ देने के लिए आभार। मैं फिर से दुहराना चाहूंगा कि अब हिंदी की छवि बदलनी होगी।
हटाएंजब लोग हिंदी में लिखने लगेंगे तो शुद्ध भी लिखने लगेंगे। उन्हें यह समझना चाहिए कि बड़े-बड़े हिंदी के लेखक भी अपनी किताब लिखने के बाद प्रूफ जंचवाये बिना उसे प्रेस में छपने के लिए नहीं देते। गलती किसी से भी हो सकती है। फर्क सिर्फ इतना है कि विद्वान कम गलती करते हैं और विद्यार्थी अधिक। निःसंकोच हिंदी का प्रयोग करना चाहिए और एक दूसरे की त्रुटियों को इंगित करते हुए शुद्ध करने वाले के प्रति आभार का भाव रखना चाहिए। यहाँ ब्ल़ॉग में धड़ल्ले से लिखने और पोस्ट करने की अपनी आदत का लाभ यह हुआ कि मुझे अपनी बहुत सी गलतियाँ समझ में आई और अब उसे शुद्ध लिखने लगा।
जवाब देंहटाएंहमारे जैसे लोग जो मात्र हिंदी प्रेमी हैं और जिनका विश्वविद्यालय स्तर में अध्ययन का कोई अनुभव नहीं है, आजीवन हिंदी के विद्यार्थी ही रहेंगे और विद्वानो की सतसंगति का लाभ उटाते रहेंगे। जो अपने को कम जानकार समझते हैं वे यह मान लें कि कोई भी व्यक्ति कभी पूर्ण नहीं होता। मैं इससे भी सहमत हूँ कि यह जरूरी नहीं कि व्याकरण और भाषा के विद्वान ही अच्छी कविता, कहानी या आलेख लिख सकते हैं। इसके लिए भाव, अनुभव, हृदय की पवित्रता, लिखने वाले का समाज के प्रति नज़रिया, उस विषय का ज्ञान तथा और भी कई बातें उसके लेखन को प्रभावित करती है।
साथ ही मजेदार सत्य यह भी है कि घर बैठे विचार व्यक्त करना और मंच पर खड़े होकर माइक पर अपने विचार अभिव्यक्त करना दोनो में भी फर्क है। कितने ही लोग हैं जिनकी जुबान माइक पर जाकर लड़ख़ड़ाने लगती है। कितने ही कुशल वक्ता ऐसे हैं जो भले एक पेज शुद्ध न लिख पायें मगर घंटों माइक पर बोलते रह सकते हैं।
हिंदी में लिखने से घबड़ाने के पीछे अपने भीतर की हीन भावना और दूसरों के द्वारा उपहास का पात्र बन जाने का भय होता है। हमे यह संकोच त्यागना होगा और दूसरों को उसकी त्रुटियाँ बताते वक्त भी ढेर विद्वान न बनते हुए चुपके से उसकी त्रुटियों को इंगित करना होगा। मुझे भी यहाँ ब्लॉग में मित्रों ने कई बार मेल से त्रुटियाँ बताई हैं और मैंने उनके प्रति आभारी होते हुए अपनी पोस्ट को शुद्ध किया है। हम जो हैं उससे अच्छे बन सकते हैं सिर्फ संकोच और झूठे अभिमान का त्याग करना होगा। हिंदी में लिखें या इंगलिश में लिखें लेकिन हिंगलिश का प्रयोग जितनी जल्दी हो छोड़ दें यही अच्छा है।
लगता है अधिक लिख गया। अस्तु यहीं विराम देता हूँ। कोई त्रुटि हो तो कृपया इंगित करने का कष्ट करें ताकि सुधर सकूँ। :)
http://mypoemsmyemotions.blogspot.in/2009/09/blog-post_14.html
जवाब देंहटाएंand this from your own blog post
http://satyarthmitra.blogspot.com/2008/10/blog-post_27.html?showComment=1225121100000#c5714539334375086127
and most important is that EVEN YOU said things like "उनका जगजाहिर चरमपंथ असीम ऊर्जा से लबरेज है। शायद विदेशी सहायता पा रहा है। " http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2008/09/blog-post_1228.html
हिंदी में लिखने वालों के लिए बडी ही मुश्किल स्थिति है ... मैं तो अपने अनुभवों को हिंदी के सिवा दूसरे भाषा में अभिव्यक्ति कभी नहीं देना चाहती थी ... गत्यात्मक ज्योतिष का अनुवाद भी नहीं करवाना चाहती थी ... पर हिंदी भाषियों की उपेक्षा से मन विचलित हो जाता है ... शायद भविष्य में इसके विकास के लिए अंग्रेजी की शरण में जाना पडे ... वैसे इतनी जल्दी हार मानने का भी इरादा नहीं है !!
जवाब देंहटाएंआयोजन के लिए आयोजकों को शुभकामनाएं !!
आपका प्रयास रंग लाए। हस हेतु शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (01-09-2013) के चर्चा मंच 1355 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंविविध क्षेत्रों में हिन्ही के विकास के मार्ग खुलें,इसके बहुत आवश्यक है लिए भाषा में पर्याप्त लोच होना - आयोजन सफल हो !
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट पढ़ कर बड़े-बड़ों की घबराहट कम हो गई होगी। वैसे भी सहज सरल भाषा सीधे दिल दिमाग पर असर करती है। और क्लीष्ट भाषा का प्रयोग किताबों में ही अच्छा लगता है॥ अधिक से अधिक महिलाओं को बुलाईये सिध्दार्थ जी। चाहे हम कम बोलते हैं आप लोगों से लेकिन अपनी बात कहने का मौका हम महिलायें हर्गिज़ नही छोड़ने वाले हैं...
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रस्ताव ,सेमिनार के लिए शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंlatest post नसीयत
एक बेहतरीन कार्य के लिए बहुत शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंआपके प्रयासों में हम हमेशा आपके साथ हैं .....एक बेहतर दिशा की तरफ ले जाता कदम ......!!!
जवाब देंहटाएंआपके प्रयासों में हम आपके साथ हैं .....हिन्दी की बेहतरी के लिए एक सार्थक कदम ...!!!
जवाब देंहटाएंआपकी बात जंची. मुझे लगता है कि हिंदी में परंपरा के प्रति जो आग्रह है, वह कुछ मामलों में दुराग्रह की हदें भी पार गया है. बस हमें इसे तोड़ना होगा और नए प्रयोगों को प्रोत्साहित करना होगा. इसके बग़ैर मुझे नहीं लगता कि हिंदी का कुछ भला हो पाएगा.
जवाब देंहटाएंएक दफे इग्नू के ही किसी प्रकाशन में अंग्रेजी के मुहावरे "Missing the Woods for the Trees" का हिंदी अनुवाद पढ़ा तो भौंचक्का रह गया.. कथ्य से इस पंक्ति का कोई तालमेल न पाकर मैनें उसी विषय का अंग्रेजी पाठ टटोला तो सही स्थिति सामने आई.. महानुभावों ने उपरोक्त मुहावरे को भी शब्दश: अनुवाद कर "वृक्षों को बचाने के लिये जंगलों की क्षति" कर दिया था..
जवाब देंहटाएंएक दफे इग्नू के ही किसी प्रकाशन में अंग्रेजी के मुहावरे "Missing the Woods for the Trees" का हिंदी अनुवाद पढ़ा तो भौंचक्का रह गया.. कथ्य से इस पंक्ति का कोई तालमेल न पाकर मैनें उसी विषय का अंग्रेजी पाठ टटोला तो सही स्थिति सामने आई.. महानुभावों ने उपरोक्त मुहावरे को भी शब्दश: अनुवाद कर "वृक्षों को बचाने के लिये जंगलों की क्षति" कर दिया था..
जवाब देंहटाएंएक दफे इग्नू का ही कोई हिन्दी प्रकाशन पढ़ते समय वाक्य सामने आया.. "वृक्षों को बचाने के लिये जंगलों की क्षति".. मैं इस वाक्यांश का कथ्य से किसी भी किस्म का मेल कर पाने में अक्षम रहा.. चूँकि इसका अर्थ किये बिना बात पूरी तरह समझ नहीं आ पा रही थी, अत: मैनें उसका अंग्रेजी पाठ देखने का प्रयास किया.. मैं भौंचक्का रह गया जब मैनें मूल वाक्य देखा जो कि अंग्रेजी का एक मुहावरा था- "Missing the Woods for the Trees"..
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रयास के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंनये लेख : - Alexa के टूलबार से उपयोगी Extension अपने ब्राउज़र में इनस्टॉल करें।
" हिन्दी की छवि बदलनी होगी " बहुत ही सम्यक,सटीक एवम् सार्थक प्रयास है । यह हमारे लिए बहुत ही दुर्भाग्य-पूर्ण है कि बावन अक्षरों एवम् स्वस्थ अंग-प्रत्यंगों वाली लिपि पर मात्र छब्बीस अक्षरों और बिना मात्राओं वाली लिपि आज भी राज कर रही है । संस्कृत से ही संस्कृति है अतः हम सबका यह कर्त्तव्य है कि हम अपनी हिन्दी को संस्कृत के आँगन में क्रीडा करने दें और उसी आँगन से उसे अध्यात्म एवम् विज्ञान से दीक्षित होने दें । हम सभी देखेंगे कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब हमारी हिन्दी सम्पूर्ण विश्व में जानी जाएगी, मानी जाएगी और सराही जाएगी । शुभमस्तु । shaakuntalam.blogspot.in
जवाब देंहटाएं" हिन्दी की छवि बदलनी होगी ।" बहुत ही सम्यक,सटीक एवम् सार्थक प्रयास है । यह बहुत ही दुर्भाग्य-पूर्ण है कि बावन अक्षरों एवम् स्वस्थ अंग-प्रत्यंगों वाली लिपि पर आज भी मात्र छब्बीस की संख्या वाली, बिना हाथ-पैरों वाली लिपि राज कर रही है । संस्कृत से ही तो संस्कृति है । हमें चाहिए कि हम हिन्दी को संस्कृत के आँगन में क्रीडा करने दें एवम् अध्यात्म और विज्ञान दोनों में दीक्षित होने दें फिर हम देखेंगे कि एक ऐसा समय अवश्य आएगा जब हमारी हिन्दी न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में जानी जाएगी मानी जाएगी और सराही जाएगी । शुभमस्तु ।
जवाब देंहटाएंpurnataya sahmat..
जवाब देंहटाएं" चाय-बैठकी वाली बतकही ".... adbhut shabdkosh...wah
"चाय-बैठकी वाली बतकही"
जवाब देंहटाएंadbhut shabdkosh.... :)