कोषागार में एक महत्वपूर्ण काम होता है सरकारी सेवा से रिटायर होने वाले कर्मचारियों, अधिकारियों और शिक्षकों इत्यादि को पेंशन का भुगतान करना। जब पहली बार पेंशन की शुरुआत होती है तो इसके लिए संबंधित पेंशनर को स्वयं कोषाधिकारी के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है। कोषाधिकारी को पेंशन संबंधी अभिलेखों में दी गयी सूचना और फोटो इत्यादि का सत्यापन उस व्यक्ति से पूछताछ करके करना होता है जो उसकी पहचान से संतुष्ट होने के बाद पेंशन भुगतान करने के आदेश पर हस्ताक्षर करता है। इसके बाद प्रत्येक माह की पहली तारीख को उसकी पेंशन उसके बैंक खाते में ई-पेमेंट की प्रक्रिया से भेज दी जाती है। साल में केवल एक बार नवंबर-दिसंबर में उसे अपने ‘जीवित होने का प्रमाणपत्र’ देने के लिए कोषागार या बैंक में उपस्थित होना पड़ता है। जिस पेंशनर की मृत्यु हो जाती है उसकी सूचना लेकर उसकी पत्नी या पति (यदि जीवित हैं) को उपस्थित होना होता है जिनकी पहचान से संतुष्ट होने के बाद उन्हें पारिवारिक पेंशन का भुगतान प्रारंभ हो जाता है।
लगातार एक ही काम करते हुए यह सब इतना यंत्रवत होता रहता है कि मुझे इस काम में बोर हो जाना चाहिए। लेकिन मैं इसमें कभी बोर नहीं होता। कारण यह है कि इस काम को मैं एक विशिष्ट अवसर के रूप में प्रयोग करता हूँ। साठ साल की उम्र में जो लोग मेरे पास आते हैं उनके पास सरकारी काम करने का एक लंबा अनुभव होता है और उनके पास इस जीवन के बारे में अपने-अपने निष्कर्ष होते हैं। पारिवारिक पेंशन के लिए जो वयोवृद्ध महिलाएँ आती हैं उन सबकी आँखों में एक अलग कहानी झाँकती रहती है। कुछेक पुरुष जो अपनी नौकरीशुदा पत्नी की मृत्यु के बाद पारिवारिक पेंशन लेने आते हैं उनकी कहानी तो और भी उत्सुकता जगाती है। समय की उपलब्धता और उनकी प्राइवेसी की मर्यादा की रक्षा करते हुए मुझे उनसे बात-चीत करके जो कुछ जानने-समझने का अवसर मिलता है उसे मैं इस नौकरी की बहुत विशिष्ट उपलब्धि मानता हूँ। इन बुजुर्गों से दोस्ती करके एक अलग आनन्द आता है।
आप जानते ही होंगे कि शिक्षकों की सेवानिवृत्ति एक खास नियम के कारण प्रायः जून महीने की समाप्ति पर होती है। शिक्षा सत्र के बीच में चाहे जब भी उनकी सेवानिवृत्ति की आयु पूरी हो जाय उन्हें सत्र के अंत तक अपने विद्यार्थियों को पूरा कोर्स पढ़ाने के बाद सेवा से निवृत्त किया जाता है। इसे “सत्रान्त लाभ” कहते हैं। तो आजकल कोषागार में गुरूजी लोगों की आमद ज्यादा हो गयी है। जून में सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी पेंशन का प्राधिकार पत्र सक्षम स्वीकर्ता अधिकारियों द्वारा कोषागार में भेजा जा रहा है और वे अपनी पहचान/ सत्यापन की औपचारिकता पूरी कराने कोषागार में आ रहे हैं।
पहचान के सत्यापन सम्बंधी कुछ वैधानिक प्रश्न पूछने के बाद मैं कुछ अनौपचारिक चर्चा उनके विद्यालय की दशा और दिशा के बारे में भी कर लेता हूँ। जैसे- आपके विद्यालय में किन-किन विषयों की पढ़ाई होती है। उन विषयों के अध्यापक उपलब्ध हैं कि नहीं? जो लोग रिटायर हो जा रहे हैं उनके स्थान पर नयी भर्तियाँ हो रही हैं कि नहीं? क्या बच्चे रेग्युलर कक्षाओं में पढ़ाई करने आते हैं? परीक्षाओं में नकल पर रोक लग पाती है कि नहीं? कितने प्रतिशत बच्चों में विषय का ज्ञान अर्जित करने की ललक होती है? ऐसे बच्चों को गुरुजन कितना संतुष्ट कर पाते हैं। पहले से अब की शिक्षा व्यवस्था में क्या परिवर्तन आये हैं? बच्चों को अपने स्कूल की कक्षा की पढ़ाई से काम चल जाता है या उन्हें प्राइवेट ट्यूशन करना पड़ता है? आदि-आदि।
इन प्रश्नों का जो उत्तर टुकड़ों-टुकड़ों में मिलता है उसे अपने अनुभवों की गोंद से जोड़ता हूँ तो एक ऐसी तस्वीर उभरती है जिसे देखकर कलेजा बैठ जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों व छोटे-छोटे कस्बों में पसरे इन विद्यालयों में कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो पठन पाठन की दुरवस्था देखकर मन में घोर निराशा पाँव पसारने लगती है। जिनके ऊपर इस दिशा में कुछ कदम उठाने की जिम्मेदारी है उनकी चाल-ढाल देखकर मन में एक डर सा बैठ जाता है – इस समाज की नयी पीढ़ी का भविष्य कैसा होगा?
इस तस्वीर की कुछ बानगी देखिए-
- स्कूलों में जितने बच्चों का नाम लिखा होता है उसके चौथाई बच्चे ही नियमित स्कूल आकर कक्षाओं में पढ़ने बैठते हैं। इन बच्चों को पढ़ाने के लिए आवश्यक जितने शिक्षकों का मानक निर्धारित है उनसे चौथाई संख्या में ही वास्तव में कक्षा में जाकर पढ़ाते है। इसका कारण लगातार बढ़ती रिक्तियों व शिक्षक समुदाय पर प्रशासनिक नियन्त्रण की कमी से लेकर शिक्षक संघ की राजनीति तक बहुत कुछ है। अब यह अनुमान लगाना कठिन है कि बच्चे कम आते हैं इसलिए शिक्षक कम पढ़ाते हैं या शिक्षक कम पढ़ाते हैं इसलिए बच्चे कम आते हैं।
- सेवानिवृत्ति के फलस्वरूप जो पद रिक्त हो जाते हैं उन पदों को समय से भरे जाने की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। निजी प्रबंधतंत्र वाले विद्यालय शिक्षकों के वेतन के लिए जब सरकारी अनुदान पाने लगते हैं तब स्टाफ की नियुक्ति का अधिकार सरकारी नियन्त्रण में चला जाता है। सरकार द्वारा शिक्षकों की भर्ती के लिए जो चयन-बोर्ड गठित किया गया वह पिछले दो-तीन सालों से कोई चयन की प्रक्रिया पूरी नहीं कर सका है। भ्रष्टाचार और अयोग्यता के दलदल में फँसकर यह प्रक्रिया लगभग दम तोड़ चुकी है। तीन साल पहले जब इस बोर्ड के माध्यम से शिक्षकों का चयन होता भी था तब कोई भी अभ्यर्थी अपनी योग्यता और मेरिट के भरोसे सफल होने की कल्पना नहीं कर पाता था। आवेदन डालने के साथ ही किसी जुगाड़ के फेर में पड़ जाता था। पक्षपात और धाँधली की शिकायतें बढ़ी और असफल अभ्यर्थी कोर्ट जाने लगे। कोर्ट-केस इतने बढ़ गये कि अब नयी भर्ती की प्रक्रिया लगभग बन्द ही हो गयी है।
- जो अभ्यर्थी येन-केन प्रकार से सफल होकर इन विद्यालयों में पहुँचे उन्हें निजी प्रबन्ध तन्त्र ने अपनी शर्तों पर ज्वाइन कराया; या नहीं ज्वाइन करने दिया। एक शिक्षक ने तो बड़े गर्व से कहा कि मेरे विद्यालय में करीब आधा दर्जन लोग चयन बोर्ड से परवाना लेकर आये लेकिन मेरे मैनेजर साहब इतने मजबूत हैं कि किसी को ज्वाइन नहीं करने दिया। मैंने पूछा- तो फिर पढ़ाता कौन है वहाँ? वे बोले- सब व्यवस्था हो जाती है साहब। मैनेजर साहब ने बहुत लोगों को ‘ऐडहाक’ पर रख लिया है। आज नहीं तो कल वे रेगुलर हो ही जाएंगे। उनके विश्वास को देखकर मुझे वह बहस याद आ गयी जो मैंने अपनी ट्रेनिंग के दौरान एक माननीय न्यायमूर्ति के साथ कर ली थी-
- अज्ञानतावश तगड़े आत्मविश्वास का शिकार होकर मैंने हाईकोर्ट के पूर्व अधिवक्ता और तत्कालीन न्यायमूर्ति का लेक्चर सुनते हुए उनसे एक ऐसा तकलीफ़देह प्रश्न पूछ लिया था जिससे अवमानना का दोषी भी होने का खतरा उत्पन्न हो गया था। यह कि किसी निजी प्रबन्धतंत्र द्वारा भ्रष्टाचारी तरीका अपनाकर अनियमित रूप से किसी भाई-भतीजे को शिक्षक के रूप में नियुक्त कर लिया जाता है जिसका अनुमोदन सरकारी अधिकारी द्वारा नहीं किया जा सकता है। लेकिन वह जानबूझकर उसकी नियुक्ति रद्द करने का एक ऐसा आदेश पारित कर देता है जिसमें पूरा प्रकरण युक्तियुक्त तरीके से उद्धरित नहीं होता है। उस आदेश को प्रबंधतंत्र कोर्ट में चुनौती देता है और माननीय न्यायमूर्तिगण आसानी से अन्तरिम स्थगनादेश (स्टे ऑर्डर) जारी कर देते हैं। कोर्ट का आदेश भले अस्थायी स्थगन का हो लेकिन उसका स्थायी लाभ उन गलत व्यक्तियों को मिल जाता है। मेरा प्रश्न था कि क्या कोर्ट के पास इस गलत कार्य में खुद एक सहयोगी पक्ष (पार्टी) बन जाने से बचने का कोई सूत्र नहीं है? मुझे कोई संतोषजनक उत्तर न तब मिला था न अबतक मिल पाया है। कोर्ट के स्टे के सहारे बहुत से लोग अपने गलत रास्ते पर आगे बढ़ने में सफल हो जाते हैं। अलबत्ता उनकी इस सफलता में कार्यपालिका के जिम्मेदार अधिकारी बड़े सहयोगी की भूमिका निभाते हैं।
- यह स्थिति तो अशासकीय सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों की थी। प्राथमिक शिक्षा विभाग में शिक्षकों की स्थिति और भयावह है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम आ जाने के बाद प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उस अधिकार को जिस प्रकार उपलब्ध कराया जा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। शिक्षकों के जितने पद मानक के अनुसार जरूरी हैं उनमें आधे रिक्त हैं। इनकी भर्ती की प्रक्रिया तीन-चार साल से अटकी पड़ी है। इसके पीछे भी प्रशासनिक अयोग्यता और भ्रष्टाचार का खेल काम कर रहा है। हम लाखों की संख्या में उपलब्ध योग्यताधारी अभ्यर्थियों में से जरूरी संख्या में प्राथमिक शिक्षकों का चयन कर पाने में असमर्थ हैं। आज स्थिति यह है कि प्रशासनिक अधिकारी नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करने में घबरा रहे हैं। हाथ खड़े कर देते हैं। जैसे किसी आफ़त को दावत दे रहे हों। काम हो चाहे न हो लेकिन जिसने नियुक्ति का काम हाथ में लिया उसका फँसना तय है। आखिर हमने ऐसी भयावह स्थिति क्यों बन जाने दी है? कौन जिम्मेदार है इसके लिए?
- राजकीय हाई-स्कूल व इंटर कॉलेजों में भी शिक्षक भर्ती की कमोबेश यही दशा है। राज्य लोक सेवा आयोग में जो उहापोह और अनिर्णय की स्थिति है वह हाल की घटनाओं के बाद सभी जान गये हैं। पूरा डेलिवरी सिस्टम चरमरा गया लगता है।
- एक संस्कृत महाविद्यालय के सेवानिवृत्त शिक्षक ने तो ऐसी बात बतायी कि मैं सन्न रह गया। बता रहे थे कि वे अपने महाविद्यालय के अंतिम बचे हुए शिक्षक थे जो अब सेवानिवृत्त हो गये हैं। अब वहाँ एक भी शिक्षक नहीं है और प्रबंधतंत्र बहुत खुश है कि अब उसे संस्कृत महाविद्यालय बन्द करके उसके विशाल प्रांगण में निजी पब्लिक स्कूल चलाने की पूरी स्वतंत्रता मिल गयी है। यह व्यवसाय आजकल बहुत लाभकारी हो गया है क्योंकि कोई भी जागरूक गार्जियन अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी स्कूल में भरसक नहीं भेजना चाहता। संस्कृत पाठशालाओं व महाविद्यालयों को सरकारी अनुदान पर चलाने के लिए पिछले जमाने की सरकारों ने जब फैसला किया तब यह नहीं सोचा कि इन शिक्षकों की निरन्तरता कैसी बनायी जाएगी। जो पद खाली हो रहे हैं वे समाप्त होते जा रहे हैं और शनैः शनैः ये सभी विद्यालय भी काल के गाल में समा जाएंगे। जो विद्यालय चल भी रहे हैं उनके पठन-पाठन का स्तर देखकर लगता है कि वे यदि सुधर नहीं सकते तो उनका समाप्त हो जाना ही बेहतर है।
- एक बार मुझे एक जिले में इन संस्कृत विद्यालयों के निरीक्षण का दायित्व मिला। इनकी दुर्दशा और गुरुजनों की अकर्मण्यता के बारे में जब मैंने खरी-खरी रिपोर्ट बनानी शुरू की तो मुझे समझाया गया कि आप लोग उर्दू मदरसों पर तो ऐसी कड़ाई नहीं करते। वहाँ भी तो किसी विषय की वस्तुनिष्ठ पढ़ाई नहीं होती। वहाँ भी तो नकल कराकर बच्चों को पास कराया जाता है। वहाँ भी तो मुफ़्त में सरकारी अनुदान की बन्दरबाँट होती है। वहाँ तो किसी की हिम्मत नहीं है जो जाँच कर ले। मैंने जब अपने काम से काम रखने पर बल दिया तो मेरे खिलाफ़ एक आन्दोलन सा खड़ा हो गया और उच्च अधिकारियों ने ‘समझदारी से’ बीच-बचाव करके मुझे उस काम से अलग कर दिया।
इन सारी दुर्व्यवस्थाओं के बीच एक आशा की किरण दिखती है तो वह सरकारी तंत्र से अलग निजी क्षेत्र में काम कर रहे कुछेक ऐसे शिक्षण संस्थानों में दिखती है जिन्होंने गुणवत्ता बनाये रखने के तमाम जतन कर रखे हैं। लेकिन उनके ऊँचे तोरण द्वारों के भीतर जाने का सुभीता कितने बच्चों के पास है?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
सच कहूँ तो कभी लगता है कि हमने जानबूझ कर सरकारी तन्त्र का अहित किया है जिससे प्राइवेट विद्यालय पनप सकें। पैसे की इस काली जुगत में शिक्षा और समाज, दोनों का ही सत्यानाश हो गया। सब चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़े, सब चाहते हैं कि उनके बच्चे स्वस्थ रहें, पढ़े लिखे बेरोजगार हैं, प्राइवेट विद्यालय के शिक्षक कुली से भी कम वेतन पा रहे हैं, कौन मन लगा पढ़ायेगा, किसको छात्र गुरुजी कह पैर छूना चाहेंगे। पता नहीं किस शिक्षा का दम्भ भरेंगे हम आने वाले समय में।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} के शुभारंभ पर आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट को हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल में शामिल किया गया है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा {रविवार} (25-08-2013) को हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar
जवाब देंहटाएंआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शनिवारीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंदरअसल आपके शीर्षक ने ही सारी बात कह दी है। अब कौन पढ़ाए? इस समस्या की असली जड़ प्राथमिक विद्यालयों से शुरू होती है। लेकिन, मुझे लगता है कि अब ये हर क्षेत्र में बन गई है। पुराना अधिकारी नए अधिकारी को कुछ पढ़ाना नहीं चाहता, पुराना नेता नए नेता को कुछ पढ़ाना सिखाना नहीं चाहता, पुराना पत्रकार नए पत्रकार नेता को कुछ पढ़ाना सिखाना नहीं चाहता ... और अब बिना पढ़े भी सफलता के नए मानक स्थापित हो रहे हैं ... इसलिए पढ़ना भी भला कौन चाहता है और इसीलिए देश इस हाल में है।
जवाब देंहटाएंआपने बड़े विस्तार से शिक्षा के मौजूदा जमीनी हालात का खाका खीचा है .यह व्यवस्था पूरी तरह से पटरी से उतर चुकी है .
जवाब देंहटाएंसमझ में नहीं आता कि हालात कैसे सुधरेगें~
इतनी कड़वी हकीकत बयानी के बावजूद देश में तथाकथित साक्षर लोगों की बहुतायत इसलिए खलती है क्योंकि वह राम में आसा औा आसाराम में भगवान खोजने के लिए अभिशप्त है और इससे मुक्ति संभव नहीं है। अनपढ़ और साक्षरों में से अंधविश्वास की मौजूदा जड़ें खोखले होते जा रहे समाज को पूरा ही चट कर देंगी या हालात सुधरेंगे।
जवाब देंहटाएंआपने तो शिक्षा व्यवस्था से सेवानिवृत्त हो रहे व्यक्तियों से बातें-अनुभव बांट कर इतना व्यवस्थागत मैला बाहर निकाल दिया। शिक्षा के अलावा भी जितने क्षेत्र हैं सब जगह ऐसी दुरावस्था है। स्वास्थ्य, बीमा, न्याय के राजकीय प्रतिष्ठानों में इस तरह की अव्यवस्थाएं क्या कम हैं। जहां जाओ, वहीं एक विचित्र प्रकार की अकर्मण्यता, खीझ पैदा करनेवाली परिस्थिति व्याप्त है। प्राइवेट संस्थाएं भी धीरे-धीरे उस सड़ी-गली सरकारी व्यवस्था की तरह ही हो रही हैं, जिसने देश की बर्बादी की नींव रखी है।
जवाब देंहटाएंमैं भी भिलाई इस्पात संयंत्र की शाला में संस्कृत की व्याख्याता रह चुकी हूँ । संस्कृत और हिंदी की सेवा करने का भरपूर अवसर मिला , पर मैंने अपने ही स्कूल में, संस्कृत एवम् हिन्दी दोनों को रोते हुए देखा है, इनकी दुर्दशा देखकर मैं भी बहुत बार फूट-फूट कर रोई हूँ और ऐसी स्थिति में "भारतेन्दु" बहुत याद आते हैं जो हमें समझा कर गए हैं कि " निज भाषा उन्नति अहै निज उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को शूल ।"
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