इस बार महाशिवरात्रि की छुट्टी सोमवार के दिन हुई थी इसके पीछे रविवार और शनिवार की साप्ताहिक छुट्टी मिलाकर लगातार तीन दिन कार्यालय से अवकाश मिला। मैंने इसका सदुपयोग अपने गाँव घूमकर आने में किया। प्रायः पूरा गाँव सोमवार के दिन भोर में ही उठकर बगल के शिवमंदिर में ‘जल चढ़ाने’ के लिए चल पड़ा था। पूरे साल प्रायः निर्जन और धूल धूसरित रहने वाला पुराना शिवमंदिर इस अवसर पर देहात की भीड़ से आप्लावित हो जाता है। लाउडस्पीकर लगाकर भजन-कीर्तन होता है और ठेले-खोमचे वाले भी आ जुटते हैं। शंकर जी की अराधना के बहाने गाँव क्षेत्र के लोग एक दूसरे से मिलने और हाल-चाल जानने का काम भी निपटा लेते हैं। भक्तिमय माहौल के बीच छोटे-बड़े ऊँच-नीच का भेद भी मिटा हुआ दिखायी देता है। ऐसे लोग जिनकी दैनिक दिनचर्या में पूजा-पाठ का कोई विशेष स्थान नहीं है वे भी इस वार्षिक आयोजन में धर्म-कर्म का कोटा पूरा कर लेते हैं। शंकर जी ऐसे देवता हैं जो झटपट प्रसन्न हो जाते हैं। इन्हें (शिवलिंग को) एक लोटा जल से स्नान करा देना ही पर्याप्त है। चाहें तो इसके साथ सर्वसुलभ झाड़-झंखाड़ से लाकर भांग-धतूरा-बेलपत्र इत्यादि चढ़ा दें तो कहना ही क्या…! आशुतोष अवघड़दानी प्रसन्न होकर मनचाही इच्छा पूरी कर देंगे - इसी विश्वास के साथ सबलोग मंदिर से घर लौटते हैं।
कुँवारी लड़कियाँ इस जलाभिषेक से अपने लिए मनचाहा वर भी पा जाती हैं। इस विश्वास का नमूना गाँव में ही नहीं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास से निकलकर भारद्वाज आश्रम की ओर जाती तमाम पढ़ाकू लड़कियों की कतार में भी देखा है मैंने।
अपने गाँव-जवार के शिवभक्तों को तो मैंने बचपन से देखा है। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र, चारों वर्णों को एक साथ एक ही मंदिर में जल चढ़ाते हुए। यह बात दीगर है कि इनकी तुलनात्मक संख्या बराबर नहीं होती बल्कि प्रायः इसी क्रम में क्रमशः घटती हुई होती। शिवरात्रि के मौके पर जुटने वाली भीड़ में सवर्ण, दलित और पिछड़े का विभाजन कभी मेरे दिमाग में आया ही नहीं था। इसबार भी गाँव में लगभग वैसा ही वातावरण देखने को मिला। लेकिन जब मैंने वापसी यात्रा हेतु गाँव से प्रस्थान किया तो रास्ते में एक ऐसा नजारा देखने को मिला कि मैं दंग रह गया।
कुशीनगर जिले में कप्तानगंज एक छोटा सा कस्बा है। इससे करीब बारह किलोमीटर पश्चिम परतावल भी एक छोटी सी बाजार है। इन दोनो को जोड़ने वाली टूटी-फूटी सड़क के दोनो ओर पसरा है शुद्ध देहात : उर्वर जमीन में लहलहाती फसलें, चकरोड और कच्ची-पक्की देहाती सड़कों से जुड़े घनी आबादी के गाँव और आधी-अधूरी सरकारी विकास योजनाओं की हकीकत बयान करती लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति। इन दिनों इस इलाके में गेहूँ और सरसो की फसल लगी हुई है। दूर-दूर तक खेत गहरे हरे रंग में या पीले रंग में पेंण्ट किये हुए दिखायी देते हैं। क्षेत्र में नहरों का जाल बिछा हुआ है। सिंचाई की सुविधा अच्छी होने से फसल का उत्पादन बहुत अच्छा हो रहा है। इधर कोई जमीन वर्ष में कभी खाली नहीं रहती। सालोसाल फसलें बोई और काटी जाती हैं।
मैं जब कप्तानगंज से परतावल की ओर बढ़ा तो इन्नरपुर के पास से गुजरने वाली बड़ी नहर के पास जमा भीड़ को देखकर ठिठक गया। हाल ही में गेंहूँ की सिंचाई बीत जाने के बाद नहर में पानी बन्द कर दिया गया था लेकिन थोड़ा बहुत पानी यत्र-तत्र अभी भी रुका हुआ था। इसी पानी में बड़ी संख्या में औरतों को नहाते देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। नहर की दोनो पटरियों पर भारी भीड़ जमा थी। औरतें और मर्द, बूढ़े और बच्चे अपनी-अपनी गठरी खोलकर फैलाए हुए थे। कुछ लोग अभी नहाने की तैयारी में थे। जो लोग नहा चुके थे वे अपनी गठरी से निकालकर कुछ चना-चबेना खा रहे थे। आसपास कुछ अस्थायी दुकाने भी जमा हो गयीं थीं जिनपर चाट-पकौड़ी, जलेबी, खुरमा, गट्टा, पेठा इत्यादि पारम्परिक खाद्य सामग्री बिक रही थी। यह स्पष्ट हो रहा था कि ये स्थानीय लोग नहीं हैं बल्कि काफी दूर से आये हुए तीर्थयात्री हैं। पतली सी सड़क के किनारे खड़े हुए वाहन और उनपर लदे सामान भी यही संकेत दे रहे थे। मेरे ड्राइवर ने गाड़ी रोकी नहीं बल्कि भीड़ के बीच से निकल जाने का प्रयास करने लगा।
करीब दो सौ मीटर आगे बढ़ने पर भीड़ का रेला बहुत घना हो गया था और सड़क पर आने-जाने वाले वाहन जाम में फँस गये थे। सामने से एक मोटरसाइकिल पर लदकर आ रहे तीन युवकों ने इशारे से बताया कि आगे बहुत भीड़ है और हमारी गाड़ी उसपार कम से कम दो-तीन घंटे तक निकल नहीं पाएगी। हम फँस चुके थे। पीछे दूसरी गाड़ियाँ आ चुकी थीं। वापस भी नहीं हो सकते थे। सड़क पतली थी और किनारे तीर्थयात्रियों को लाने वाली जीपों, ट्रैक्टर ट्रॉलियों, मोटरसाइकिलों इत्यादि से अटे पड़े थे। बीच-बीच में खोमचे, रेहड़ी, ठेले लगाने वालों ने भी घुसपैठ कर रखी थी। एक लाउडस्पीकर पर कोई व्यक्ति तमाम तरह की उद्घोषणाएँ कर रहा था जो स्पष्ट नहीं हो रही थीं। टीं-टीं की आवाज ज्यादा मुखर थी।
मेरा ब्लॉगर मन अब सक्रिय हो गया। मैंने अपना कैमरा निकाल लिया लेकिन गाड़ी से बाहर निकलने की गुंजाइश नहीं थी। खिड़की का शीशा उतारकर जहाँतक पहुँच बन सकी वहाँतक फोटो खींचता रहा। संयोग से जाम की समस्या के निपटारे के लिए एक-दो सिपाही आ गये थे जिनकी बेंत का असर चमत्कारिक ढंग से हुआ। बीच सड़क में गुत्थमगुत्था लोग अचानक किनारे भागने लगे। ट्रकों और बसों की कतार धीरे-धीरे रेंगने लगी। सड़क के किनारे जमा गढ्ढों का पानी मानव स्पर्श पाकर गंदला हो गया था। एक सिंचाई का नाला लोगों की प्राकृतिक जरूरतों के लिए आवश्यक पानी की आपूर्ति करते-करते मटियामेट होने की कगार पर था।
मैंने खिड़की से सिर निकालकर एक व्यक्ति से पूछा- भाई, यह भीड़ कैसी है? उसने मुझे दोगुने आश्चर्य से देखा और थोड़ी देर तक मुझे लज्जित करने के बाद बोला – आगे शिवचर्चा हो रही है। मैं शिवचर्चा की कोई काल्पनिक छवि इस स्थान पर नहीं बना सका। मैं इस रास्ते से कई बार गुजर चुका था लेकिन किसी सुप्रसिद्ध या कम प्रसिद्ध शिवमंदिर के यहाँ होने की जानकारी मुझे नहीं थी। मेरी गाड़ी भीड़ के बीच से जगह बनाती हुई थोड़ा आगे बढ़ी तो एक तम्बू दिखायी दिया जो एक खेत में खड़ा किया गया था। चारो ओर गेहूँ और सरसो के लहलहाते खेत थे। बीच में कोई हाल ही में खाली हुआ गन्ने का खेत रहा होगा जहाँ कोई गुरूजी प्रवचन करने वाले थे। शायद यही शिवचर्चा थी।
लाउस्पीकर पर आवाज अब साफ आ रही थी। कोई बता रहा था कि एक बैग मेले में लावारिस पड़ा हुआ मिला है। इसमें नगदी और जेवर रखे हैं। जिस किसी का हो वह आकर जितना रुपया है सही-सही बताकर ले जाय। मैं सोचने लगा कि यदि मेरा पर्स इस प्रकार खो जाय तो क्या मैं उसमें रखे रूपयों की सही मात्रा बता पाऊँगा। शायद नहीं। अलबत्ता उसमें रखे पैन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेन्स मेरी मदद कर देंगे।
इस भीड़ में जो चेहरे शिवचर्चा में शामिल होने आये थे उन्हें देखकर मुझे एक अजीब उलझन होने लगी। ये तमाम चेहरे एक खास सामाजिक-आर्थिक वर्ग से सम्बंधित लग रहे थे। अत्यन्त गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए। हमारे समाज की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कोई चेहरा इस भीड़ में दिखायी नहीं दिया। यह एक अलग तरह का सामाजिक ध्रुवीकरण आकार लेता दिखायी दे रहा था। धार्मिक आस्था के ऐसे प्रदर्शन को देखना एक विलक्षण अनुभव था मेरे लिए। आप भी देखिए - इन तस्वीरों में क्या वही नजर नहीं आता जो मुझे महसूस हुआ?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
जब पढ़ना शुरू किया , तो पढ़ते चला गया ! वैसे मुझे गाँव की लीला बहुत पसंद है ! बहुत सुन्दर लगा ! बधई साहब
जवाब देंहटाएंधर्म धारण करता है, तोड़ना तो धार्मिकता है ही नहीं..
जवाब देंहटाएंअंधविश्वासियों का जमघट!
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