इसी जीवित रहने के प्रमाणपत्र (Life Certificate) को जमा कराने का कार्य मेरे कार्यालय सहित प्रदेश के सभी कोषागारों में पहली नवम्बर से प्रारम्भ किया गया है। शनिवार को ऐसा पहला दिन था।
शुक्रवार देर रात तक जागकर मैने पंकज सुबीर जी की ग़जल की कक्षा के कुछ पाठ पढ़ रखे थे। सुबह जब ऑफ़िस पहुँचा तो पेन्शनरों की भीड़ लग चुकी थी। साठ साल से लेकर अस्सी-नब्बे साल तक के बूढ़े और ‘जवान’, विनम्र या रौबदार, दुबले-पतले या थुलथुले, भारी-भरकम या कृषकाय, जीर्ण-शीर्ण या चाक-चौबन्द, या मध्यम श्रेणी के ही ; हर प्रकार के बुजुर्गों का जमघट था। कुछेक कम उम्र की विधवा औरतें भी थीं, तो एकाध अलपवयस्क लड़के-लड़कियाँ भी आये थे।
मैने उनकी पहचान करने और लाइफ़ सर्टिफिकेट पर उनके हस्ताक्षर लेकर प्रमाणित करने का सिलसिला शुरु किया; जो शाम तक चलता रहा। बीच-बीच में ग़जल की कक्षा का पाठ भी मन में चहल कदमी करता रहा।
चित्र: tribuneindia.com से साभार
पेश है ये ग़जल:-
(पसन्द आए तो दाद जरुर दीजिएगा, नौसिखिया जो ठहरा)
मेरे मन-मस्तिष्क में विचरण कर रही इन दो धाराओं को मेरे दिल ने न जाने कैसे एक साथ जोड़ दिया; और इस संगम का जो नतीजा मेरे हृदय से बाहर निकलकर कागज पर उतरा, उसे मेरी पहली आधिकारिक ग़जल कहना उचित होगा।
पेश है ये ग़जल:-
(पसन्द आए तो दाद जरुर दीजिएगा, नौसिखिया जो ठहरा)
हम हैं जिन्दा ये बताने का वक्त आया है।
हूजूम -ए- पेंशनर ने ये हमें दिखाया है॥
ये नवम्बर के महीने में कोषागार का दफ्तर।
जैसे सरकार ने मेला इधर लगाया है॥
कोई सत्तर, कोई अस्सी, है कोई साठ बरस का।
सबकी गुजरी है जवानी, बुजुर्ग काया है॥
कमसिनी में ही चल बसा है जिसका पालनहार।
उसे बेवक्त यहाँ वक्त खींच लाया है॥
कोई मुन्सिफ, कोई हाकिम, तो कोई पेशकार था ।
वक्त ने सबको बराबर यहाँ बनाया है॥
देख ले हाल ऐ ‘सिद्धार्थ’ उन बुजुर्गों का।
जिनकी आँखों में ‘बागवाँ’ का दर्द छाया है॥
हूजूम -ए- पेंशनर ने ये हमें दिखाया है॥
ये नवम्बर के महीने में कोषागार का दफ्तर।
जैसे सरकार ने मेला इधर लगाया है॥
कोई सत्तर, कोई अस्सी, है कोई साठ बरस का।
सबकी गुजरी है जवानी, बुजुर्ग काया है॥
कमसिनी में ही चल बसा है जिसका पालनहार।
उसे बेवक्त यहाँ वक्त खींच लाया है॥
कोई मुन्सिफ, कोई हाकिम, तो कोई पेशकार था ।
वक्त ने सबको बराबर यहाँ बनाया है॥
देख ले हाल ऐ ‘सिद्धार्थ’ उन बुजुर्गों का।
जिनकी आँखों में ‘बागवाँ’ का दर्द छाया है॥
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंएक बार पेंशन अदालत में मैं इन लोगों की पेन्शन सम्बन्धी समस्याओं को सुन रहा था। सभी शेड्स थे लोगों में। हताश से लेकर जीवन्तता से भरपूर तक।
जवाब देंहटाएंएक चीज समझ में आई थी। अब लोग अधिक जी रहे हैं, बेहतर सुविधाओं के साथ जी रहे हैं, पर उत्तरोत्तर एकाकी जी रहे हैं।
बढ़िया गजल है। लिखते रहें और जिंदा होने का सबूत देते रहें।
जवाब देंहटाएंwah jee wah, bahut khub
जवाब देंहटाएंnarayan narayan
पैर सबसे नीचे
जवाब देंहटाएंदिन भर ढोते हैं
शरीर का भार,
बीच में उदर
भोजन का संग्रह,
सब से ऊपर एक सिर
करता सब को नियंत्रित
वहीं है एक छिद्र
जो भकोसता है
पेट के लिए,
रात चारपाई पर
होते हैं सब बराबर
लंबायमान एक सतह पर,
तब टूट जाता है अहम्
सिर और पेट का
कभी तो ऐसा भी
कि तकिया होता है
सिर के बजाय
पैर के नीचे।
हम हैं जिन्दा ये बताने का वक्त आया है।
जवाब देंहटाएंपेंशनरों के हूजूम ने हमें दिखाया है॥
बहुत बढ़िया
कोई मुन्सिफ, कोई हाकिम, तो कोई पेशकार था ।
जवाब देंहटाएंवक्त ने सबको बराबर यहाँ बनाया है॥
ये खास तौर से पसंद आया ......पेंशन लेने वाले सदा असहाय नही होते है ,हमारे आपके माता पिता भी उसी वर्ग में आते है ..बस उन्हें अकेला इस उम्र में न छोडा जाये ये ध्यान रखना चाहिये क्यूंकि वे एक नन्हे बच्चे के समान होते है .
आपका अभ्यास पसंद आया , पोस्ट का मजमून पसंद आया। साथियों की काव्यात्मक-भावभीनी टिप्पणियां पसंद आईं जिसमें दिनेश जी की कविता और अनुराग की संवेदना और ज्ञानजी का अनुभव शामिल है।
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट ...
"हम हैं जिन्दा ये बताने का वक्त आया है।"
जवाब देंहटाएं"कोई मुन्सिफ, कोई हाकिम, तो कोई पेशकार था ।
वक्त ने सबको बराबर यहाँ बनाया है॥"
बहुत बढ़िया !
एक सच का फ़िर सामना .........
वाह ! वाह !
जवाब देंहटाएंऐसी गजल दिमाग में चलती रहे तो काम भी आसन लगता होगा? बोरियत नहीं होती होगी.
अगर बच्चे अच्छे हो , समझ दार हो तो यह पेंशन जरुरी नही, जी अगर बुढापे की ला्ठी मजबुत हो तो किसी भी दुसरे सहारे की जरुरत किसे है, वरना तो जा कर बताओ भी अभी हम जिन्दा है,एक सच्ची लेकिन अलग हट के पोस्ट.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
"हम हैं जिन्दा ये बताने का वक्त आया है।"
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
कोई मुन्सिफ, कोई हाकिम, तो कोई पेशकार था ।
जवाब देंहटाएंवक्त ने सबको बराबर यहाँ बनाया है॥
--काश, ये पद पर रहते हुए भी समझें कि एक दिन सबको बराबर हो जाना है.
क्लास का असर सॉलिड हुआ है..जमाये रहो..नई गज़ल लिखते रहें. बाकी माड़साब सुबीर जी तो संभाल ही लेंगे कहीं भटकी तो. :)
बेहतरीन!!
भावनाओं का मेला मन में उमड़ आया है
जवाब देंहटाएंअपना भविष्य समझो ये हमें सिखाया है
आपकी गज़ल पसंद आई !
जवाब देंहटाएंहम हैं जिन्दा ये बताने का वक्त आया है।
जवाब देंहटाएंहूजूम -ए- पेंशनर ने ये हमें दिखाया है॥
" oh ya very well composed"
Regards
Tripathi ji .. aap aaye aur cha gaye :-) sundar ghazal "कोई मुन्सिफ, कोई हाकिम, तो कोई पेशकार था ।
जवाब देंहटाएंवक्त ने सबको बराबर यहाँ बनाया है॥"
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खो देना चहती हूँ तुम्हें..
BADHIA HAI.
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