मैं बचपन से अपने गाँव-गिराँव में इस विशेषण का प्रयोग सुनता आ रहा हूँ। कदाचित् आपने भी किसी अत्यन्त उद्दण्ड, शैतान, झगड़ालू या बवाल काटने वाले बच्चे के लिए धुन्धकाली की उपमा सुनी होगी। आइए जानते हैं इस विशेष चरित्र के बारे में जो श्रीमद्भागवतपुराण के माहात्म्य को रेखांकित करने वाली एक रोचक कथा का मुख्य पात्र है:-
प्राचीन काल में तुंगभद्रा नदी के तटपर बसे एक सुन्दर नगर में आत्मदेव नाम का एक धर्मपरायण ब्राह्मण रहता था। उसका विवाह धुंधुली नामक एक उच्च कुल की सुन्दर कन्या से हुआ था। ‘विष रस भरा कनक घट जैसे’ की उक्ति को चरितार्थ करने वाली धुंधुली जितनी ही सुन्दर थी, उसका स्वभाव उतना ही दुष्ट, लोभी, ईर्ष्यालु व क्रूर था। कलहकारिणी पत्नी के साथ रहकर भी आत्मदेव अपनी गृहस्थी सन्तोषपूर्वक चला रहे थे। किन्तु विवाह के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी इस दम्पति को कोई सन्तान नहीं हुई। इसके लिए किये गये सभी उद्यम, यज्ञ-अनुष्ठान, व पुण्य-कर्म निष्फल रहे। अन्ततः हताश होकर प्राणत्याग की मंशा से आत्मदेव ने अपना घर छोड़ दिया।
अज्ञात दिशा में जा रहे आत्मदेव को मार्ग में एक सरोवर मिला। उसी के तटपर व्यथित हृदय बैठ गये। तभी एक तेजस्वी सन्यासी वहाँ से गुजर रहे थे। आत्मदेव को इसप्रकार दुःखी देखकर उन्होनें चिन्ता का कारण पूछा। आत्मदेव ने अपनी एकमात्र चिन्ता को सविस्तार बताया तो उस योगनिष्ठ तेजस्वी सन्यासी ने उसके ललाट को देखकर बताया कि – “निश्चित रूप से तुम्हारे मस्तक की रेखाएं बताती हैं कि तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार तुम्हें सन्तान की प्राप्ति नहीं हो सकती।इसलिए यह विचार छोड़कर सन्तोष कर लो, और भगवत् भजन करो।”
आत्मदेव ने जब हठपूर्वक यह कहा कि बिना सन्तान के जीवित रहने की उसे कोई इच्छा नहीं है तो उस तेजमय सन्यासी ने दयावश उसे एक दिव्य फल दिया और उसे पत्नी को खिला देने का निर्देश देकर चले गये।
आत्मदेव घर लौट आये और सारी कहानी बताकर वह फल पत्नी को खाने के लिए दे दिया; किन्तु उस दुष्टा ने सन्तानोत्पत्ति में होने वाले शारीरिक कष्ट, और उसके बाद पालन-पोषण की भारी जिम्मेदारी से बचने के लिए उस फल को खाने के बजाय कहीं छिपा दिया और आत्मदेव से झूठ में कह दिया कि उसने फल खा लिया है।
कुछ दिनों बाद धुंधुली की बहन मृदुली उससे मिलने आयी। हाल-चाल बताने में धुंधुली ने अपने झूठ के बारे में उसे बता दिया और भेद खुलने की चिन्ता भी व्यक्त करने लगी।
मृदुली ने अपनी बहन को चिन्तित देखकर एक योजना बना डाली। उसने कहा कि वह अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पैदा होने के बाद उसे सौंप देगी। उस समय तक धुंधुली गर्भवती होने का स्वांग करती रहे। घर के भीतर पर्दे में रहते हुए ऐसा करना बहुत कठिन तो था नहीं। यह भी तय किया गया कि मृदुली अपने प्रसव के बारे में यह बता देगी कि जन्म के बाद ही उसका पुत्र मर गया।
योजना पर सहमति बन जाने के बाद मृदुली ने यह भी सलाह दिया कि उस दिव्य फल को तत्काल गोशाला में जाकर किसी गाय को खिला दिया जाय ताकि गलती से भी वह किसी के हाथ न लगे।
उसके बाद योजना के मुताबिक ही सबकुछ किया गया। मृदुली ने पुत्र-जन्म के तुरन्त बाद उसे अपने पति के हाथों ही धुंधुली के पास भेंज दिया और इधर उसकी मृत्यु हो जाने की सूचना फैला दी।
अपने घर में पुत्र के जन्म का समाचार पाकर आत्मदेव परम प्रसन्न हो गए और अन्न-धन इत्यादि का दान करने लगे। एक दिन धुंधुली ने अपनी दुर्बलता और खराब स्वास्थ्य, तथा अपनी सद्यःप्रसूता बहन के पुत्रशोक की कहानी एक साथ सुनाकर योजना के मुताबिक उसे घर बुलाने की मांग रख दी। आत्मदेव के समक्ष एक ओर बीमार और कमजोर पत्नी से उत्पन्न पुत्र को न मिल पाने वाला अमृत-तुल्य मातृ-सुख था तो दूसरी ओर पुत्र शोक में डूबी मृदुली का अतृप्त मात्रृत्व था। उन्हें पत्नी की मांग सहज ही उचित लगी और वे मृदुली को बुलाने स्वयं चले गये।
आत्मदेव ने मृदुली के घर जाकर अपने पुत्र के पालन-पोषण के लिए मृदुली को साथ ले जाने की याचना की। वह तो मानो तैयार ही बैठी थी। आत्मदेव का अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। मृदुली पुत्र का पालन पोषण करने आत्मदेव के साथ धुंधुली के पास आ गयी।
बालक का नाम धुंधुली के नाम पर धुंधुकारी रखा गया।
उधर जिस गाय को वह दिव्य फल खिलाया गया था, उसके पेट से एक दिव्य बालक का जन्म हुआ जो अत्यन्त तेजस्वी था। आत्मदेव उस श्वेतवर्ण के बालक को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा स्वयं उसके पालन-पोषण का निश्चय किया। बालक के कान गाय के समान देखकर उसका नाम गोकर्ण रख दिया गया।
(मैने अपने क्षेत्र के कुछ पुराने लोगों का नाम गोकर्ण, गोकरण, या गऊकरन रखे जाने का सन्दर्भ भी यहीं जाना है।)
…इस प्रकार दोनो बालक एक ही साथ पाले गये। बड़ा होने पर एक ही साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल भेंजे गये; लेकिन वहाँ दोनो के संस्कार विपरीत दिशाओं में प्रस्फुटित हुए। विलक्षण प्रतिभा का धनी गोकर्ण गुरुकुल में अनुशासित रहकर वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करते हुए परम ज्ञानी और तत्ववेत्ता बन गया; जबकि बुरे संस्कारों से उद्भूत धुंधुकारी अपनी उद्दण्डता और तामसिक प्रवृत्तियों के कारण निरन्तर अज्ञान के अन्धकार में समाता चला गया..। (जारी)
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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9 घंटे पहले
आपने धुंधकारी की कथा लिख कर स्मृति ताजी कर दी अक्सर बच्चों को इस से पुकारता था लेकिन कथा भूली सी थी बहुत अच्छा लगा साधुवाद , राज्नती के धुन्ध्कारियों का क्या करे
जवाब देंहटाएंभागवत पुराण की स्मृतियाँ ताजा हो गई। यह पहली बड़ी पुस्तक थी जो मैं ने जीवन के पहले दशक में पढ़ी थी।
जवाब देंहटाएंसुंदर कहानिया सुनातें हैं आप ..जारी रखें.जब हमें किसी कहावत का सन्दर्भ जानना होगा चले आयेंगे पूछने
जवाब देंहटाएं"aaj tk bhagwat puran nahee pdh paye, magar aaj yhan kuch ansh pdh kr bhut accha sa lg rha hai.."
जवाब देंहटाएंRegards
ऐसा लगा जैसे चंदामामा पढ़ रहा हु..उस्मे इस तरह की ही कथाए होती है... बहुत आभार आपका
जवाब देंहटाएंबचपन में सुना था पौराणिक स्मृतियाँ ताजा हो गई, सधन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबचपन में अमर चित्र कथाऍं खूब पढ़ता था, आज उसी रोचकता के साथ पढ़ा, पर अगले अंक का इंतजार वैसे ही करना पड़ेगा जैसे तब कहानी की पुस्तकों का करता था। सुंदर कथा पढ़वाने के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका
जवाब देंहटाएंधुन्धुकाली और गोकर्ण... ये तो पूरी पढ़ी हुई कथा है, सुनी हुई भी कई बार ! धुन्धुकाली की मुक्ति तक अब कथा आपके मुंह से भी सुन लेते हैं. सुनाते रहिये !
जवाब देंहटाएंरामायण,भगवत इत्यादि की कथाएँ कितनी भी बार सुनो उतनी ही सरस लगती हैं.मुग्ध करती हैं.ऐसे ही सुनातें रहें,जिस किसीने न सुनी होंगी उन्हें आनंद मिलेगा.आभार.
जवाब देंहटाएंअरे बहुत बढिया पण्डिज्जी।
जवाब देंहटाएंहफ्ते में एक बार हमारा पौराणिक ज्ञान ऐसे ही संवर्धित किया करें। अब देखिये हमारी भाषा में धुन्धुकारी कस के धंस जायेंगे। :)
आगे..आगे..आगे..
जवाब देंहटाएंजी मजा आ रहा है अब आगे की कथा सुनाएँ !
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