हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

गुरुवार, 10 जुलाई 2008

समय कम पड़ने लगा है…



ऑफिस में आज काम कुछ ज्यादा था। महीने की शुरुआत में वेतन और पेंशन का काम बढ़ ही जाता है। …शाम को करीब सात बजे घर पहुँचा। …शारीरिक थकान के बावज़ूद मन में यह जानने की उत्सुकता अधिक थी कि सुबह-सुबह ब्लॉगवाणी में आयी जिन पोस्टों पर धुँवाधार टिप्पणी कर आया था, उसपर अन्य चिठेरों ने क्या कहा है। …अपनी पोस्ट पर क्या टिप्पणियाँ आई हैं इसे जानने की उत्कंठा तो थी ही। ऑफिस में अन्तर्जाल बंद हो गया है इसलिए घर का ही सहारा है।
घर मे घुसते ही पत्नी ने मुस्करा कर स्वागत किया लेकिन उसमें छिपी देर से आने की शिकायत साफ झलक रही थी। उन्होने ठण्डा पानी रखा, चाय पूछा, और रसोई में जाकर महिला रसोइए को कुछ काम बताने लगीं। इस बीच मेरा डेढ़ साल का बेटा खुशी से चहकते हुए मेरे पैर में लिपट चुका था- तोतली भाषा…दैदी आदिआ… दैदी आदिआ…। उसे गोद में उठाकर मैं कम्प्यूटर से लगी कुर्सी पर बैठ जाता हूँ।

सत्यार्थ मेरी ऊपर की जेब से एक-एक कर कलम, चश्मा, मोबाइल और कागज वगैरह निकालने की कोशिश करता है…मैं उसे रोकने की असफल कोशिश करता हूँ। कैसे रुला दूँ उसे? उसे दुनिया के किसी भी खिलौने से बेहतर मेरी ये चीजें लगती हैं। …चश्मा दो बार टूट चुका है, मोबाइल रोज ही पटका जाता है…इसपर चोट के स्थाई निशान पड़ गये हैं। …फिर भी कोई विकल्प नहीं है…उसका गोद में बैठकर मस्ती में मेरा चश्मा लगाना, मोबाइल पर बूआ, दादी, बाबाजी, चाचा, दीदी, डैडी आदि से बात करने का अभिनय देखकर सारी थकान मिटती सी लगती है।

…लेकिन आज कुछ उलझन सी हो रही है। बार-बार मेरा ध्यान कम्प्यूटर की ओर जा रहा है… टेढ़ा होकर ‘यूपीएस’ और ‘सीपीयू’ का स्विच ऑन कर देता हूँ। …बेटा मोबाइल पर ‘बूआ’ को बुला रहा है जो सैकड़ो मील दूर इस बात से बेख़बर होगी। …स्क्रीन पर ‘पासवर्ड’ मांगा जा रहा है…माउस की लाल बत्ती जल रही है। मैं फिर टेढ़ा होकर पासवर्ड भरता हूँ …इधर मोबाइल पर अब ‘दादाजी’ की पुकार हो रही है। उधर से आवाज़ न आने पर गुस्सा मोबाइल पर उतरने का डर है… इसलिए मेरा ध्यान लगातार उधर बना हुआ है …मेरे चश्में की एक डण्डी टेढ़ी होकर उसके कान के बजाय गर्दन पर फँसी हुई है। मैं मुश्किल से उसे उतारकर ठीक करता हूँ …लेकिन जेब में या कहीं और नहीं रख पाता। वह फिर ठुनकता है और चश्मा वापस उसकी नाक पर…

इन्टरनेट कनेक्शन के लिए कर्सर को यथास्थान क्लिक करता हूँ। …ब्लॉगवाणी बताती है कि १७ नयी मेल आ चुकी है। मेरी टिप्पणियों के फॉलोअप्स, और मेरी पोस्ट पर आयी टिप्पणियाँ इसमें शामिल होंगी। …इन्हें तुरन्त देखना चाहता हूँ। …उधर मेरी मोबाइल फर्श पर पटकी जा चुकी है। उसे उठाकर छिपा देता हूँ …लेकिन अब साइकिल पर बिठाकर घुमाने की फरमाइश है। अब तो उठना ही पड़ेगा। मैं उसका ध्यान कम्प्यूटर स्क्रीन पर आते-जाते चित्रों की ओर खींचने का प्रयास करता हूँ…लेकिन असफल। …उसे इससे कोई मतलब नहीं। मैं उसे अनसुना करने का यत्न करता हूँ… लेकिन गोद में मचलते हुए फिर से साइकिल पर ले चलने का कातर आग्रह… मैं ठुकरा नहीं पाता हूँ।


मैं उसे उसकी साइकिल पर बिठाता हूँ… पीछे से धकियाता हुआ चलता हूँ- बेडरूम, टीवी-रूम, भीतरी बरामदा, ड्राइंग-रूम, लॉबी फिर बाहरी बरामदे तक पहुँकर वापस उसी रूट से लौटता हूँ…। झुककर की गयी इस कसरत से मेरी कमर जवाब दे रही है लेकिन बेटा किलकारी मार रहा है… चाहता है अगला राउण्ड…। ओह! यह नहीं हो सकता… अजी सुनती हो, सम्भालो इसे… परेशान कर रहा है… साइकिल पर घुमाना मेरे वश का नहीं है…। कमर पकड़कर सीधा हो लेता हूँ। घर की नौकरानी उसे ले जाने का प्रयास करती है तो दैदी-दैदी कहकर और तेज़ रोने लगता है। किसी और का घुमाना उसे मंजूर नहीं…।

थककर कुर्सी पर बैठता हूँ, उसे साइकिल पर से उठाकर चुप कराने की कोशिश करता हूँ। इसबार उसका ध्यान कम्प्यूटर पर लाने में सफलता मिल जाती है। …लेकिन उसे ब्लॉगरी से क्या काम? वह ईयरफोन पर झपटता है… मेजपर कबकी रखी ठ्ण्डी हो चुकी चाय गिरते-गिरते बच जाती है… ईयरफोन कान पर चढ़ाना सीख चुका है, सो चढ़ा लेता है… अब फरमाइश करता है- आदा… आदा…। यानि कि ‘विण्डोज़ मीडिया प्लेयर’ चलाएं और हिमेश रेशमिया का कर्णभेदी गीत “झलक दिखला जा” सुनवाएं। कुछ देर की शान्ति की आशा लिए मैं गाना चला देता हूँ। …वह मुस्करा देता है, मैं ‘माउस’ पकड़ता हूँ …ई-मेल खुल रहा है …लेकिन अब सत्यार्थ ईयरफोन अपने कान से हटा कर मेरे कान पर चढ़ाने की कोशिश कर रहा है… उफ्… मना करने पर रोने लगता है। …मेरा धैर्य जवाब देने लगता है।

मैं अपनी थकान को दरकिनार करके भी ब्लॉगजगत से नहीं जुड़ पाने का मलाल लिए दुःखी हो रहा हूँ तो बेटा इसलिए रो रहा है कि ‘दैदी’ उसको पूरा समय नहीं दे रहे हैं। मैं चुपचाप बिस्तर पर लेट जाता हूँ। पत्नी को पास बुलाकर उनसे अपनी दमित इच्छा पर चर्चा करना चाहता हूँ। …वह थोड़ी देर में आ जाती हैं। मैं अपने मन की उलझन विस्तार से बताता हूँ- सुबह बरसात की वजह से दौड़ नहीं पाने की चिन्ता, कोर्ट में बिजली गुल हो जाने से बैडमिण्टन मिस हो जाने की फिक्र, ऑफिस में तमाम बेतुके और बोरिंग कामों में समय बर्बाद होने का मलाल, वहाँ इण्टरनेट की सुविधा ठप होने की परेशानी, घर आने पर बेटे के साथ न्याय न कर पाने का अपराधबोध, और ‘सत्यार्थमित्र’ पर कुछ नया पोस्ट करने के लिए देर रात तक जगने से अनिद्रा और सिरदर्द…

…वह चुपचाप सुनती हैं। बीच में कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। मेरी उलझन कुछ बढ़ सी जाती है…। मैं कुरेदता हूँ..। उन्होंने चेहरा छिपा लिया है…। मैं चेहरे को दोनो हाथोंसे पकड़कर अपनी ओर करता हूँ… दो बड़ी-बड़ी बूँदें टप्प से मेरे आगे गिरती हैं… क्या आपकी इस उलझन भरी दिनचर्या में मेरे हिस्से का कुछ भी नहीं है? …मैं सन्न रह जाता हूँ

…मेरे पास कोई जवाब नहीं है। …है तो बस एक अपराध-बोध… …

8 टिप्‍पणियां:

  1. मैं आपको और अपराध बोधग्रस्त नहीं करना चाहता हूं, मगर जब आपका पोस्ट पढ रहा था तब मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था..

    जवाब देंहटाएं
  2. सुधर जाईये इसी लिए हम जब घर जाते है तो अपना कनेक्शन ऑफ़ हो जाता है.....जो मजा उसकी तुतली भाषा में है किसी ओर चीज में नही.....मेरा प्यार इस नन्हे को दिजिएये ओर आज की सजा के तौर पर उसे एक घंटा ओर ज्यादा खिलाये....

    जवाब देंहटाएं
  3. यह भी एक नशा है सच में ..बच्चो को समय दे वही सबसे अच्छा है :)

    जवाब देंहटाएं
  4. बालक को आपके समय पर हक है। बालक की मम्मी को भी आपके समय पर हक है।

    अगर समय बचे तभी ब्लॉगरी को जाना चाहिये। यह जरूर है - समय का प्रबन्धन बहुत समय फ्री-अप करता है। पर न करे तो पछतावा नहीं होना चाहिये।

    जवाब देंहटाएं
  5. लेख बहुत अच्छा लगा।बेटे की हरकतें और भी अधिक अच्छी लगीं।
    आपकी पत्नी के लिए बस यही,'राजा भोज भरम के भूले,घर घर मट्टी के चूल्हे!'
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  6. एक सामान्य दिनचर्या और मानसिक द्वंद को बखूबी शब्दों की शक्ल दी है आपने।
    बढ़िया है।

    जवाब देंहटाएं
  7. क्या आपकी इस उलझन भरी दिनचर्या में मेरे हिस्से का कुछ भी नहीं है?
    ------

    यह इस पोस्ट का क्लाइमेक्स है , मारक वाक्य है । इसमें छिपी पीड़ा का अन्दाज़ा लगा सकती हूँ ।
    आपक अपराध-बोध भी समझ आता है और उसमें व्यवस्था की संरचना के आगे बेबसी भी दिखाई देती है ।
    बहुत ज़रूरी है कि सत्यार्थ की माँ कहलाने वाली स्त्री अपने जीवन मे सार्थकता का अहसास कर पाए । एक अच्छे साथी के रूप में आप बाधा पहचानते हैं तो बहुत अच्छा होगा कि उनके लिए रास्ते आप तलाशिये । यह तीनो के लिए ज़रूरी है ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)