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गुरुवार, 1 सितंबर 2016

भूएमऊ गाँव की गन्दी भैंसें और भली गायें

आज साइकिल लेकर रायबरेली से परसदेपुर मार्ग पर भुएमऊ गांव के उस पार तक गया। बल्कि उससे भी आगे जहाँ रायबरेली विकास प्राधिकरण वालों ने एक स्वागत द्वार बनवा रखा है। इसके ऊपर हिंदी और उर्दू में एक सन्देश लिखा है - "राजी ख़ुशी खैरियत से रहिए"। पता नहीं क्यों लोग इतनी सरल बात नहीं समझते और नाराजगी में दुःखी रहा करते हैं।
भुएमऊ गाँव की एक विशेषता सभी जानते हैं। कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया जी के संसदीय क्षेत्र का विश्राम स्थल यहीं है। भुएमऊ गेस्ट हॉउस की ड्योढ़ी उनके प्रवास के समय बड़े-बड़े सत्ताधिपतियों और उम्मीदवारों के माथा टेकने की गवाह होती है।
इस गाँव की दूसरी विशेषता जो मैंने आज देखी वह है- पारंपरिक ग्रामीण जीवनशैली का प्रायः अपरिवर्तित रूप। शहर के समीप होने के बावजूद इस गाँव में बहुत कुछ एक दूर-दराज के पिछड़े देहात जैसा ही दिखा। प्रायः प्रत्येक घर के सामने एक-दो गाय या भैंस बधी मिली और उनके आसपास कीचड़ और गन्दगी का अंबार भी मिला। पक्के कुँए भी दिखे जिनके ऊपर फिट की गयी पुल्ली और रस्सी यह गवाही दे रहे थे कि कुँए का पानी प्रयोग भी किया जाता है।
मैं रुककर तस्वीर लेने लगा तो गमछा लपेटे कुछ लोग कौतूहल वश मुझे घेरकर खड़े हो गये। मैंने करीब एक फिट गहरे कींचड़ में खड़ी भैंस को इंगित कर पूछा कि ऐसे में यह आराम कैसे कर पाती होगी तो नंगे बदन वाले एक आदमी ने बताया - भैंस को तो जितना ही कींचड़ और पानी मिले उतना ही अच्छा है। यह इसी में लोट-पोट कर आराम भी करती है और खाती-पीती भी है। मेरे लिए यह कल्पना करना कठिन हो रहा था कि इसके पालक कीचड़ के बीच ही रखे नाद में चारा डालने कैसे जाते होंगे और दूध कैसे दूहते होंगे। उस आदमी ने यह भी बताया कि गाय को आराम से बैठने के लिए सूखी जमीन चाहिए लेकिन भैंस तो कैसे भी रह जाती है।
मुझे इस बात पर अपने गाँव का वह दृश्य याद आ गया जो मैंने इस रक्षाबंधन के दिन अपने अति संक्षिप्त प्रवास के दौरान देखा था। दो-तीन दिनों की बारिश के बाद उस दिन तेज धूप निकली थी, ऊमस और गर्मी अपने चरम पर थी। दोपहर में जब मैं वहाँ पहुँचा तो घर में पिताजी को न पाकर बाहर के बैठके में गया। वहाँ पता चला कि गायों के आराम करने की जो मड़ई है उसकी फ़र्श पर ईंटों का खड़ंजा लगाया जा रहा है। पिताजी स्वयं इस कार्य में लगे हुए थे। दरवाजे का सेवक और मेरे भाई साहब सहयोगी की भूमिका में थे। उन्हें पसीने से तर-बतर देखकर मैंने पूछा कि कोई मजदूर क्यों नहीं लगा लिए। वे बोले- गो-सेवा का काम मजदूर के भरोसे नहीं होता। अपना हाथ लगाना ही पड़ता है।
मैंने भुएमऊ वालों से वहाँ की गन्दगी और जनसुविधाओं के अभाव को इंगित करते हुए पूछा कि यह तो वीआईपी गांव है, सोनिया जी का? उसने छूटते ही प्रतिवाद किया कि सोनिया जी कभी इस गेस्ट हाउस से एक कदम भी आगे गांव में आयीं हो तो बताइए। इसपर मेरा ध्यान उस घर के द्वार पर स्थापित अम्बेडकर जी की प्रतिमा की ओर चला गया जिसे किसी तारावती जी ने स्थापित किया था। वहाँ लगा पत्थर बता रहा था कि वे किसी जिला-जज के ड्राइवर की पत्नी हैं।
मैंने पूछा - अभी भी कुँए का पानी पीते हैं आपलोग? उन्होने सकुचाते हुए बताया कि नहीं, पीने के पानी के लिए एक सरकारी नल है। उसी से सबका काम चलता है। कुँए का पानी जानवर पीते हैं और हम लोग नहाते-धोते हैं।
इसके बाद मैंने लौटते हुए रुक-रुककर सड़क किनारे बंधे हुए कई पशुओं की तस्वीर ली। बछड़े, बछिया, बैल, भैंस, घोड़ा और घोड़ागाड़ी व बैलगाड़ी भी। सबकुछ इस गाँव में ही मिला। एक जगह तो गाय और भैंस एक ही फ्रेम में मिल गये। गाय एक नीम के पेड़ के नीचे थी जिसकी जड़ पर रंग-बिरंगी झंडियाँ लगी थीं। शायद किसी देवी माँ का स्थान था। भैंस एक मड़ई में खड़ी पगुरा रही थी जिसके पैर गंदे कींचड़ में डूबे हुए थे। आगे बढ़ा तो सड़क किनारे बंधे अनेक पशुओं में लाल-गेरुए रंग की दो सुन्दर गायें भी दिखी। साथ में उनका एक बछड़ा भी दूध पीता हुआ। आप तस्वीरें देखिए। लिखकर कितना बताऊँ।























(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

हरित दर्शन और पढ़ाई की कठिन राह

#साइकिल_से_सैर

तीन-चार दिन लगातार बारिश होने के बाद कल धूप खिली तो बाहर सड़क पर आवाजाही बढ़ गयी। सुबह बिस्तर पर पड़ा-पड़ा पहले तो मैं आलस्य रस का भोग करता रहा लेकिन अचानक उठ बैठा। मानो मेरी साइकिल ने जोर से घंटी बजाकर जगा दिया हो। बरामदे में खड़ी साइकिल ने दिखाया कि आँगन में बिछी धूप अमरुद के पेड़ की हरियाली के साथ ताल मिला रही है। मैंने फ़ौरन तैयारी की और साइकिल के साथ इंदिरा उद्यान के गेट का चक्कर लगाते हुए गोरा बाजार चौराहे तक जाकर परसदेपुर मार्ग पर निकल पड़ा।
सात बज चुके थे और स्कूली बच्चे घरों से निकलने लगे थे। साइकिल, स्कूटी, स्कूटर, रिक्शा, ठेला, ऑटो, वैन, जीप और बसों में सवार होकर अधिकांश बच्चे आज रंगीन टी-शर्ट्स में जा रहे थे। लाल, पीली, हरी और नीली टी-शर्ट शनिवार की यूनीफॉर्म होती है। इन चार रंगो से स्कूल के बच्चों के चार हॉउस बनते हैं। आशा, एकता, प्रेम और शांति (Hope, Unity, love & Peace) का सन्देश देते ये चार रंग प्राइवेट स्कूलों के बच्चों के ऊपर खिल रहे थे। सरकारी स्कूल सभी दिनों में प्रायः एक ही ड्रेस चलाते हैं। इसलिए सफ़ेद और खाकी वाले बच्चे भी दिखायी दे रहे थे।

लेकिन शहर से बाहर निकलने पर एक ही रंग का साम्राज्य चारो ओर फैला हुआ दिखा। धरती का इंच-इंच हरे और धानी परिधान से ढका हुआ था। पेड़ों की पत्तियां बारिश से धुलकर चमक रही थी। खेतों में धान और कुछ दूसरी फसलें भी और सड़क किनारे की खाली जमीन में उग आये खर पतवार और घासें भी, सभी एक ही ड्रेस-कोड का पालन कर रहे थे।

मैं भुएमऊ गेस्ट-हाउस के गेट के पास एक चाय की दुकान पर रुका। फूस की मड़ई के भीतर एक तख़्त पर बैठकर चाय पीते हुए मैं सड़क के उसपार पसरी हुई हरियाली और सड़क पर आती-जाती सवारियों को देखता रहा। देहात से शहर की ओर जाते साइकिल सवार मजदूर और स्कूली बच्चे व कोचिंग करने वाले विद्यार्थी निकलते जा रहे थे। मोबाइल कैमरे से सबकुछ समेट लेने का जी कर रहा था। नीले आसमान में यत्र-तंत्र सफ़ेद बादल लटके हुए थे जिनपर पड़ने वाली सूरज की तेज किरणें आकर्षक छटा बना रही थीं।
वहाँ से लौटते हुए एक जोड़ी सूखे पेड़ों ने रोक लिया। हरी-भरी धरती पर नीले आसमान में चमकते सूरज की किरणों से सराबोर ये तरुकंकाल ग़जब की कन्ट्रास्ट छवि प्रस्तुत कर रहे थे। इनके तने पर किसी उभरते कांग्रेसी नेता ने एक बोर्ड टंगवा रखा था जिसपर राहुल गांधी के जन्मदिन और रमजान व ईद की मुबारकबाद का सन्देश लिखा था। शायद गेस्ट हॉउस जाने वाले बड़े नेताओं और सोनिया जी के काफ़िले की नज़रे इनायत की उम्मीद से।

कुछ फोटो खींचकर आगे बढ़ा तो शहर की ओर साइकिल भगाते हुए अनुराग जायसवाल मिल गये। कॉमर्स की बारहवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। अपनी साइकिल उनके बगल में लाकर मैंने बात शुरू की। उन्होंने सिविल लाइन्स तक आते-आते जो बातें बतायी वह एक सामाजिक अध्ययन का विषय है। महात्मा गांधी इंटर कालेज से उनका घर 10 किमी. दूर अयासपुर डीही गाँव में है। घर में छोटी बहन और माँ है, बाबा-दादी हैं। पिताजी राजस्थान में किसी मोज़े बनाने वाली फैक्ट्री में काम करते हैं। इन्हें स्कूल की पढ़ाई और कोचिंग करने के लिए रोज दो बार रायबरेली आना-जाना पड़ता है। यानि रोज 40 किलोमीटर साइकिल चलाते हैं।

मैंने सुझाया कि सुबह स्कूल के लिए निकलें तो टिफिन लेकर आया करें और शाम की कोचिंग निपटा के ही वापस जाया करें। बीच के तीन-चार घंटे किसी लाइब्रेरी में बैठकर उसका सदुपयोग करें। इसपर वे बोले कि घरपर कुछ जानवर हैं जिनकी देखभाल भी करनी पड़ती है। मैंने फिर समझाने की कोशिश की। दोपहर का ज्यादा समय आने-जाने में बर्बाद करना ठीक नहीं। थकान भी ज्यादा होती होगी और शाम को जल्दी नींद भी आती होगी। ऐसे में सी.ए. बनने का सपना बहुत कठिन हो जाएगा।

मेरी बात उन्हें कुछ-कुछ समझ में आती प्रतीत हुई क्योंकि जब हमारा रास्ता अलग होने को आया तो उन्होंने रुककर एक फोटो खिंचवाने के मेरे अनुरोध को सहर्ष स्वीकार कर लिया था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) 


बुधवार, 17 अगस्त 2016

बारिश में उफ़नती सई, धोबीघाट और शहीद स्मारक

रायबरेली में इस सप्ताहांत खूब बारिश हुई। रविवार को मैं लखनऊ चला गया था और 15 अगस्त को मैंने राष्ट्रध्वज की सलामी भी राजधानी में ही कर लिया। मंगलवार को ड्यूटी पर लौटा तो पता चला कि लगातार तीन दिनों की बारिश से रायबरेली और आसपास त्राहि-त्राहि मची है। कितने मकान गिर गये जिनमें दबकर कुछ जानें भी चली गयीं। कलेक्ट्रेट में झंडारोहण का कार्यक्रम डीएम साहब ने छाता लगाकर निपटाया था, और बहुत से कर्मचारी भींग गये थे। कुछ कार्यालयों में पानी भर जाने से झंडारोहण की खानापूर्ति भर हो पायी।
इस बरसात का असर रायबरेली के किनारे से बहने वाली सई नदी पर भी पड़ा है। आज सुबह साइकिल लेकर जब मैं शहीद स्मारक की ओर जाने वाले पैदल पुल के पास पहुँचा तो बिलकुल नया दृश्य देखने को मिला। मई महीने में प्रायः सूख कर छोटी पोखर में बदल चुकी सई नदी की तस्वीरें मैंने साइकिल से सैर की सृंखला में 6 मई को यहाँ पोस्ट की थी। उसकी तुलना में आज नदी के पाट खूब फैले हुए दिखे। पुल के एक ओर अभी भी जलकुम्भी का जाल नदी की सतह पर अपनी जकड़बंदी बनाये हुए था लेकिन दूसरी ओर विशाल जलराशि सबकुछ डुबाये दे रही थी।
धोबीघाट की जगह पहले से करीब 100 मीटर दूर जा पहुँची थी जहाँ आज भी कपड़े धोये जा रहे थे। लेकिन इस कीचड़ युक्त मटमैले पानी से सफ़ेद कपड़े भी धुलकर कैसे उजले हो जाते हैं यह पहेली अभी भी सुलझा नहीं पाया हूँ।