आज साइकिल लेकर रायबरेली से परसदेपुर मार्ग पर भुएमऊ गांव के उस पार तक गया। बल्कि उससे भी आगे जहाँ रायबरेली विकास प्राधिकरण वालों ने एक स्वागत द्वार बनवा रखा है। इसके ऊपर हिंदी और उर्दू में एक सन्देश लिखा है - "राजी ख़ुशी खैरियत से रहिए"। पता नहीं क्यों लोग इतनी सरल बात नहीं समझते और नाराजगी में दुःखी रहा करते हैं।
भुएमऊ गाँव की एक विशेषता सभी जानते हैं। कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया जी के संसदीय क्षेत्र का विश्राम स्थल यहीं है। भुएमऊ गेस्ट हॉउस की ड्योढ़ी उनके प्रवास के समय बड़े-बड़े सत्ताधिपतियों और उम्मीदवारों के माथा टेकने की गवाह होती है।
इस गाँव की दूसरी विशेषता जो मैंने आज देखी वह है- पारंपरिक ग्रामीण जीवनशैली का प्रायः अपरिवर्तित रूप। शहर के समीप होने के बावजूद इस गाँव में बहुत कुछ एक दूर-दराज के पिछड़े देहात जैसा ही दिखा। प्रायः प्रत्येक घर के सामने एक-दो गाय या भैंस बधी मिली और उनके आसपास कीचड़ और गन्दगी का अंबार भी मिला। पक्के कुँए भी दिखे जिनके ऊपर फिट की गयी पुल्ली और रस्सी यह गवाही दे रहे थे कि कुँए का पानी प्रयोग भी किया जाता है।
मैं रुककर तस्वीर लेने लगा तो गमछा लपेटे कुछ लोग कौतूहल वश मुझे घेरकर खड़े हो गये। मैंने करीब एक फिट गहरे कींचड़ में खड़ी भैंस को इंगित कर पूछा कि ऐसे में यह आराम कैसे कर पाती होगी तो नंगे बदन वाले एक आदमी ने बताया - भैंस को तो जितना ही कींचड़ और पानी मिले उतना ही अच्छा है। यह इसी में लोट-पोट कर आराम भी करती है और खाती-पीती भी है। मेरे लिए यह कल्पना करना कठिन हो रहा था कि इसके पालक कीचड़ के बीच ही रखे नाद में चारा डालने कैसे जाते होंगे और दूध कैसे दूहते होंगे। उस आदमी ने यह भी बताया कि गाय को आराम से बैठने के लिए सूखी जमीन चाहिए लेकिन भैंस तो कैसे भी रह जाती है।
मुझे इस बात पर अपने गाँव का वह दृश्य याद आ गया जो मैंने इस रक्षाबंधन के दिन अपने अति संक्षिप्त प्रवास के दौरान देखा था। दो-तीन दिनों की बारिश के बाद उस दिन तेज धूप निकली थी, ऊमस और गर्मी अपने चरम पर थी। दोपहर में जब मैं वहाँ पहुँचा तो घर में पिताजी को न पाकर बाहर के बैठके में गया। वहाँ पता चला कि गायों के आराम करने की जो मड़ई है उसकी फ़र्श पर ईंटों का खड़ंजा लगाया जा रहा है। पिताजी स्वयं इस कार्य में लगे हुए थे। दरवाजे का सेवक और मेरे भाई साहब सहयोगी की भूमिका में थे। उन्हें पसीने से तर-बतर देखकर मैंने पूछा कि कोई मजदूर क्यों नहीं लगा लिए। वे बोले- गो-सेवा का काम मजदूर के भरोसे नहीं होता। अपना हाथ लगाना ही पड़ता है।
मैंने भुएमऊ वालों से वहाँ की गन्दगी और जनसुविधाओं के अभाव को इंगित करते हुए पूछा कि यह तो वीआईपी गांव है, सोनिया जी का? उसने छूटते ही प्रतिवाद किया कि सोनिया जी कभी इस गेस्ट हाउस से एक कदम भी आगे गांव में आयीं हो तो बताइए। इसपर मेरा ध्यान उस घर के द्वार पर स्थापित अम्बेडकर जी की प्रतिमा की ओर चला गया जिसे किसी तारावती जी ने स्थापित किया था। वहाँ लगा पत्थर बता रहा था कि वे किसी जिला-जज के ड्राइवर की पत्नी हैं।
मैंने पूछा - अभी भी कुँए का पानी पीते हैं आपलोग? उन्होने सकुचाते हुए बताया कि नहीं, पीने के पानी के लिए एक सरकारी नल है। उसी से सबका काम चलता है। कुँए का पानी जानवर पीते हैं और हम लोग नहाते-धोते हैं।
इसके बाद मैंने लौटते हुए रुक-रुककर सड़क किनारे बंधे हुए कई पशुओं की तस्वीर ली। बछड़े, बछिया, बैल, भैंस, घोड़ा और घोड़ागाड़ी व बैलगाड़ी भी। सबकुछ इस गाँव में ही मिला। एक जगह तो गाय और भैंस एक ही फ्रेम में मिल गये। गाय एक नीम के पेड़ के नीचे थी जिसकी जड़ पर रंग-बिरंगी झंडियाँ लगी थीं। शायद किसी देवी माँ का स्थान था। भैंस एक मड़ई में खड़ी पगुरा रही थी जिसके पैर गंदे कींचड़ में डूबे हुए थे। आगे बढ़ा तो सड़क किनारे बंधे अनेक पशुओं में लाल-गेरुए रंग की दो सुन्दर गायें भी दिखी। साथ में उनका एक बछड़ा भी दूध पीता हुआ। आप तस्वीरें देखिए। लिखकर कितना बताऊँ।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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