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शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

नेताओं की पेंशन तो बनती है

आजकल सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों पर इस आशय की टिप्पणियाँ देखने को मिल रही हैं कि एक बार विधायक या सांसद बन जाने और पाँच या उससे कम समय के कार्यकाल पर भी आजीवन पेंशन क्यों दी जाती है; जबकि सरकारी कर्मचारियों को पूरी पेंशन पाने के लिए कम से कम बीस साल की सेवा देनी पड़ती है। कुछ लोगों ने तो बाकायदा प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर राजनैतिक पेंशन समाप्त करने की मांग की है और सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक शेयर करने का अभियान भी चला रहे हैं।
मैं इस प्रस्ताव के विचार से कतई सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। मुझे लगता है कि जनप्रतिनिधियों/ नेताओं (सांसद, विधायक) का कार्यकाल पाँच वर्ष या इससे कम होने पर भी पेंशन मिलने पर आपत्ति करना और इसकी तुलना सरकारी कर्मचारियों से करना सीमित दृष्टि का परिचायक है।
कभी यह भी गणना कीजिए कि चुनाव लड़कर जीत की देहरी तक पहुंचने से पहले ये लोग कितना समय और परिश्रम राजनीति की दुनिया में लगाते हैं। साल-दो साल की मेहनत करके सरकारी नौकरी पा जाने वालों की तरह कोई व्यक्ति तुरत-फ़ुरत विधायक या सांसद नहीं बन जाता। अपवादों को छोड़ दें तो इस सफलता तक पहुंचने के लिए उन्हें बीसो साल तक पसीना बहाना पड़ता है - जनता के बीच रहकर। जनता के बीच एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं। माथा टेकना पड़ता है। उनका सुख दुख बांटना पड़ता है। वे जब विधायक या सांसद नहीं हुए रहते हैं तब भी जनसेवा का काम करते रहते हैं। राजनीतिक गतिविधियों में ही दिन-रात लगे रहते हैं।
जरा आकलन कीजिए कि जितने लोग राजनीति में करियर बनाते हैं उनमें कितनों को विधायकी या उससे ऊंची कुर्सी नसीब होती है? एक-दो प्रतिशत से अधिक नहीं। जबकि जनसेवा में अपनी क्षमता के अनुसार सभी लगे रहते हैं। उन्हें हर पांच साल बाद परीक्षा देनी पड़ती है। बिल्कुल नये सिरे से जुटना पड़ता है। सिर्फ एक सीट के लिए उनकी परीक्षा होती है। कितने तो ऐसे भी होते हैं जो पूरी जिंदगी लगे रहते हैं और पेंशन लायक नहीं बन पाते।
सरकारी नौकरी में तो एक बार दो-तीन साल की कड़ी मेहनत से (या चोर दरवाजे से भी) नौकरी पा जाने के बाद आजीवन वेतन व पेंशन की गारंटी हो जाती है। मेहनत से काम करें या ऊंघते रहें, ईमानदारी करें या मक्कारी करें समय से वेतन वृद्धि और वेतन आयोग की संस्तुतियां मिलती रहेंगी। दर्जनों किस्म की छुट्टियाँ और तमाम सुविधाएं भी।
जिस असुरक्षा और अनिश्चितता के बीच जनता की नजरों से ये राजनेता निरंतर परखे जाते हैं वैसी स्थिति सरकारी कर्मचारियों की नहीं है। यहाँ तो ये स्थायी लोकसेवक अतिशय सुरक्षा और न्यूनतम उत्तरदायित्व का सुख लूटने में लगे हुए हैं। मुझे तो राजनेताओं की पेंशन पर प्रश्नचिह्न लगाना बेहद अनैतिक और संकुचित सोच का परिणाम लगता है।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
संयुक्त निदेशक कोषागार व पेंशन



2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-08-2017) को "'धान खेत में लहराते" " (चर्चा अंक 2694) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, देश के तेरहवें उपराष्ट्रपति बने एम वेंकैया नायडू “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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