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सोमवार, 30 जून 2014

अच्छे दिन की जल्दी मची है…

विज्ञान भवन सभागार में उद्योग और व्यापार संबंधी सम्मेलन में मनमोहन सिंह के भाषण के बाद नरेन्द्र मोदी ने जब उनकी इस बात का समर्थन अपने खास अन्दाज में किया कि भारत की बिगड़ी अर्थव्यवस्था में जल्द ही सुधार होगा और अच्छे दिन आएंगे तो इसका अर्थपूर्ण ढंग से तालियाँ बजाकर स्वागत करने वालों ने भी नहीं सोचा होगा कि अच्छे दिन का जुमला इतनी दूर और इतनी देर तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहेगा। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने जमकर यह नारा लगाया और भुनाया। कुछ इस तरह कि यदि जनता ने वोट देकर भाजपा को जिता दिया तो चुनाव के परिणाम घोषित होते ही देश का काया-पलट हो जाएगा।

ऐसे वादे हुए मानो गरीबी, अशिक्षा, महंगाई और भ्रष्टाचार समुद्र में डूबकर आत्महत्या कर लेंगे, गाँव- गाँव में तेल के कूँए निकल आएंगे, जमीन में से हजारो टन सोना सही में बाहर आ जाएगा, लोगों का बैंक में जमा सारा रूपया डॉलर में तब्दील हो जाएगा और स्विस बैंक से काला धन मालगाड़ी में लादकर भारत चला आएगा, बेरोजगारी उड़न-छू हो जाएगी, सभी अपराधियों का हृदय परिवर्तन हो जाएगा और बलात्कारी साधुवेश धारणकर तीर्थाटन पर निकल जाएंगे । जनता ने शायद इसी तरह के चमत्कार की आशा में प्रचंड बहुमत से उन्हें जिता भी दिया।

अब जबकि झटपट रेल का किराया बढ़ा दिया गया है, एक महीने के भीतर दूसरी बार पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढ़ रहे हैं और देश की बाकी चीजें जहाँ की तहाँ वैसी ही बनी हुई हैं तो वही जनता सरकार पर पिल पड़ी है। क्या यही हैं अच्छे दिन? मानो मोदी सरकार ने घोर अनर्थ और भयंकर धोखा कर डाला हो उनके साथ। सरकार को खरी-खोटी सुनाने में कांग्रेस समर्थक और वामपंथी खेमा तो स्वाभाविक रूप से आगे है लेकिन बहुत से पार्टी-लाइन से स्वतंत्र विचार रखने वाले और कुछ भाजपा समर्थक भी इस हो-हल्ले में शामिल हो गये दिख रहे हैं।

कोई यह मानने को तैयार नहीं कि चुनावी मौसम की जुमलेबाजी और यथार्थ के धरातल पर नीति निर्माण और शासन का संचालन बिल्कुल दो अलग बातें हैं। बिगड़ी हुई अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जिस कठिन संयम, कठोर अनुशासन और संयत धैर्य की आवश्यकता है उसका संज्ञान लेने की सुध सोशल मीडिया के लिक्खाड़ों से लेकर अखबार के संपादकों और न्यूज चैनेलो के पैनेलो में बोलने वाले विशेषज्ञों में भी नहीं दिख रहा है। चुनाव में करारी शिकस्त खाने वाले कांग्रेसी अपनी दस साल की करनी को भूलकर इस बात से खफा हैं कि इसी एक महीने में वह चमत्कारी परिवर्तन हुआ क्यों नहीं। वामपंथी और ‘सेकुलर गिरोह’ की तो बाछें खिली हुई हैं कि जनता का मोहभंग इतना जल्दी हो गया।

देश की अर्थव्यवस्था कैसे चलती है और किसी आर्थिक नीति का प्रभाव कितने दिनों बाद दिखायी देता है यह सब सोचने-समझने की किसी को फुर्सत नहीं है। बौद्धिक स्तर पर खुद से बेईमानी भरी सोच के एक से एक नमूने दिखायी दे रहे हैं।

किसी अच्छे-भले घर को सिर्फ़ रंगवाने-पुतवाने का काम कराना हो तो भी कुछ दिन के लिए इसमें रहने वालों को परेशानी का सामना करना पड़ता है, बजट के संतुलन के लिए कुछ दूसरे कामों को रोकना पड़ता है तब जाकर काम पूरा होता है। सोचिए अगर किसी इमारत की हालत बेहद कमजोर हो जाय, उसकी दीवारें खराब हो जायें, नींव की ताकत पर भी संदेह हो जाय तो उसे ठीक और मजबूत करने के लिए क्या-क्या करना पड़ेगा। शर्त यह भी है कि इमारत को ठीक तो करा दिया जाय लेकिन इसके लिए इसमें निवास करने वालों को कोई तकलीफ़ न हो, उन्हें इमारत से न तो बाहर निकालना है और न ही पूरी इमारत को गिराकर नये सिरे से बनाना है।

अब ऐसा चमत्कार तो कोई जिन्न ही कर सकता है जिसे अलादीन अपने चिराग से निकालते थे। फिलहाल मोदी सरकार के पास कोई जादू की छड़ी है नहीं। आपने अगर इस मुगालते में वोट दे दिया था तो आप घामड़ किस्म के इंसान हैं। आप अपने निर्णय पर पछता लीजिए, अपने बाल नोच लीजिए, स्टेटस डालकर पूरी भड़ास निकाल लीजिए। अच्छे दिन की इतनी जल्दी है तो छत से कूद जाइए लेकिन उसे आना होगा तो भी वह अपना समय लेकर ही आएगा। अभी जो वातावरण है उसमें तो नहीं आने वाला है अच्छा दिन।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
www.satyarthmitra.com

8 टिप्‍पणियां:

  1. कूदना ही है छत से आज नहीं तो कल । अच्छे बुरे दिन तो आते रहते हैं । सरकारें बची रहें । उन्नति करें । और हमारे आस पास उनके पाले पोसे :)

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  2. बजट का भी इंतज़ार कर लिया जाय -हो सकता है अच्छा दिन वहां दुबका बैठा हो :-)

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  3. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।

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  4. अच्छे दिनों का तो पाता नहीं देश में कब आने वाले हैं ... शायद अगली कई कई सरकारें भी ये न कर सकें ...
    हाँ अगर बदलाव की बयार भी शुरू हो गयी तो काफी है ...

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  5. we want this and that , but we do NOT want the pain associated with it. NO DEVELOPED nations got there without efforts, every nation has gone through the labor pain to get where they are - but we want to just throw stones.

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  6. सही कहा है अच्‍छे दिन कोई पेड़ पर थोड़े ही लटके हैं कि हाथ बढ़ाया और तोड़ लिया। इन अच्‍छे दिनों की उम्‍म्‍ाीद पर कुशासन के बुरे दिन बहुत भारी हैं अभी। वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष गिरोह तो कहने ही क्‍या पर कुछ भाजपा समर्थन भी ख्‍वामख्‍वाह की जल्‍दीबाजी कर रहे हैं। अपेक्षाएं इतनी जल्‍दी कैसे पूर्ण होंगी।

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