आजकल राज्यों के चुनाव अपने उत्स पर हैं। शुरुआती दौर के आँकड़े बताते हैं कि इस बार मतदाताओं ने जोर-शोर से वोटिंग में हिस्सा लिया है और मतदान प्रतिशत का रिकॉर्ड बना दिया है। इस दौर में उत्साहजनक बात यह भी है कि महिला मतदाताओं ने अधिक बढ़-चढ़कर वोट डाले हैं। जानकारों की राय है कि इस कारण चुनाव परिणाम अचंभित करने वाले हो सकते हैं।
मैं यहाँ लखनऊ में सरकारी नौकरी की सीमाओं में बँधकर प्रायः मताधिकार का प्रयोग करने से वंचित रह जाता हूँ। मेरा नाम अपने पैतृक गाँव की मतदाता सूची में सम्मिलित है। वहाँ से नाम कटाने और लखनऊ में जुड़वाने की बात चलती है तो मैं गाँव में अपनी पहचान को लेकर भावुक हो जाता हूँ इसलिए स्थिति यथावत् बनी रहती है। बहरहाल इस बार भी जब गाँव में वोट पड़ रहे थे और मैं लखनऊ में मन मसोसकर सरकारी काम निपटा रहा था तो बेचैनी के बीच एक रचना का अंकुर फूट पड़ा। दिल तो मेरा गाँव में ही भटक रहा था; इसलिए वहाँ का चुनावी माहौल वहीं की बोली में शब्दों के बीच उभर आया। आज वह अंकुर विकसित होकर एक पूरा गीत बन गया है। आप भी सुनिए बसन्ती माहौल में मेरे गाँव का आँखों देखा हाल जो शायद आपके गाँव का भी हो :
चुनाव गीत धानी रंग चुनरी में लाले-लाल गोटवा (सिद्धार्थ) |
चलो डाल आयें वोट...
जवाब देंहटाएं...हमरा भी गाँव छूटा, मुलुक छूटा सो चुनाव भी छूट गया.
जवाब देंहटाएंचुनावी-गीत बहुतै ज़ोरदार बन गवा है !
जबरदस्त रचना ....
जवाब देंहटाएंI always appreciate your timely relevant poems . This is a fantastic poem exposing the political status of our country and a hint of awakening against it.Your poem prompted me to post Adam Gondwi's ghazal on my wall.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गीत..बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंइन पंक्तियों को मैने ऐसे पढ़ा..
धाँधली के राज बाटै
खर्ची अकाज बाटै
राशन के दुकानी से
ग़ायब अनाज बाटै
नेता-ठेकेदार सगरी लूटि लिहलें कोटवा
जा ताड़ी गोरी देखऽ डारे आजु वोटवा
उत्कृष्ट! यह तो लोकसाहित्य रच डाला आपने - बाबा रामदेव कूदें बान्धि के लंगोटवा!
जवाब देंहटाएंसभे नापसंद के त कवनो विकल्प बड़ने नइखे।
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