समय: प्रातःकाल 6:30 बजे
स्थान: बर्थ सं.18 - A1, पटना-सिकंदराबाद एक्सप्रेस
इस पोस्ट को लिखने का तात्कालिक कारण तो इस ए.सी. कोच का वह ट्वॉएलेट है जिससे निकलकर मैं अभी-अभी आ रहा हूँ और जिसके दरवाजे पर लिखा है- ‘पाश्चात्य शैली’। लेकिन उसकी चर्चा से पहले बात वहाँ से शुरू करूँगा जहाँ पिछली पोस्ट में छोड़ रखा था।
आप जान चुके हैं कि वर्धा से कार में इलाहाबाद के लिए चला था तो एक चौथाई रास्ता टायर की तलाश में बीता। जबलपुर में टायर मिला तो साथ में एक पोस्ट भी अवतरित हो ली। आगे की राह भी आसान न थी। रीवा से इलाहाबाद की ओर जाने वाला नेशनल हाई-वे पिछले सालों से ही टूटा हुआ है। अब इसकी मरम्मत का काम हो रहा है। नतीज़तन पूरी सड़क बलुआ पत्थर, पथरीली मिट्टी और बेतरतीब गढ्ढों का समुच्चय बनी हुई है। पिछले साल इसी रास्ते से वर्धा जाते समय मुझे करीब चालीस किमी. की दूरी पार करने में ढाई घंटे लग गये थे। इसलिए इस बार मैं सावधान था।
मैंने अपने एक मित्र से वैकल्पिक रास्ता पूछ लिया था जो रीवा से सिरमौर की ओर जाता था; और काफी घूमने-फिरने के बाद रीवा-इलाहाबाद मार्ग पर करीब साठ किमी आगे कटरा नामक बाजार में आकर मिल जाता था। रीवा से सिरमौर तक चिकनी-चुपड़ी सड़क पर चलने के बाद हमें देहाती सड़क मिली जो क्यौटी होते हुए कटरा तक जाती थी। हमें दर्जनों बार रुक-रुककर लोगों से आगे की दिशा पूछनी पड़ी। एक गाँव के बाहर तिराहे पर भ्रम पैदा हो गया जिसे दूर करने के लिए हमें पीछे लौटकर गाँव के भीतर जाना पड़ा। अँधेरा हो चुका था। कोई आदमी बाहर नहीं दिखा। एक घर के सामने गाड़ी रोककर ड्राइवर रास्ता पूछने के लिए उस दरवाजे पर गया। दो मिनट के भीतर कई घरों के आदमी हाथ में टॉर्च लिए गाड़ी के पास इकठ्ठा हो गये। फिर हमें रास्ता बताने वालों की होड़ लग गयी। कम उम्र वालों को चुप कराकर एक बुजुर्गवार ने हमें तफ़्सील से पूरा रास्ता समझा दिया। उनके भीतर हमारी मदद का ऐसा जज़्बा था कि यदि हम चाहते तो वे हमारे साथ हाइ-वे तक चले आते।
खैर, आगे का करीब चालीस किमी. का सर्पाकार देहाती रास्ता प्रायः गढ्ढामुक्त था। रात का समय था इसलिए इक्का-दुक्का सवारी ही सामने से आती मिली। सड़क इतनी पतली थी कि किसी दुपहिया सवारी को पार करने के लिए भी किसी एक को सड़क छोड़ने की नौबत आ जाती। जब हम हाइ-वे पर निकल कर आ गये तो वही क्षत-विक्षत धूल-मिट्टी से अटी पड़ी सड़क सामने थी। उफ़्... हम हिचकोले खाते आगे बढ़ते जा रहे थे और सोचते जा रहे थे कि शायद हमारा वैकल्पिक रास्ते का चुनाव काम नहीं आया। खराब सड़क तो फिर भी मिल गयी। हमने कटरा बाजार में गाड़ी रुकवायी। सड़क किनारे दो किशोर आपस में तल्लीनता से बात कर रहे थे। उनमें से एक साइकिल पर था। जमीन से पैर टिकाए। दूसरा मोबाइल पर कमेंट्री सुन रहा था और अपने साथी को बता रहा था।
मैंने पूछा- भाई, यह बताओ यह सड़क अभी कितनी दूर तक ऐसे ही खराब है?
लड़का मुस्कराया- “अंकल जी, अब तो आप ‘कढ़’ आये हैं। पाँच सौ मीटर के बाद तो क्या पूछना। गाड़ी हवा की तरह चलेगी।” उसने अपने दोनो हाथों को हवा में ऐसे लहराया जैसे पानी में मछली के तैरने का प्रदर्शन कर रहा हो। जब हमने बताया कि हम हाई-वे से होकर नहीं आ रहे हैं बल्कि सिरमौर होकर आ रहे हैं तो उसने हमें शाबासी दी और बुद्धिमान बता दिया। बोला- जो लोग हाई-वे से आ रहे हैं उनकी गाड़ी लाल हो जाती है। गेरुए मिट्टी-पत्थर की धूल से। आप अपनी कार ‘चीन्ह’ नहीं पाते। हमें समझ में आ गया कि आगे का रास्ता बन चुका है। हम खुश हो लिए और आगे चल दिए। इलाहाबाद तक कोई व्यवधान नही हुआ।
इलाहाबाद में सरकारी काम निपटाने के अलावा अनेक लोगों से मिलने का सुख मिला। आदरणीय ज्ञानदत्त पांडेय जी के घर गया। श्रद्धेया रीता भाभी के दर्शन हुए। सपरिवार वर्धा जाकर नौकरी करने के हानि-लाभ पर चर्चा हुई। गुरुदेव के स्वास्थ्य की जानकारी मिली। लम्बे समय तक चिकित्सकीय निगरानी में रहने और लगातार दवाएँ लेते रहने की मजबूरी चेहरे पर स्थिर भाव के रूप में झलक रही थी। वे इस बार कुछ ज्यादा ही गम्भीर दिखे।
प्रयाग में मेरे पूर्व कार्यस्थल-कोषागार से जुड़े जितने भी अधिकारी-कर्मचारी और इष्टमित्र मिले उन सबका मत यही था कि मुझे अपना प्रदेश और इलाहाबाद छोड़कर बाहर नहीं जाना चाहिए था। इस विषय पर फिर कभी चर्चा होगी।
वर्धा वापस लौटने का कार्यक्रम रेलगाड़ी से बना। दिन भर मंगल-व्रत का फलाहार लेने के बाद शाम को एक मित्र की गृहिणी के हाथ की बनी रोटी और दही से व्रत का समाहार करके मैं स्टेशन आ गया। अनामिका प्रकाशन के विनोद शुक्ल और वचन पत्रिका के संपादक प्रकाश त्रिपाठी गाड़ी तक विदा करने आये। उन्हें हार्दिक धन्यवाद देकर हम विदा हुए। रात में अच्छी नींद आयी।
आज सुबह जब हम ‘पाश्चात्य शैली’ के शौचालय में गये तो वहाँ का अद्भुत नजारा देखकर मुस्कराए बिना न रह सके। साथ ही पछताने लगे कि काश कैमरा साथ होता। फिलहाल ट्वॉएलेट की देखभाल करने वालों के बुद्धि-कौशल और गरीबी में भी काम चला लेने की भारतीय प्रतिभा का नमूना पेश करते इस ए.सी. कोच के पश्चिमी बनावट वाले शौचालय की कुछ तस्वीरें मैंने अपने मोबाइल से ही खींच डाली हैं। खास आपके लिए। देखिए न...
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
कहीं यह पोस्ट ज्ञानदत्त जी से मिलने के बाद "रेल्वे" को श्रद्धापूर्वक तो नहीं लिखी गई है? इस बात की जाँच हो… hehehehehehe
ReplyDeleteये जुगाड़ ही है जो यात्रियों के मन में बिगाड़ होने से बचाता है :)
ReplyDeleteमुझे तो लगता है कि भारत में यदि सबसे ज्यादा किसी को पूजा जाना चाहिये तो वो हैं'जुगाड़ देवता' जिनके बिना इस देश का पी एम तक खुद को लाचार पाता है :)
यह शोध प्रबंध अच्छा लगा।
ReplyDeleteदेश के जुगाड़तन्त्र से रेलवे भी अछूता नहीं है।
ReplyDeleteचलिए, इस बहाने आपको पाश्चात्य शौच का मज़ा भी आ गया :)
ReplyDeleteबड़ा उत्तम प्रबंध है जी..... रेलवे सचमुच इसके लिए बधाई की पात्र है.. मजेदार रहा वर्णन...
ReplyDeleteइस दौरान आप बनारस भी तो आये थे:)
ReplyDeleteहम भी वाकिफ हो लिए जी रेलवे के इस जुगाड़ तंत्र से..............
ReplyDelete@प्रवीण जी की बात से सहमत हूँ.
ReplyDeleteभारतीय रेल बेमिसाल है....मुझे कोई समस्या नहीं है.....सलिल साहब इसपर कुछ टिप्पणी कर सकेंगे....जो सबके लिए रोचक जानकारी से भरपूर होगा...
ReplyDeleteपाश्चात्य शौच :) बहुत मजेदार लेख मजा आ गया
ReplyDelete:):)
ReplyDeletemast...
ReplyDelete@ डॉ.अरविंद मिश्रा
ReplyDeleteबेशक बनारस गया था। उसका जिक्र इस पोस्ट में करते नहीं बना। पूरी एक अलग पोस्ट ही बन जाती बनारसी बातों की :)
आपके साथ जो चर्चा हुई उसपर अभी मंथन कर रहा हूँ। किसी निष्कर्ष पर पहुँचा तो जरूर लिखूंगा। :)
रोचक रोमांचक लगा आपका विवरण....हमें भी कई संस्मरण याद हो आये...
ReplyDeleteजुगाड़ से तो देश चल रहा है...
अपने यहाँ वैकल्पिक vyavasthaaon (जुगाड़) की kisi भी kshetra में कोई kamee नहीं......
प्रवीन पाण्डेय जी का विचार गौर करने लायक है , वास्तव में जुगाड़तंत्र से रेलवे भी अछूता नहीं है .....लेकिन ऐसी परिस्थियों के लिये उचित रख रखाव का ध्यान नहीं रखा जाना भी जिम्मेवार है....फिर वही सवाल है निगरानी और कार्यवाही की व्यवस्था ?.....वैसे आपके द्वारा ली गयी फोटो इस पोस्ट को चार चाँद लगा रहा है....
ReplyDeleteapni bhartiya rail to hai he lazwab! upar se uttarpradesh ka zikra sath ho, kya kehna.
ReplyDeleteapni bhartiya rail to hai he lazwab !upar se uttar pradesh ke sath zikra ho. poochna hi kya hai!
ReplyDeleteइतनी कठिनाइयों के बावज़ूद जिस किसी की मेहनत से यह सब सुविधायें वहाँ मौजूद हैं, वही आम आदमी भारत के प्रधानमंत्री पद का सही हक़दार है।
ReplyDeleteक्या आपने परिवाद/प्रशस्ति पुस्तिका में एंट्री डाली?