स्थान: जबलपुर का एक कार वर्कशॉप
समय: दोपहर के १२: ३० बजे
अपनी निजी कार से वर्धा से इलाहाबाद के लिए निकलते समय यह कत्तई नहीं सोचा था कि रास्ते में रुककर ब्लॉग पोस्ट लिखने का मौका मिलेगा। लेकिन किसी अदृश्य शक्ति ने मानो मुझे धकेलकर यहाँ बैठा दिया है। मुझे इलाहाबाद की यात्रा सड़कमार्ग से करने की योजना अचानक नहीं बनानी पड़ी। पूरा सोच समझकर पहले से तैयारी थी। लेकिन गड़बड़ तो हो ही गयी।
विश्वविद्यालय परिसर के सबसे अच्छे ड्राइवर को इसके लिए पहले से ही तैयार कर लिया था। दिशाशूल इत्यादि का विचार करने के बाद आज सुबह पाँच बजे निर्धारित समय पर निकला था। इसके पहले गाड़ी की पूरी सर्विसिंग भी इसी सप्ताह करा ली थी कि कोई समस्या न आये। ऑयल, फिल्टर, कूलैंट, बैटरी, लाइट इत्यादि के बाद वर्कशॉप वाले की सलाह पर ह्वील बैलेन्सिंग व एलाइनमेन्ट भी करा लिया। पहियों में पहली बार आम हवा के बजाय नाइट्रोजन डलवाया गया। उसने बताया कि यह इनर्ट गैस होती है जो स्थिर ताप की होती है। लम्बी यात्रा में भी पहिए गर्म नहीं होते।
पूरी सावधानी बरतने के बाद मैंने वर्धा से यात्रा प्रारंभ की। नागपुर जल्दी पहुँच गया। भोर का रास्ता सुनसान था। हमारी गाड़ी आगे बढ़ते हुए पहाड़ी जगलों के बीच बने राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-७ पर बढ़ रही थी। अचानक ट्रकों की लम्बी कतार सड़क के किनारे खड़ी मिली। हमारे ड्राइवर ने गाड़ी खड़ी करने के बजाय सड़क की दाहिनी पटरी पर आगे बढ़ते हुए उस बिन्दु तक गाड़ी पहुँचा दी जहाँ सामने से आने वाली गाड़ियों की कतार प्रारम्भ हो रही थी। आमने-सामने खड़े ट्रकों के बीच महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की सीमा थी जहाँ कई किस्म की जाँच चौकियाँ अपना काम कर रही थीं। ड्राइवर ने बड़ी कुशलता से उस भीड़ के बीच से हमें बाहर निकाल लिया। लेकिन इसके लिए उसे कई बार सड़क छोड़कर किनारे के कीचड़ युक्त गढ्ढों में गाड़ी उतारनी पड़ी।
खैर हम आगे बढ़े और फर्राटे से चलते बने। करीब अस्सी किलोमीटर चलने के बाद ड्राइवर ने अचानक गाड़ी रोक दी। पता चला कि दाहिनी ओर का पिछला पहिया फ्लैट हो चुका है। अब हमारा माठा ठनका। पता नहीं कितनी देर से पंक्चर पहिया चलता रहा। हम स्टेपनी बदलकर आगे बढ़े और अगली ही दुकान पर टायर चेक कराया। पता चला कि रिम पर चलते हुए नये नवेले टायर का कबाड़ा हो चुका है। अब इस जंगल के बीच नया टायर मिलने से रहा। शिवनी, धूमा, लाखनखेड़ा, बर्गी आदि बाजारों में टायर खोजते हम अंततः जबलपुर आ गये हैं। यहाँ टायर मिल गया है। करीब दो सौ किमी. चिन्तित अवस्था में चलते हुए अब हमें सकून मिला है तो यह हाल आपके हवाले कर रहा हूँ। यदि स्टेपनी का कमजोर टायर भी पंक्चर हो जाता तो हम क्या करते?
इस डर को खत्म करने के लिए हमने दो टायर खरीदे। स्टेपनी भी नयी हो गयी। अब इस कथा को ठेलते हुए हम इलाहाबाद की ओर बढ़ रहे हैं। जबलपुर के प्रिय मित्रों से क्षमा याचना सहित कि इच्छा रहते हुए भी हम उनके साथ चाय नहीं पी सके।
जबलपुर की ब्लॉग-उर्वर मिट्टी को हमारा सलाम।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
मान गये जबलपुर की मिट्टी में ब्लॉगिंग का कीड़ा है...
जवाब देंहटाएंकौन सा टायर पंक्चर करता है यह?
जबलपुर को बिना पोस्ट बढ़ाये निकले जा रहे थे, पंचर तो होना ही था।
जवाब देंहटाएंवैसे दो साल पहले जब हम जबलपुर से कान्हा नेशनल पार्क के लिए निकले ही थे कि करीब रात के दस बजे हमारी कार का टायर पंचर हो गया, बीच जंगल में आहिस्ता आहिस्ता घबराते हुए एक एक जगह पर पंचर वाले को ढूंढते रहे, रात दो एक बजे एक बंदा मिला जिसने डेढ़ घंटे इंतज़ार करवाने के बाद पंचर ठीक किया, और जिस रेसोर्ट में हमने रात की बुकिंग करवा रखी थी वहा पर सुबह साढे पांच बजे पहुंचे.. जबलपुर में ब्लोगिंग का तो पता नहीं पर पंचर बहुत होते है..
जवाब देंहटाएंबाय द वे.. आपको बिलेटेड जन्मदिवस की शुभकामनये
अचंभित... ओह भाई साहब कम से कम फोन तो कर लिए होते ....
जवाब देंहटाएंटाय पंचर हो गया ओर पता भी नही चला?
जवाब देंहटाएंबाकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी
सुन्दर पोस्ट!
जवाब देंहटाएंज्ञानजी के सवाल के जबाब का इंतजार है।
वैसे जो साधारण हवा आप डलाते हैं उसमें भी 78% तो नाइट्रोजन ही है।
जवाब देंहटाएंबस दिमाग सही सलामत बचाए रखियेगा ..शेष यात्रा की शुभकामनाएं -हमें तो आभास था आप खुद ड्राईव कर रहे हैं !
जवाब देंहटाएंयह यात्रा भी कम रोचक नहीं होगी,शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंचलिए अंत में सब दुरुस्त रहा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा आपका पोस्ट पढ़कर -
जवाब देंहटाएंमात्रभूमि जबलपुर है ....जाने पहचाने शब्द ...जाने पहचाने रास्ते ...!!
वर्णन भी रोचक है .
बधाई एवं शुभकामनाएं .
सड़क यात्रा...तब तो सतना होकर ही निकले होंगे न?
जवाब देंहटाएंगंगा जमुना के संगम के लिए तो मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के संगम से गुज़रने का पुण्य कुछ तो मिलना चाहिए ना :)
जवाब देंहटाएंवंदना जी, सतना होकर नहीं। जबलपुर से कटनी होते हुए मैहर, रीवा फिर इलाहाबाद। एक दिन में करीब साढ़े सात सौ किलोमीटर की सड़क यात्रा थी। रुकना, मिलना, मिलाना नहीं हो सका।
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