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रविवार, 29 जून 2008

एक ठेले पर सिमटी जिन्दगी…

इलाहाबाद में दूर-दूर से आकर पढ़ाई और ‘तैयारी’ करने वालों का एक काम कमरा ढूँढना भी होता है। मैं भाग्यशाली था जो हॉस्टल जल्दी मिल गया। लेकिन बालमन की तकलीफ़ लम्बी खिचती रही है। … इसी जद्दोजहद पर उनके लम्बे आलेख के संपादित अंश प्रस्तुत हैं..................................................................


हमने इलाहाबाद में कदम रखने के बाद और पहला कमरा खोजने के दौरान ही यह जान लिया था कि कमरा ढूँढते वक्त मकान- मालकिन को अनिवार्य रूप से ‘भाभी’ कहना होगा, उनकी उम्र चाहे जो हो। जब सुबह-सुबह इसी रिश्ते के ‘भैया’ ने आवाज देकर ऊपर बुलाया तो मुझे इस बात का बिल्कुल भी अन्दाजा न था कि समस्या इतनी गंभीर होगी। मैं सोच रहा था कि शायद लॉज़ के किसी लड़के का किराया बाकी होगा जिससे ‘भैया’ स्वंय न कहना चाहते हों और मेरे माध्यम से कहलवाना चाहते हों। या हो सकता है किसी लड़के ने नल खुला छोड़ दिया हो या बाथरूम का बल्ब जला रह गया हो, यही सब दिखाने-सुनाने के लिये बुलाया हो। ऐसी परेड अक्सर होती ही रहती थी इसलिये मैं बहुत चिंतित नहीं था।

ऊपर पहुँचा तो मेरा स्वागत एक कप चाय के साथ ५० वर्षीया भाभीजी ने किया। भैया पेपर के पहले पन्ने पर छपी आत्महत्या की एक खबर पढ़ते-पढ़ते बोले- “आज-कल के लड़कों को पता नहीं क्या हो गया है? समस्याऒं का सामना ही नहीं करना चाहते। छोटी सी समस्या पर ही परेशान हो जाते हैं और बिना घरवालों की चिन्ता किए आत्म-हत्या जैसा कदम उठा लेते हैं।”

मैने भी उनकी ‘हाँ मे हाँ’ मिलाई और अपनी ओर से एक लाइन फ़ेंक दी, “यह तो कायरता है।”
भैया ने झट से मेरी बात पकड़ ली और बोले- “तुम तो कायर नहीं हो? मैं सकपका गया, इस प्रश्न का क्या मतलब?
उन्होंने बात साफ की- “असल में एक समस्या आन पड़ी है। मेरे एक दूर के रिश्तेदार का लड़का इलाहाबाद आ रहा है, …उनका कहना है कि आप इस लड़के को अपने पास रखें।…अब तुम तो जानते ही हो कि ऊपर तो कोई कमरा खाली है नहीं … नीचे ही किसी से खाली कराना पड़ेगा। अगर तुम किसी लड़के से कहकर कोई कमरा खाली करा दो तो बड़ा अच्छा रहे।”

पूरी बात सुनकर मुझे ‘आत्महत्या’…‘समस्या का सामना’ …और ‘कायरता’ की कड़ियाँ जुड़ी हुई नज़र आने लगीं। मेरी समझ में आ गया कि मुझे कमरा खाली करने की नोटिस दी जा रही है।

फिर भी मैने कहा- “यहाँ सभी मेरे भाई जैसे हैं। मैं किसी से नहीं कह पाऊंगा।”
“तुम तो जानते ही हो मैं किसी से कमरा खाली करने के लिये नहीं कहता, बड़ी तकलीफ़ होती है” भैया ने अत्यंत मार्मिक अंदाज में कहा।
“तो भाभी कह दें!” मैने अपनी आवाज में आई हुई तल्खी को छिपाते हुए कहा।
“वह भी नहीं कहना चाहती”
भैया के इतना कहते ही मैंने गुस्से में कहा- “तो क्या मैं ही बलि का बकरा मिला हूँ? साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि कमरा खाली कर दो।”
…“देखो ऐसी बात नहीं है; तुम नाहक ही गुस्सा कर रहे हो, तुम तो हमारे सबसे पुराने किरायेदार हो”।
“इसीलिये तो” मैने बीच में ही टोका, “इसीलिये आप मुझसे कमरा खाली कराना चाहते हैं जिससे किराया बढाया जा सकें, …आपका कौन सा रिश्तेदार आ रहा है मुझे अच्छी तरह पता है।” मैने अपने स्वर में कठोरता लाते हुए पूछा- “कब तक खाली करना होगा?”

“लगता है तुम बुरा मान गये, पर अगर तुम कमरा खाली करना ही चाहते हो तो तीन दिन के अन्दर हो जाय तो बेहतर रहेगा”, इस आवाज में छुपी खुशी को मैं साफ़ महसूस कर रहा था।

“पर सिर्फ़ तीन दिन!” …मैं बोलना चाहता था पर आवाज़ मेरे गले में अटक कर रह गई। मकान-मालिक (भैया लिखने का मन नही हो रहा) ने फ़िर कहा- “चौथे दिन वह लड़का आ जायेगा।”
“ठीक है, मैं तीन दिन के अन्दर कमरा खाली कर दूँगा” यह कहते हुए मै सीढियों से धड़धड़ाते हुए नीचे अपने कमरे में आ गया।

कमरे में पहुँचकर मैंने कुर्सी खींची और धम्म से बैठ गया। गुस्से के मारे मुँह से गालियाँ निकल रहीं थीं। स्साला, कमीना; कमरा खाली कराना था तो बहाना बना रहा है, मां… …। साले को न तो बिजली का बिल देना है न पानी का। कटिया मार के तो पूरे घर में बिजली की सप्लाई दे रखी है। मुफ़्त की बिजली पर भी न तो कूलर चलाने देता है और न ही कमरे में एक से ज्यादा पंखा इस्तेमाल करने देता है। छ्त पर भी जाने नहीं देता। पानी के लिये मोटर भी सुबह-शाम मिलाकर एक घंटे से ज्यादा नहीं चलता। लैट्रिन-रूम में भी पानी नहीं आता, बाहर से डिब्बे में पानी भर कर ले जाना पड़ता है। रहना ही कौन चाहता है यहाँ।

…अचानक याद आया कि १५ दिन बाद ही फ़िर से ‘एक्ज़ाम’ है। फ़िर तो मानों हजारों टन बर्फ़ डाल दिया गया हो, शरीर एकदम से ठंडा हो गया। अभी तो कमरा खोजना है और फ़िर सामान सेट करने में कम से कम एक सप्ताह तो निकल ही जायेगा। क्या करूँ? …

यही सब सोचते हुए कमरे में ताला बंद कर मैने साईकिल उठाय़ी और एक-एक कर सलोरी, गोविन्द्पुर, तेलियरगंज, म्योराबाद और छोटा बघाड़ा के चक्कर लगा डाले। कटरा और अल्लापुर छोड़ दिया क्योंकि कटरा में कमरे बहुत मँहगे थे और अल्लापुर गन्दगी की वजह से मुझे हमेशा नापसन्द रहा है। तत्काल कमरा तो कहीं नहीं मिला था पर एकाध आश्वासन जरूर मिला था।
थका-हारा मैं आठ बजे तक कमरे पर लौट आया था। थकान इतनी थी कि नींद आ गई। नींद खुली तो रात के एक बज रहे थे। …भूख लग गई थी इसलिए जल्दी से तहरी चढ़ा दी। तहरी खाकर सोने की कोशिश की पर बहुत देर तक नींद नहीं आई। पता नहीं कहाँ-कहाँ की बातें दिमाग में आ रहीं थी। ऐसे ही लेटा रहा …कब नींद आ गई पता नहीं चला।

अगले दिन मुझे बेली हास्पीटल के पीछे बेली गाँव में एक कमरा मिल गया जो हर तरह से मेरी पहुँच में था। एक बड़ी सी बिल्डिंग के पिछवाड़े बने दो कमरों में से यह एक था। शायद कभी नौकरों के रहने के लिये बना हो पर अब हम जैसे लोगों के काम आ रहा था। कमरे में एक खिड़की थी जिसकी इच्छा मेरे मन में तबसे थी जबसे इलाहाबाद आया था। और जिसकी वजह से मैं अक्सर ही किसी गुमनाम शायर की ये लाइनें गुनगुनाता रहता था-

घुटन होती न कमरे में,यहाँ जो खिड़कियाँ होती।
मैं केवल सोच सकता हूँ, किरायेदार जो ठहरा॥

कमरे में कुर्सी-मेज, चौकी और खाना बनाने वाली जगह सेट करने के बाद भी एक चटाई बिछाने भर की जगह बचती …ऐसा मेरा अनुमान था…। सामान्यतया लड़कों के लिये बनाए गये कमरों मे इतनी जगह नहीं मिलती। पचास कदम पर ही चाय की दुकान थी,और उसी के बगल में सब्जी का ठेला भी लगता था। वहाँ से थोड़ी ही दूर पर मैगजीन की दुकान, फ़ोटोस्टेट और पीसीओ एक साथ थे। इस प्रकार यह कमरा मेरी हर बुनियादी जरूरत को पूरा कर रहा था। और सबसे खास बात तो यह कि यहाँ बिना अतिरिक्त पैसा दिये कूलर चलाने की भी छूट थी। मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि वो जो करता है अच्छे के लिये ही करता है।



मैंने तीसरे दिन शाम को अपने कुछ मित्रों को इकट्ठा किया… जिनके कमरा बदलने के आयोजन में मैं शामिल रहा था। एक ठेला सौ रुपये में तय हुआ। सामानों की पैकिंग शुरू हुई। किताबें बोरे में भरीं गईं। एक चुल्हेवाला छोटा सिलिंडर बाल्टी मे रखा गया। कमरे के कैलेंडर, पोस्टर, बची हुइ किताबें, नोट्स बिस्तर में बाधें गए। अटैची, बोरे, झाड़ू और छोटा वाला बैग तो ठेले के पेट में ही आ गये। इनके उपर चौकी रखी गई। उसके ऊपर मेज फ़िर कुर्सी। बाल्टी को चौकी के पाए में लटका दिया गया। मकान-मालिक तथा लॉज़ के अन्य लड़कों से दुआ-सलाम कर हम ठेले के साथ आगे बढ ।

ठेले के पीछे चलते हुए मैं नए कमरे में सामानों को व्यवस्थित करने के तरीके और पुराने कमरे के अनुभव के बारे में सोचता जा रहा था। ठेला चढ़ाई पर धीमा पड़ जाता और ढलान पाकर सरपट दौड़ पड़ता… बिलकुल ज़िन्दगी की तरह …मैं सोचता रहा …इस एक ठेले पर सिमटी ज़िन्दगी से निज़ात कब मिलेगी …

(बालमन)

7 टिप्‍पणियां:

  1. It could challenge the ideas of the people who visit your blog.

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  2. यहां ठेले पर सामान रखे छात्रों को इधर से उधर कमरा बदलते देखता हूं। सोचा था कि कभी एक चित्र ठेले का ले कर एक पोस्ट लिखूंगा। अच्छा हुआ आपने लिख दी। और अनुभवजन्य बेहतर पोस्ट!

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  3. इलाहाबाद में रहकर पढने और तैयारी करने वालों की कहानियाँ खूब सुनी थी. एकदम वैसी ही कहानी. बहुत शानदार पोस्ट है.

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  4. बहुत बढिया पोस्ट लिखा, इलाहाबाद में तो शायद ये आम नजारा हो, क्योंकि इलाहाबाद तैयारी करने वालों का शहर माना जाता है। Nice post....keep it up.

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  5. बेहतरीन आलेख-इलाहाबाद में सिविल सर्विसेस की तैयारी करने वालों की भीड़ देखी है.

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  6. छात्र जीवन का एक पहलू यह भी है, पहली बार मालूम हुआ।

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  7. इलाहाबाद के तमाम दोस्तों के किस्से याद आ गये। अच्छी पोस्ट!

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