अभी हाल ही में मुझे सपरिवार एक सम्पन्न रिश्तेदार के घर लखनऊ जाना हुआ। हमारे साथ मेरी बेटी की उम्र (७वर्ष) से थोड़ी बड़ी एक और लड़की भी रहती है जिसका बाप मेरे गाँव के घर पर नौकर है। मेरे बच्चों के साथ हिल-मिल कर रहते हुए वह इसी घर की हो गयी है और हमेशा परिवार में ही रहती है। लखनऊ से जब हम विदा होकर वापस लौटने लगे तो कार में बैठते ही मेरी बेटी ने मासूमियत से पूछा- “डैडी, लोग गरीबों को कम पैसा क्यों देते हैं? और अमीरों को ज्यादा? जबकि गरीबों को इसकी ज्यादा जरूरत है।”
मुझे उसका प्रश्न समझ में नहीं आया। बित्ते भर की बच्ची ऐसा सवाल क्यों पूछ रही है? मुझे थोड़ी हैरानी हुई। कुरेदने पर पता चला कि विदाई की परम्परा निभाते हुए मेरे सक्षम रिश्तेदार ने मेरी बेटी के हाथ पर पाँच सौ रुपये का नोट और इस लड़की के हाथ पर बीस रुपये रख दिये थे। यही ट्रीटमेन्ट उसे खल गया था। मेरी पत्नी ने झट उसे ‘बेवकूफ़’ कहकर चुप करा दिया। शायद इसलिए कि इस मध्यमवर्गीय मानसिकता की शिकार लड़की को कुछ बुरा न ‘फील’ हो। लेकिन इसके निहितार्थ पर मैं रास्ते भर सोचता रहा।
क्या मेरी बेटी ने वाकई बेवकूफ़ी भरा सवाल किया था? या हमारे अन्दर पैठ गयी ‘चालाकी’ अभी उसके अन्दर नहीं आयी है? शायद इसीलिए उसने अपनी नंगी आखों से वह देख लिया जो हम अपने स्थाई रंगीन चश्मे से नहीं देख पाते हैं। अमीर और गरीब के बीच का भेद कदम-कदम पर हमारे व्यवहार में बड़ी सहजता से जड़ा हुआ दिख जाता है।
हम बाजार में कपड़े खरीदने निकलते हैं तो बड़े शो-रूम के भीतर घुसते ही ब्रान्डेड कपड़ों की ऊँची से ऊँची कीमत देने से पहले सिर्फ़ बिल की धनराशि देखकर पर्स खोल देते हैं। लेकिन यदि सस्ते कपड़ों के फुटपाथ बाजार में कुछ लेना हुआ तो गरीब दुकानदार से ऐसे पेश आयेंगे जैसे वह ग्राहक को लूटने ही बैठा हो, जबर्दस्त मोलभाव किये बगैर माल खरीदना अर्थात् बेवकूफ़ी करना। मैकडॉवेल के रेस्तरॉ में पहले पैसा चुका कर सेल्फ़ सर्विस करके चाट खाना आज का ‘एटिकेट’ बन गया है, लेकिन ठेले वाले से मूंगफली खरीदते समय जब तक वह तौलकर पुड़िया बनाता है तब तक खरीदार उसके ढेर में से दो-चार मूंगफली ‘टेस्ट’ कर चुका होता है। गोलगप्पे वाला अगर एकाध पीस एक्स्ट्रा न खिलाये तो मजा ही नहीं आता है। ये गरीब दुकानदार जिस मार्जिन पर बिजनेस करते हैं उतनी तो अमीर प्रतिष्ठानों में ‘टिप्स’ चलती है।
वैसे श्रम की कीमत सदैव बुद्धि की अपेक्षा कम लगायी जाती रही है लेकिन मामला यहीं तक सीमित नहीं रहता। इसका एक पूरा समाजशास्त्र विकसित हो चुका है। कम कीमत सिर्फ रूपये में नहीं आंकी जाती बल्कि जीवन के अन्य आयाम भी इसी मानक से निर्धारित होते हैं। नाता-रिश्ता, हँसी-मजाक, लेन-देन, व विचार-विमर्श के सामान्य व्यवहार भी अगले की माली हालत के हिसाब से अपना लेबल तलाश लेते हैं। सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों पर निर्भर होते हैं इसका विस्तृत विवेचन हमें मार्क्स के विचारों मे मिलता है। लेकिन हमारी प्राचीन संस्कृति मे इसके आगे की बात कही गयी है:-
अयं निजः परोवेति गणना च लघुचेतसाम्।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
जबतक अपने और पराये का भेद हमारे मानस में कुण्डली मारकर बैठा रहेगा तबतक जिसे जहाँ मौका मिलेगा अपनी व्यक्तिगत रोटी ही सेंकने का उपक्रम करता रहेगा। यह जो निम्नवर्ग, मध्य्मवर्ग, और उच्चवर्ग का बंटवारा किया गया है वह भी मूलतः आर्थिक स्थिति का ही बयान है; लेकिन उसके साथ एक पूरा ‘पैराडाइम’ विकसित हो चुका है। मध्यमवर्ग की हालत और दुर्निवार है। इसको तो चीर-फाड़कर निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग की अतिरंजित कोठरियों में भी कैद करने की कोशिश हम स्वयं अपने लिये कर रहे हैं।
हम अपने दूरदर्शी ऋषियों के आप्तवचन भूलकर अमेरिकी ‘पिग-फिलॉसफ़ी’ पर लट्टू हुए जा रहे हैं। उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था के चंगुल में फँसकर भी हम आत्म-मुग्ध से अपनी निजी इकॉनामिक सेक्यूरिटी को अपना ध्येय बनाकर उसी सफलता की कामना से आगे बढ़ रहे हैं जो किसी मृगतृष्णा से कम नहीं है। यह वो तृष्णा है जो बिल गेट्स को भी चैन से सोने नहीं देती हैं जो दुनिया के सबसे बड़े कुबेर हुआ करते हैं।
फिर थोड़े में ही खुश रह लेने में हर्ज़ क्या है?
कोहरे में गंगा और मोटरबोट
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किनारा नहीं दिखता था। इस किनारे इक्का दुक्का लोग भर थे स्नान करते। कोई नाव
भी नहीं। कोई बंसी लगा मछली पकड़ते हुये भी नहीं था। पक्षी भी कम ही दिखे।
अचानक प्...
10 घंटे पहले
सही सवाल है जी...
जवाब देंहटाएंबात अमीर-गरीब की बातों से और आगे तक जाती है. बीयर पीकर और चिकेन खाकर रेस्टोरेंट में सौ रुपये की टिप्स देने के लिए तैयार हैं. लेकिन नशे के मारे डगमग कदमों को संभालकर रात के ग्यारह बजे जो रिक्शा वाला घर पहुँचायेगा उसके साथ अठन्नी के लिए झमेला जरूर करेंगे...अठन्नी जाती देख होश जल्दी आ जाता है..
thik keh rahe hai aap.. aajakal to yahi sab ho raha hai
जवाब देंहटाएंबच्चा अपनी सरलता से जटिल मनुष्य को बेहतर सिखा सकता है।
जवाब देंहटाएंज्ञान दत्त जी से सहमत हूँ, बच्चों की सरलता में ज्ञान लेने योग्य कई बातें होती हैं.
जवाब देंहटाएं"मेरी पत्नी ने झट उसे ‘बेवकूफ़’ कहकर चुप करा दिया। शायद इसलिए कि इस मध्यमवर्गीय मानसिकता की शिकार लड़की को कुछ बुरा न ‘फील’ हो।"
जवाब देंहटाएंलेकिन आपने भी तो रिश्तेदार के लिए 'मेरा' के स्थान पर 'मेरे' और नौकर की बेटी के पिता के लिए 'उसका बाप' शब्द का प्रयोग किया है। जब कि 'उस के पिता'भी लिखा जा सकता था।
दरअस्ल हमारे वर्गीय संस्कार इतने मजबूत हैं कि हम उन्हें छिपा भी नहीं पाते।
बीमारी की शिनाख्त कई बार उसके इलाज से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। कॉमन सेंस को असुविधाजनक बनाने की यह कार्रवाई बिना सिनिकल हुए जारी रखी जानी चाहिए।
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो बच्चे मन के सच्चे कहा जाता है।
जवाब देंहटाएंकहीं आपके घर मे वो बच्ची चाइल्ड लेबर तो नही ?
बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो।
जवाब देंहटाएंचार किताबें पढकर यह भी हम जैसे हों जायेंगे॥ पर क्या यह कोई करेगा?
ममता जी, आपकी शंका जायज हो सकती है. लेकिन सच्चाई इसके उलट है. दरअसल गांव मे भयंकर गरीबी और दर्जन भर भाई-बहनों के बीच कुपोषण का शिकार बनी यह बच्ची मेरी पत्नी की करुणा की डोर पकड़ कर यहाँ आ गई है जो मेरे घर मे तनख्वाह पर काम करने वाली 'कुक' और स्वीपर पर निगरानी रखने के अलावे सिर्फ़ मेरे दो बच्चो के साथ खेलने -कूदने ,खाने-पीने और टीवी देखने मे, और थोड़ा-बहुत पढ़ने में व्यस्त रहती है. अब इसे 'चाइल्ड-लेबर' का नाम देंगी तो मेरी पत्नी आहत हो जायेंगी क्योकि यदि मैंने उसे तेज आवाज में कभी डाटा भी तो उल्टे मुझे ही डांट पड़ जाती है. ऐसा 'अपने' बच्चों के मामले में कदाचित नहीं होता है. उसके माँ-बाप तो एकाध और बच्चो को भी ऐसे ही एडजस्ट कराने की इच्छा व्यक्त कर चुके हैं.
जवाब देंहटाएं... खैर मैं तो नाहक सफाई देने लगा. यह तो खोज का विषय है.
यही तो मध्यमवर्गीय लोगों का चरित्र है।बढिया चित्रण है।
जवाब देंहटाएंआर्थिक दौड़ की प्रक्रिया मानवीय संवेदना की समाप्ति की प्रक्रिया से भिन्न नहीं है। मानवीय मूल्यों की समाप्ति के पश्चात् मनुष्य और पशु में अन्तर करना कठिन होगा। हम सबका सामाजिक दायित्व है कि मानवीय संवेदना एवं मूल्यों की रक्षा करें। लेखक का उक्त प्रयास सर्वथा सामयिक एवं सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंवर्ग व्यवस्था का बहुत सहजता से चित्रण किया है. विचारणीय है.
जवाब देंहटाएं————————
आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
बिटिया के सवाल के जवाब खोजने के बहाने आपने जो सवाल खड़े किए हैं उसका जवाब मिल जाए तो, देश सुधर जाए।
जवाब देंहटाएंवास्तविकता स्वीकारना भी तो अच्छा है विसंगतियों को प्रामाणिकता की आवश्यकता नहीं होती
जवाब देंहटाएंsawal yeh uthata hai ke kya
जवाब देंहटाएंis soch ka karan kya hai. mujhe yeh lagta hai ki hum log jise apni nazaron mein bada samjhate hai,uske liye mansik taur par hamara nazaria bhi waisa hi hota hai. yadi hum usse apne barabar ya chhota mante to aisa khayal nahi aata, prantu apne nazarien ke prati swarthparakata hame panch sau vs. bees rupaye ka fark rakhne ko badhya kar deti. isi karan hum kabhi kabhar uthne wale sacha ke ehsas ko daba dete hai.
जवाब देंहटाएंis soch ka karan kya hai. mujhe yeh lagta hai ki hum log jise apni nazaron mein bada samjhate hai,uske liye mansik taur par hamara nazaria bhi waisa hi hota hai. yadi hum usse apne barabar ya chhota mante to aisa khayal nahi aata, prantu apne nazarien ke prati swarthparakata hame panch sau vs. bees rupaye ka fark rakhne ko badhya kar deti. isi karan hum kabhi kabhar uthne wale sacha ke ehsas ko daba dete hai.
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