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सोमवार, 5 मई 2008

ठाकुर बाबा


हमारे गाँव में एक बुजुर्ग हुआ करते थे- ठाकुर बाबा। उन्होने अच्छी खासी सम्पत्ति अपने पुरुषार्थ और दूसरों की मजबूरी के संदोहन से अर्जित कर ली थी।
अंग्रेजी जमाने में साहूकारी का धंधा खूब चल निकला था। इसके माध्यम से गरीब कर्ज़दारों की जमीन व गहने इत्यादि एक-एक कर उनकी तिजोरी की भेंट चढ़ते गये। प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ते समय ऐसे पात्रों की छवि बरबस मुझे इनकी याद दिला देती है।

इनके घर में खाने-पीने की ‘जबर्दस्त’ व्यवस्था थी। देहात में चाहे जिसका भी खेत हो, उसमें उगने वाली फ़सल का पहला स्वाद यही श्रीमन्‌ चखते थे। आम, अमरुद, केला, कटहल या हरी-मटर हो अथवा कोई भी ताजा हरी सब्जी, चँवर में रात भर जाग कर शिकार की गयी दुर्लभ मछली हो या गरीब परिवार के बच्चों द्वारा बड़े जतन से पाले गये बकरी के बच्चे हों। अगर ठाकुर बाबा की निगाह इसपर पड़ गयी तो इसे उनका निवाला बनना ही पड़ेगा। किसकी मजाल है जो रोकने की हिमाक़त करे। जिसने गलती की उसकी शामत आयी। अंग्रेज़ सरकार बकायेदारों को कुर्की-जब्ती की नोटिस थमाने में तनिक देर नहीं करती थी। फिर तो बड़ा संकट आ जाता।

तो, इसी जबर्दस्त इन्तजाम के लालच में इनके दरबार में चाटुकारों, व बेरोजगार पट्टीदारों की मंडली इन्हे घेरे रहती थी और इनके पुरुषार्थ की प्रसंशा करने में एक-दूसरे से होड़ करती थी। नंगे राजा की कहानी शायद यहीं से निकली होगी।

ये सारी बातें मैने अपने पिताजी व दादाजी से सुन रखी थी। उनके साक्षात्‌ दर्शन की मेरी प्रारंभिक स्मृति यह है कि काफी बूढ़ा और कमजोर हो जाने के कारण आसन्न मृत्यु को देखते हुए उनकी इच्छानुसार उन्हे कई बार बनारस ले जाया गया था। इस विश्वास के साथ कि स्वर्ग की सीढ़ी पर बाबाजी वहीं से कब्जा जमा लेंगे। लेकिन हर बार एक-दो माह बिताकर वे वापस आ जाते थे। तब गाँव में चर्चा सुनता था कि भगवान के यहाँ जबर्दस्ती नहीं चलती।

आखिरकार वे दिवंगत हुए। बनारस के रास्ते में। अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गये। बड़ी धूम-धाम से अन्तिम संस्कार हुआ। बनारस में। तेरहवीं में पूरा इलाका उमड़ पड़ा था। उसी दिन उनके पुत्रों ने उनकी अंतिम इच्छा के सम्मान में एक गाय के बछड़े गर्म लोहे से चक्र व त्रिशूल की आकृति में दाग कर छुट्टा छोड़ दिया। हम बच्चों के लिये यह बछड़ा कौतूहल का विषय था। यह पूरे गाँव-जवार में निरंकुश घूमने के लिये स्वतंत्र था। पारंपरिक मान्यता के अनुसार उसे किसी प्रकार से बांधना, रोकना या वर्जित करना निषिद्ध था।

अब ‘ठाकुर बाबा’ नया रूप धरकर सबको सता रहे थे। वह बछड़ा गाँव के भीतर जिस ओर चौकड़ी भरता हुआ पहुँच जाता उस ओर के बच्चे खेलना छोड़कर घर में घुस कर जान बचाते। गाँव के बाहर खेतों की ओर जाता तो किसान परिवार हाय-हाय करने लगता। जाने किसकी फसल चर जाय। सड़क पर खड़ा हो जाय तो राहगीर अपना रास्ता बदल लें। गाँव की नयी पीढ़ी के कुछ साहसी बच्चे समूह बनाकर उसे डराने-मारने का उपक्रम करते तो बड़े-बूढ़े उन्हे मना तो करते थे लेकिन प्रच्छ्न्न रूप में उन्हे उसका मार खाना बुरा नहीं लगता था। बहुतों को तो इसमें ईश्वरीय न्याय की झलक भी मिलती थी।
स्वतंत्र और निर्द्वन्द्व रूप से चरने और खाने का परिणाम यह हुआ कि वह एक रौबदार भारी भरकम साँड़ बन गया जिसकी ख्याति ठाकुर बाबा की ही तरह दूर-दूर तक फैल गयी। लोग चर्चा करते कि इसके कुछ मौलिक गुण ठाकुरबाबा से काफी हद तक मेल खाते थे।
उन दिनों मैं आठवीं में पढ़ रहा था। मेरे संस्कृत के अध्यापक ने एक दिन कक्षा में संस्कृत की कुछ पहेलियाँ बताईं। उनमें से एक कुछ इस प्रकार थी:

चक्रीत्रिशूली नशिवो नविष्णू
महाबलिष्ठो नचभीमसेनः
स्वच्छंदचारी, नृपतिर्नयोगी
सीतावियोगी नच रामचन्द्रः

मास्टर साहब ने जब इसका अर्थ समझाया तो मेरे मुंह से अकस्मात्‌ इसका उत्तर निकल पड़ा – साँड़। सोचता हूँ कि सही उत्तर के लिए मुझे जो शाबासी मिली उसका धन्यवाद इस ब्लॉग के माध्यम से ठाकुर बाबा को प्रेषित कर दूँ।

(सुना है अनिल रघुराज शिवकुमार मिश्र जैसे मूर्धन्य अपना ब्लॉग उस लोक तक ठेलने की योजना बना रहे हैं। शायद वे मेरी मदद कर दें।)

3 टिप्‍पणियां:

  1. सिद्धार्थ जी, बहुत गजब का वर्णन किया है आपने ठाकुर बाबा का...आप ठाकुर बाबा को धन्यवाद ज़रूर प्रेषित करें...'बाबा' लोग तो जगह-जगह विद्यमान हैं..आपका धन्यवाद जरूर पहुंचेगा.

    और रही बात मेरे ब्लॉग को स्वर्ग तक ठेलने की, तो मैंने ऐसी कोई कोशिश नहीं की है. हलकान 'विद्रोही' जी की कोशिश हो सकती है. आप कहें तो हलकान भाई से बात चलाऊँ...:-)

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  2. रोचक! अर्थात जितने नन्दीगण घूम रहे हैं, वे सब हमारे पूर्वज हैं।

    असल में वे हमारे भूत हैं और भविष्य भी।
    बहुत अच्छा लिखा आपने और सीढ़ी का चित्र तो सोने में सुहागा!

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  3. ठाकुर बाबा जैसा साँड्पन तो हम सभी में थोडा बहुत होता ही है समस्या सिर्फ़ अवसर और सामर्थ्य की है।पढ के मजा आया।

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